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________________ कृतिकार्य १४० कृष्टि कृ कृतिकार्य-अपर नाम क्षत्रिय था-दे० क्षत्रिय । कृतिधारा-दे० गणित/II/५।२ । -किसी राशिके Square root को कृतिमूल कहते है -दे० गणित/II/१/७। कृत्तिका-एक नक्षत्र-दे० नक्षत्र । कृत्स्न -स०सि०/५/१३/२७८/१० कृत्स्नवचनमशेषव्याप्तिप्रदर्शनम्। = सबके साथ व्याप्ति दिखलानेके लिए सूत्रमें 'कृत्स्न' पद रखा है। कृषिकर्म-दे० सावध/३ । कृषिव्यवसाय-कुरलकाव्य/१०४/१ नरो गच्छतु कुत्रापि सर्वत्रान्नमपेक्षते । तसिद्धिश्च कृषस्तस्मात् सुभिक्षेऽपि हिताय सा आदमी जहां चाहे घूमे पर अन्तमे अपने भोजनके लिए हल का सहारा लेना ही पड़ेगा। इसलिए हर तरहकी सस्ती होनेपर भी कृषि सर्वोत्तम उद्यम है। कृष्टि-कृष्टिकरण विधानमें निम्न नामवाली कृष्टियोंका निर्देश प्राप्त होता है-कृष्टि, बादर कृष्टि, सूक्ष्मकृष्टि, पूर्व कृष्टि, अपूर्वकृष्टि, अधस्तनकृष्टि, संग्रहकृष्टि, अन्तरकृष्टि, पार्श्व कृष्टि, मध्यम रखण्ड कृष्टि, साम्प्रतिक कृष्टि, जघन्योत्कृष्ट कृष्टि, घात कृष्टि । इन्हींका कथन यहां क्रमपूर्वक किया जायेगा। तहाँ सबसे नीचे लोभकी (लोभके स्पर्धकोंकी) प्रथम संग्रहकृष्टि है तिसविषै अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर लोभकी द्वितीय संग्रहकृष्टि हे तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर लोभकी तृतीय संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। तातै ऊपर मायाकी प्रथम संग्रहकृष्टि है तहाँ भी अन्तरकृष्टि अनन्त है। इसी प्रकार तातै ऊपर मायाकी द्वितीय, तृतीय संग्रहकृष्टि व अन्तरकृष्टि है। इसी क्रमसे ऊपर ऊपर मानकी ३ और क्रोधकी ३ संग्रहकृष्टि जानना। २. स्पर्धक व कृष्टिमें अन्तर क्ष. सा./५०६/भाषा-अपूर्व स्पर्धककरण कालके पश्चात् कृष्टिकरण काल प्रारम्भ होता है । कृष्टि है ते तो प्रतिपद अनन्तगुण अनुभाग लिये है। प्रथम कृष्टिका अनुभाग ते द्वितीयादि कृष्टिनिका अनुभाग अनन्त अनन्तगुणा है। बहुरि स्पर्धक हैं ते प्रतिपद विशेष अधिक अनुभाग लिये हैं अर्थात् स्पर्धकनिकरि प्रथम वर्गणा तै द्विती. यादि वर्गणानि विषै कछू विशेष-विशेष अधिक अनुभाग पाइये है। ऐसे अनुभागका आश्रयकरि कृष्टि अर स्पर्धकके लक्षणों में भेद हैं। द्रव्यकी अपेक्षा तो चय घटता क्रम दोअनि विष ही है। द्रव्यको पंक्तिबद्ध रचनाके लिए-दे० स्पर्धक । ३. बादरकृष्टि क्ष, सा./४६० की उत्थानिका ( लक्षण)-संज्वलन कषायनिके पूर्व अपूर्व स्पर्धक. जैसे-ईटनिकी पंक्ति होय ते से अनुभागका एक-एक अविभाग प्रतिच्छेद बधती लोएँ परमाणूनिका समूहरूप जो वर्गणा तिनके समूह रूप हैं । तिनके अनन्तगुणा घटता अनुभाग होनेकर स्थूल-स्थूल खण्ड करिये सो बादर कृष्टिकरण है। बादरकृष्टिकरण विधानके अन्तर्गत संज्वलन चतुष्कको अन्तरकृष्टि व मंग्रहकृष्टि करता है। द्वितीयादि समयोंमें अपूर्व व पार्श्वकृष्टि करता है। जिसका विशेष आगे दिया गया है। বির অরি-নিরীব অম্বিক বল কি १. कृष्टि सामान्य निर्देश ध. ६/१,६-८,१६/३३/३८२ गुणसेडि अणं तगुणा लोभादीकोधपच्छिमपदादो। कम्मस्स य अणुभागे किट्टीए लक्वर्ण एदं ।३३१ जघन्यकृष्टिसे लेकर.. अन्तिम उत्कृष्ट कृष्टि तक यथाक्रमसे अनन्तगुणितगुणश्रेणी है । यह कृष्टिका लक्षण है। ल. सा./जी.