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________________ अनुभव समता-रसमें लीन हुआ, बार-बार आत्माका स्मरण करता है, इन्द्रिय और कषाय जोतनेवाले उसीके उत्कृष्ट निर्जरा होती है । ११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका प्रयोजन ससि / ६/७ / ४१६ एव ह्यस्य भावयतो बोधि प्राप्य प्रमादो न भवति । • इस प्रकार विचार करनेवाले इस जोवके बोधिको प्राप्त कर कभी प्रमाद नही होता ( रा वा / १ / ७.१/६०३/२२) (चा. सा / २०१/३) । का अ / मू / ३०९ इय सब-दुलह दुलह दसण णाण तहा चरित्त च । मुणिऊणय संसारे महायर कुणह ति०ह पि ॥ ३०९ ॥ - इस सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यक् चारित्रको ससारकी समस्त दुर्लभ वस्तुओ में भोर्लभ जानकर इन तोनोका अत्यन्त आदर करो । १२ लोकानुप्रेक्षाका प्रयोजन 1= ससि / ६ / ७/४१८ एवं ह्यस्याध्यवस्यतस्तत्त्वज्ञान विशुद्धिर्भवति । - इस प्रकार लोकस्वरूप विचारनेवाले के तत्त्वज्ञानकी विशुद्धि होती है । ( रा वा /६/७.८/६०३/६) (चा सा / ११८/३) । का अ / मू/ २८३ एव लोयसहा जो झायदि उवसमेक्क सम्भावो । सो खरिय कम्म पज तिल्लोय सिहामणी होदि ॥ २८३ ॥ -जो पुरुष उपशम परिणामस्वरूप परिणत होकर इस प्रकार लोकके स्वरूपका ध्यान करता है वह कर्मपुजको नष्ट करके उसी लोकका शिखामणि होता है। १३ संवरानुप्रेक्षाका प्रयोजन ससि / ६ / ७ / ४१७ एव हाम्य चिन्तयत संवरे नित्योद्यक्तता भवति । ततश्च निश्रेयसपदप्राप्तिरिति । इस प्रकार चिन्तवन करनेवाले इस जोव के सश्मे निरन्तर उच्च उता होती है और इससे मोक्ष परकी प्राप्ति होती है । १४ संसारानुप्रेक्षाका प्रयोजन बा अ / ३८ संसारम दिक्क तो जीवोवादेयमिदि विचितिज्जो संसारतो जोगी सो मिति॥१८॥ जो जीव संसारसे पार हो गया है, वह तो उपादेय अर्थात ध्यान करने योग्य है ऐसा विचार करना चाहिए और जो ससाररूपी दुखोसे घिरा हुआ है वह हेय है ऐसा चिन्तवन करना चाहिए। - इस प्रकार ससि / ६ / ७ / ४१४ एव ह्यस्य भावयत ससारदु खभयादुद्विग्नस्य ततो निर्वेदो भवति । निर्विण्णश्च ससारप्रहाणाय प्रयतते । = चिन्तन करते हुए मसारके दुखके भय से उद्विग्न हुए इसके ससारसे निर्वेद होता है और निर्विण्ण होकर ससारका नाश करनेके लिए प्रयत्न करता है ( रा वा /६/७,३/६०१/१७) का अ / मू/७३ इय ससार जाणिय मोह सव्वायरेण चउऊण । त भायह स सरूव ससरणं जेण णासेह ॥ ७३ ॥ इस प्रकार ससारको जानकर और सम्यक् व्रत, ध्यान आदि समस्त उपायो से मोहको त्याग कर अपने उस शुद्ध ज्ञानमय स्वरूपका ध्यान करो, जिससे पाँच प्रकारके ससार - परिभ्रमणका नाश होता है। - लौकिक अथवा पारमार्थिक सुख-दुखके वेदनको अनुभव अनुभवकहते है । पारमार्थिक आनन्दका अनुभव ही शुद्धात्माका अनुभव है, जो कि मोक्ष मार्ग में सर्वप्रधान है। साधककी जघन्य स्थिति से लेकर उसकी उत्कृष्ट स्थितिपर्यन्त यह अनुभव बराबर तारतम्य भावसे बढ़ता जाता है और एक दिन उसे कृतकृत्य कर देता है। इसी विषयका कथन इस अधिकारमें किया गया है । - १. भेव व लक्षण १. अनुभवका अर्थ अनुभाग २. अनुभवका अर्थ उपभोग ३ अनुभवका अर्थ प्रत्यक्षवेदन Jain Education International ८० ४. अनुभूतिका अर्थ प्रत्यक्षवेदन ५ स्वसंवेदन ज्ञानका अर्थ अन्त सुखका वेदन ६ संवित्तिका अर्थ सुखसंवेदन अनुभव निर्देश १ स्वसंवेदन मानस अचक्षुदर्शनका विषय है । २ आत्माका अनुभव स्वसंवेदन द्वारा ही संभव है। ३ अन्य ज्ञेयोसे शून्य होता हुआ भी सर्वथा शून्य नही है । ४. आत्मानुभव करनेको विधि | * आत्मानुभव व शुध्यानकी एकार्थता पद्धति। * सुख * आत्मानुभवजन्य सुख ।। परमुखानुभव। राग ३. मोक्षमार्ग में आत्मानुभवका स्थान १ आत्माको जाननेमे अनुभव ही प्रधान है। अनुभव २ पदार्थकी सिद्धि आगमयुक्ति व अनुभवसे होती है । ३ तत्त्वार्थश्रद्धानमे आत्मानुभव ही प्रधान है । ४ आत्मानुभव के बिना सम्यग्दर्शन नही होता । * शुद्धात्मानुभवका महत्य व फल उपयोगII/२ * जो एकको जानता है वही सर्वको जान सकता है । २६ । - दे. । । ४. स्वसवेदनज्ञान की प्रत्यक्षता १ स्वसवेदन द्वारा आत्मा प्रत्यक्ष होता है । २ स्वसंवेदन मे केवलज्ञानवत् आत्मप्रत्यक्ष होता है । ३. सम्यग्दृष्टिको स्वात्मदर्शनके विषयमे किसीसे पूछनेकी आवश्यकता नही । ४ मतियुतज्ञानकी प्रत्यक्षता व परोक्षताका समन्वय । ५ मति श्रुतज्ञानकी प्रत्यक्षताका प्रयोजन । * स्वसंवेदन ज्ञानमे विकल्पका कथंचित् सद्भाव व असद्भाव।। * मति श्रुतज्ञानकी पारमार्थिक परोक्षता । दे, परोक्ष * स्वसंवेदन ज्ञानके अनेको नाम है। - दे मोक्षमार्ग २/५ ५ अल्प भूमिकाओंमें आत्मानुभव विषयक चर्चा १ सम्यग्दृष्टिको स्वानुभूत्यावरण कर्मका क्षयोपशम अवश्य होता है । २ सम्यग्दृष्टिको कथचित् आत्मानुभव अवश्य होता है * लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञानचेतना रहती है । - दे. सम्यग्दृष्टि २ । * सम्यग्दृष्टिको ज्ञान चेतना अवश्य होती है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only - दे. चेतना २ । ३. धर्मध्यानमे कथचित् आत्मानुभव अवश्य होता है। www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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