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________________ Jain Education International For Private & Personal Use Only जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश www.jainelibrary.org मार्गणा पंजियक वैक्रियकमिश्र आहारक गुण प्रमाण स्थान नं० १ | नं०२ जघन्य प कामण २ २०० ११६ ४ ३ mr x १ cr २ ४ आहारकमिश्र ६ १ २, ४ सू. १६६ १३ २०१२०२ २०५२०६ २०१२०२ २०६ - २१० २१३ २१४ २१७ २२० २२१ २२४ २२५ १ समय ११ भंग = 1 नाना जीवापेक्षया विशेष जा इतनेकाल पश्चात पर्याप्त हुआ १ समय गुणस्थान में १ २०० स्व मिथ्यादृष्टि १६७ बत् १६८ अन्तर्मु. ७ या द्रव्य पश्य । ७ या ८ जीव २०३ लिंगी मुनि उपरिम मैवेयकमे असं १ समय पक्य । समय शेष रहने- असं पर देवों में उपज सब मिथ्यात्वी हो गये क्य अन्तर्मु संयत २ विग्रह सर्वार्थसिद्धि अ उपज पर्याप्त हुए ३ समय उत्कृष्ट १ समय एक जीववत् युग- अन्तर्मु. पत् नाना जीव अन्तर्मु - सर्वदा विच्छेदाभाव १ समय एक जीवव पचय / प्रवाह असं 93 " विशेष : प्रमाण २०१ २०३ देव या नरक २०४ में जा इतने जघन्यवत प्रवाह क्रम १६६ काल पश्चात पर्याप्त हुए जघन्यवत् पर २०७१ समयसे ६२०८ जनतापोष रहते उत्पत्ति की प्ररूपणा उपरोक्त मिध्यादृष्टि वत् " "" २०३२०४ २११२१२ २१५ २१६ सर्वदादिभाव २१ २१६ २२३ २२६ आ० / जघन्यवत् २२२असं प्रवाह सं. समय । जवन्य १ समय १ समय विशेष स्वमिध्या अन्तर्मु० उपरिम चैवेयक उपजने अन्तर्मुहूर्त वाला द्रव्य लिंगी मुनि सर्व लघुकाल पश्चात् पर्याप्त हुआ ९ समय एक जीवापेक्षया | उत्कृष्ट ३ समय ११ भंग लागू करने (देखो ६ आवली काल/५) अन्तर्मुहूर्त सासादनमें एक समय शेष रहनेपर देवों में उत्पन्न हुआ द्वितीय समय मिथ्यादृष्टि हो गया अन्तर्मु कोई मुनि २ निग्रहसे सर्वार्थ अन्तर्मुहूर्त सिद्धि उपना इतनेकाल पश्चादपर्यात हुआ १ समय कम आवसी अभिमत विवक्षित योग | अन्तर्मुहूर्त में आकर १ समय पश्चात् मूल शरीर प्रवेश देखा है मार्ग जिन्होंने ऐसा जीन सर्वलघुकालमें पर्याप्त होता है मारगान्तिक रुमुद्धात पूर्वक समय १ निग्रहसे जन्म एक विग्रहसे उत्पन्न होने २ समय बाला जीव कपाटसे क्रमशः प्रतर लोक- ३ समय पूर्ण - प्रतर विशेष स्वकालमें ६ बा० रहनेपर विवक्षित योगमें प्रवेश इतने काल पीछे योग परिवर्तन मनुष्य व तिर्यच मिध्यादृहि जी पृथिवीमें उपज इतने काल पश्चात् पर्याप्त हुआ उपशम सम्यक्त्व के कालमें छः आवली शेष रहनेपर कोई मनुष्य या तिच सासादनको प्राप्त हुआ । एक समय पश्चात् देव हुआ । १ समयकम छः आवली पश्चात् मिथ्यादृष्टि हो गया। बद्धायुष्क क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव प्रथम पृथिवीमें उपजा । इतनेकाल पश्चात पर्याप्त हुआ। जमन्यवय नहीं देखा है मार्ग जिसने ऐसा जीव इससे पहिले पर्याप्त न हो जघन्यवत पर ३ विग्रह से जन्म २ विग्रहसे उत्पन्न होनेवाला जीव जघन्यवत् काल ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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