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________________ प्रमाण प्रमाण Jain Education International एकजीवापेक्षया नानाजीवापेक्षया नं०१ | २०२ जघन्य विशेष ।। काल मार्गणा स्थान नं० जघन्य विशेष न०१ नं०३ | जघन्य । विशेष विशेष उत्कृष्ट मूलोधवत मूलोघवद २ २१५ मति श्रुत शान ४-१२ / २६६ अवधि शान १-४ - मूलोधवत १४ अंत० कम | ओघ से १ अन्तर्मु और भी कम है। | क्योंकि सम्यक्त्व अवधि धारनेमें १ अन्तर्मुलगा मूलोघवत् मन.पर्यय ६-१२/ २६७ केरल १३-१४,२६८ ८. संयम मार्गणा संयम सामान्य ३३-३४ सर्वदा | विच्छेदाभाव | सबदा विच्छेदाभाव | संयमोसे असंयमी १४६ वर्ष कम १ ८ वर्ष की आयुमें संयम धार उत्कृष्ट पूर्व कोड़। मनुष्य आयु पर्यन्त संयम सहित रहे| , सामायिक छेदो १ समय उपशम श्रेणीसे उतरते हुए मृत्यु | परिहार विशुद्धि For Private & Personal Use Only जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १४६ ११४ ३८ वर्ष कम १ सर्व लघु काल ८ वर्ष में संयम धार ३० साल पश्चात् तीर्थकरके पादमूलमें प्रत्याख्यान पूर्वको पढ़कर | परिहार विशुद्धि संयत हुआ। प्रथम समय प्रवेश द्वितीय अन्त इससे अधिक न रहे समय मरण मरणका यहाँ अभाव है सूक्ष्म साम्पराय उप० ३५-७१ समय १जीववत् अन्तम० जघन्यवत प्रवाह १५५ ३३-३४ सर्वदा विच्छेदाभाव १७) यथाख्यात | उप० ३५-३११ समय १जीववत् अन्तर्मु० जघन्यवत् प्रवाह क्षप० ३३-३४ सदा विच्छेदाभाव । सर्वदा विच्छेदाभाव प्रथम समय प्रवेश द्वितीय समय मरण अन्तम० मरणका अभाव ८ वर्ष कम १ संयम सामान्यवद पर यथा योग्य | पूर्व कोड़ अन्त० अन्त० पश्चात् यथारख्यात धारण करे अन्तर्मुः कम १ सम्मूच्छिम तियंच मेंढकादिकी। पूर्व कोड़ अपेक्षा अनादि अनन्त सादि सान्त संयतसे असंयत हो पुनः संयत अनादि सान्त | प्रथम बार संयम धारे तो संयतासंयत १४८ - १४६ असं यत (अभ०) (भव्य) ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ (सादि सान्त) अन्तर्मुः अर्ध० पु. परि० इतने काल मिथ्यात्वमें रहकर पुनः सं० संयम सामान्य | ६-१४ / २६६ मूल ओघवत् २६६ मूलओघवत् www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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