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________________ करण ३. त्रिकरण निर्देश गुणस्थान कर्म प्रकृति सम्भवकरण ।१-११ उपरोक्त ११ क्षयदेश पर्यन्त अपकर्षण क्षपक कट्टणकरणं सगसगबंधोत्ति होदि णियमेण। संकमणं करणं पुण सगसगजादीण बंधोत्ति ।४४४। च्यार आयु तिनिकै संक्रमण करण बिना नव करण पाइए हैं जात चाखौ आयु परस्पर परिणमें नाही। अवशेष सर्व प्रकृतिनिकै दश करण पाइये हैं।४४१। बन्ध करण अर उत्कर्षण करण ये तो दोऊ जिस जिस प्रकृतिनिकी जहाँ बन्ध व्युच्छित्ति भई तिस तिस प्रकृतिका तहाँ ही पर्यन्त जानने नियमकरि। बहुरि जिस जिस प्रकृतिके जे जे स्वजाति हैं जैसे ज्ञानावरणकी पाँचों प्रकृति स्वजाति हैं ऐसे स्वजाति प्रकृतिनिकी बन्धकी व्युच्छित्ति जहाँ भई तहाँ पर्यन्त तिनि प्रकृतिनिके संक्रमण करण जानना ।४४४ (विशेष देखो उस उस करणका नाम) ३. गुणस्थानोंमें १. करण सामान्य व विशेषका अधिकार निर्देश ( गो. क /४४१-४५०/५६३-६६६) १. सामान्य प्ररूपणा उपरोक्त २० स्व स्व क्षयदेश पर्यन्त अप कर्षण ११ उपश० स० मिथ्यात्व व मिश्रमोह। | उपशम, नित्ति व निः कांचित बिना ७ | ११क्षा.स. उपरोक्त रके बिना शेष १४६ संक्रमण रहित उपरोक्त-६ १२ ५ ज्ञाना०, ५ अन्तराय, ४ स्व स्व क्षयदेश पर्यन्त अपदर्शना०निद्रा व प्रचला-१६ कर्षण अयोगीकी सत्त्ववाली ६५ अपकर्षण जिस प्रकृतिकी जहाँ व्युच्छित्ति वहाँ पर्यन्त बन्ध और उत्कर्षण स्व जाति प्रकृतिकी बन्ध व्यु० पर्यन्त संक्रमण १-१३ गुणस्थान ___करण व्युच्छित्ति सम्भव करण x दशो करण उपशम, निधत्त, निःकांचित शेष ७ संक्रमण संक्रमणरहित ६+ मिथ्यात्व व मिश्र प्रकृतिका संक्रमण भी-७ | संक्रमण रहित-६ बन्ध, उत्कर्षण, अपकर्षण उदीरणा X उदय व सत्त्व-२ ३. त्रिकरण निर्देश ..त्रिकरण नाम निर्देश ध.६/१, ६-८,४/२१४/५ एत्य पढमसम्मतं पडिबज्जंतस्स अधापवत्तकरण अपुवकरण-अणियट्टीकरणभेदेन तिविहाओ विसोहीओ होति। - यहॉपर प्रथमोपशम सम्यक्त्वको प्राप्त होनेवाले जीवके अधःप्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरणके भेदसे तीन प्रकारकी विशुद्धियाँ होती हैं । (ल सा./मू./३३/६६).(गो. जी./मू /४७/६६) ( गो. क./मू./८६६/१०७६ ) । गो. क./जी.प्र/८/८१७/१०७६/४ करणानि त्रीण्यधःप्रवृत्ताप्रमिवृत्तिकरणानि । करण तीन हैं-अधःप्रवृत्त, अपूर्व और अनिवृत्तिकरण । २. सम्यक्त्व व चारित्र प्राप्ति विधिमें तीनों करण अवश्य २.विशेष प्ररूपणा गुणस्थान कर्म प्रकृति सम्भवकरण सातिशय / मिथ्यात्व मि० एक समयाधिक आवलीतक उदीरणा सत्त्व, उदय, उदीरणा-३ नरकायु १-१ तियंचायु | अनन्तानुबन्धी चतुष्क स्व स्व विसंयोजना तक उत्कर्षण उदीरणा अपकर्षण गो. जी./जी. प./६५१/११००/६ करणलब्धिस्तु भव्य एव स्यात् तथापि सम्यक्त्वग्रहणे चारित्रग्रहणे च। -करणलब्धि भव्यकै ही हो है। सो भी सम्यक्त्व और चारित्रका ग्रहण विष ही हो है। ३. त्रिकरणका माहात्म्य ल. सा./जी प्र/३३/६६ क्रमेणाधःप्रवृत्तकरणमपूर्वकरणमनिवृत्तिकरणं च विशिष्टनिर्जरासाधनं विशुद्धपरिणामं । क्रमश अधःप्रवृत्तकरण अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण ये तीनों विशिष्ट निर्जराके साधनभूत विशुद्ध परिणाम है ( तिन्हें करता है)। ४. तीनों करणों के काल में परस्पर तरतमता ल. सा/मू व. जी. प्र./३४/७० अंतोमुत्तकाला तिण्णिवि करणा हवंति पत्तेयं । उवरीदो गुणियकमा क्मेण संखेज्जरूवेण ॥३४॥ एते त्रयोऽपि करणपरिणामा' प्रत्येकमन्तर्मुहूर्तकाला भवन्ति । तथापि उपरित अनिवृत्तिकरणकालारक्रमेणापूर्व करणाधःकरणकालौ संख्येयरूपेण गुणितक्रमौ भवति । तत्र सर्वत स्तोकान्तर्मुहूर्तः अनिवृत्तिकरणकाल, ततः संख्येयगुण' अपूर्वकरणकाल', तत' संख्येयगुणः अधःप्रवृत्तकरणकालः। मातीनों ही करण प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त कालमात्रस्थितियुक्त हैं तथापि ऊपर ऊपरतै संख्यातगुणा क्रम लिये है। अनिवृत्तिकरणका काल स्तोक है। तातै अपूर्वकरणका संख्यात गुणा है। तातें अधःप्रवृत्तकरणका संख्यातगुणा है। (तीनौका मिलकर भी अन्तर्मुहूर्त प्रमाण सूक्ष्मलोभ देवायु (सामान्य) उपशामक नरक द्वि. तिर्य द्वि: ४ जाति:स्त्यान त्रिक, आतप, उद्योत, सूक्ष्म, साधारण, स्थावर, दर्शनमोहत्रिक-१६ अपकर्षण अप्रत्या० व प्रत्या. चतु संज्ष क्रोध, मान, माया; स्व स्व उपशम पर्यन्त अपनोकषाय-२० कर्षण जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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