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________________ काल Jain Education International ३. जीवों के अवस्थान काल विषयक सामान्य व विशेष आदेश प्ररूपणा प्रमाण-१. (ष.ख.४/१,५,३३-३४२/३५७-४८८); २. (प.ख./२,८,१-५५/पु.७/पृ.४६२-४७७); ३. (प.ख ७/२.२,१-२१६/११४-१८५) संकेत-दे० काल/६/१ काल विशेषोको निकालनेका स्पष्ट प्रदर्शन-दे० काल/१ मार्गणा - गुण एक जीवापेक्षया नाना जीवापेक्षया विशेष प्रमाण जघन्य स्थान। उत्कृष्ट विशेष पत्र । प्रमाण नं०१ नं०३ विशेष नं०१ नं०२ विशेष उत्कृष्ट १. गतिमार्गणा नरक गतिनरकगतिसामान्य ... श्लो पृथिवी २-७ , नरक सामान्य २-३ सर्वदा (प्रवेशान्तर काल सर्वदा विच्छेदाभाव से अवस्थान । - काल अधिक है। » विच्छेदाभाव -६ पुनः चढे मूलोपक्व मुलोधवत् ३६ सर्वदा । विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ३८-३६ - For Private & Personal Use Only जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश १०००० वर्ष ३३ सागर १ सागर १-२२ सागर क्रमश १.३,७,१०,२२ सागर | ३-३३ सागर क्रमश. ३,७,१०,१७,२२,३३ सागर अन्तर्मु० | २८/ज ३ या ४थे से गिरकर ३३ सागर वे नरककी पूर्ण आयु मिथ्यात्व सहित बोते मूलोघवत् मूलोघवत् २८/ज १ले ३रे से ४थेमे जा | ३३ सागर- |७वे नरकमे उत्पन्न २८/ज.मिथ्याह पुनः गिरे ६ अन्तर्मु. पर्याप्तिपूर्ण कर वेदकसम्यक्त्वी हो अन्तम आयु शेष रहनेपर पुन. मिथ्यात्वी हुआ नरक सामान्यवत् क्रमशः १,३,७.१० नरक सामान्यवत् १७,२२,३३सागर मुलोघवत् अन्तर्मु० नरक सामान्यवत् क्रमश.१,३.७,१०० नरक सामान्यवद १७सा.२२सा.अ./ पूर्ण स्थितिसे पर्याप्तिकाल व अन्तिम | ३३सा.-६अन्तर्मु० अन्तर्मुहूर्त हीन)। |१-७ पृथिवी - मूलोघवत् ४३ सर्वदा| विच्छेदाभाव सर्वदा विच्छेदाभाव ४५-४६ २.तियंचगति |तियंच सामान्य 07१। पंचेन्द्रिय सामा. • पर्याप्त |, योनिगति नपुंसक वेदी . लब्ध्यपर्याप्त तिथंच सामान्य ४-५ | सर्वदा प्रवेशान्तर काल सर्वदा विच्छेदाभाव ११-१२ | १क्षुद्रभव | मनुष्यसे आकर कर्मभूमिमें | असं. पु. परि. अन्य गतियोंसे आकर कर्मभूमिज से अवस्थानकाल उपजे तो तिर्यंचोंमें परिभ्रमण अधिक है | अपर्याप्तककी अपेक्षा ३पल्य+६५को.पू/परिभ्र केपश्चा.उत्तमभोगभू में देव हुआ मु० | पर्याप्तक की अपेक्षा ३पल्य+४७को.पू उपल्य+१५को.पू ८ कोड़ पूर्व परिभ्रमण ( कर्मभूमिमें) सर्वदा तिर्य० सावत् सर्वदा विच्छेदाभाव १७-१८ / क्षुद्रभव अविवक्षि.तियं.पर्या से आना अन्तर्मुहूर्त अविवक्षि.तियं.से आकर पंचे. होना विच्छेदाभाव " ४८-४६ अन्तर्मु० | २८/ज. ३,४,५३ से १ला हो असं.पुद्गलपरिव अनादि मिथ्यादृष्टि तिर्यचोंमें उपज पुन ऊपर चढे वहाँ इतने काल पर्यत परिभ्रमण कर अन्य गतिको प्राप्त हुआ ६. कालानुयोग विषयक प्ररूपणाएँ www.jainelibrary.org
SR No.016009
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2002
Total Pages648
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size24 MB
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