प्र./२८४/३४४/५ 'कर्शनं कृष्टिः कर्मपरमाणुशक्तेस्तनूकरणमित्यर्थः । कृश तनूकरणे इति धात्वर्थ माश्रित्य प्रतिपादनाद । अथवा कृष्यते तनूक्रियते इति कृष्टि' प्रतिसमय पूर्वस्पर्धकजधन्यवर्गणाशक्तेरनन्तगुणहीनशक्तिवर्गणाकृष्टिरिति भावार्थः। -कृश तनूकरणे इस धातु करि 'कर्षणं कृष्टिः जो कर्म परमाणुनिकी अनुभाग शक्तिका घटावना ताका नाम कृष्टि है। अथवा 'कृश्यत इति कृष्टिः' समय-समय प्रति पूर्व स्पः ककी जघन्य वर्गणा तें भी अनन्तगुणा घटता अनुभाग रूपं जो वर्गणा ताका नाम कृष्टि है। (गो.जी./ भाषा./५/१६०/३) (क्ष. सा. ४६० को उत्थानिका)। क्ष. सा./४६०. कृष्टिकरणका काल अपूर्व स्पर्धक करणसे कुछ कम अन्तर्मुहूर्त प्रमाण है। कृष्टिमें भी संज्वलन चतुष्कके अनुभाग काण्डक व अनुभाग सत्त्वमें परस्पर अश्वकर्ण रूप अल्पबहुत्व पाइये है। ताते यहाँ कृष्टि सहित अश्वकरण पाइये हैं ऐसा जानना। कृष्टिकरण कालमें स्थिति बन्धापसरण और स्थिति सत्त्वापसरण भी बराबर चलता रहता है। क्ष. सा./४६२-४६४ "संज्वलन चतुष्ककी एक-एक कषायके द्रव्यको अपकर्षण भागाहारका भाग देना, उसमें से एक भाग मात्र द्रव्यका ग्रहण करके कृष्टिकरण किया जाता है ॥४१॥ इस अपकर्षण किये द्रव्यमें भी पत्य/अंस० का भाग देय बहुभाग मात्र द्रव्य बादरकृष्टि सम्बन्धी है। शेष एक भाग पूर्व अपूर्व स्पर्धकनि विषै निक्षेपण करिये (४६३) द्रव्यको अपेक्षा विभाग करनेपर एक-एक स्पर्धक विषै अनन्ती वर्गणाएँ हैं जिन्हें वर्गणा शलाका कहते हैं। ताकै अनंतवें भागमात्र सर्व कृष्टिनिका प्रमाण है ॥४१४॥ अनुभागको अपेक्षा विभाग करनेपर एकएक कषाय विषै संग्रहकृष्टि तीन-तीन है, बहुरि एक-एक संग्रहकृष्टि विषै अन्तरकृष्टि अनन्त है। ४. संग्रह व अन्तरकृष्टि क्ष. सा./४६४-१०० भाषा-एक प्रकार बंधता ( बढता ) गुणाकार रूप जो अन्तरकृष्टि, उनके समूहका नाम संग्रहकृष्टि है ।४६४। कृष्टिनिक अनुभाग विषै गुणाकारका प्रमाण यावत् एक प्रकार बढता भया तावत सो ही संग्रहकृष्टि कही । बहुरि जहाँ निचली कृष्टि तै ऊपरली कृष्टिका गुणाकार अन्य प्रकार भया तहाँ तै अन्य संग्रहकृष्टि कही है। प्रत्येक संग्रहकृष्टिके अन्तर्गत प्रथम अन्तरकृष्टिसे अन्तिम अन्तरकृष्टि पर्यन्त अनुभाग अनन्त अनन्तगुणा है। परन्तु सर्वत्र इस अनन्त गुणकारका प्रमाण समान है, इसे स्वस्थान गुणकार कहते हैं। प्रथम संग्रहकृष्टिके अन्तिम अन्तरकृष्टिसे द्वितीय संग्रहकृष्टिकी प्रथम अन्तरकृष्टिका अनुभाग अनन्तगुणा है। यह द्वितीय अनन्त गुणकार पहलेबाले अनन्त गुणकारसे अनन्तगुणा है, यही परस्थान गुणकार है। यह द्वितीय संग्रह कृष्टिकी अन्तिम अन्तरकृष्टिका अनुभाग भी उसकी इस प्रथम अन्तरकृष्टिसे अनन्तगुणा है। इसी प्रकार आगे भी जानना ।४६८। संग्रह कृष्टि विर्षे जितनी अन्तर कृष्टिका प्रमाण होइ तिहिका नाम संग्रहकृष्टिका आयाम है ।४६।चारों कषायोंकी लोभसे क्रोध पर्यन्त जो १२ संग्रहकृष्टियाँ हैं उनमें प्रथम संग्रहकृष्टिसे अन्तिम संग्रहकृष्टि पर्यन्त पल्य/ अंस० भाग कम करि घटता संग्रहकृष्टि आयाम जानना ।४६६। नौ कषाय सम्बन्धी सर्वकृष्टि क्रोधकी संग्रहकृष्टि विषै हो मिला दी गयी है।४६६ क्रोधके उदय सहित श्रेणी चढनेवालेके १२ संग्रह कृष्टि होती है। मानके उदय सहित चढनेवालेके , मायावालेके ६; और लोभवालेके केवल ३ ही संग्रहकृष्टि होती है, क्योकि उनसे पूर्व पूर्वकी कृष्टियाँ अनन्तगुणा है । टिका प्रमाण ह क्रोध पर्य जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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