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________________ अनुप्रेक्षा अनुप्रेक्षा अर्थात् सम्यग्ज्ञानका पाना अत्यन्त कठिन है ॥८३॥ अशुद्ध निश्चय नयसे क्षा पोपशमिक ज्ञान को के उदयसे, जो कि परद्रव्य है, उत्पन्न होता है, इसलिए हेय अर्थात त्यागने योग्य है और सम्यग्ज्ञान (बोधि) स्वद्रव्य है, अर्थात् आत्माका निज स्वभाव है, इसलिए उपादेय है ॥८४॥ २ व्यवहार स, सिह/७/४१८ एकस्मिन्निगोतशरीरे जोवा सिद्धानामनन्तगुणा । एवं सर्वलोको निरन्तर निचित स्थावरैरतस्तत्र प्रसता वालुकासमुन्द्रे पतिता वज्रसिकताकणिकेव दुर्लभा। तत्र च विकलेन्द्रियाणा भूयिष्ठत्वात्पञ्चेन्द्रियता गुणेषु कृतज्ञमेव कृच्छ्रलभ्या। तत्र च तिर्यक्षु पशुमृगपक्षिसरीसृपादिषु बहुषु मनुष्यभावश्चतुष्पथे रत्नराशिरिव दुरामद । तत्प्रच्यवे च पुनस्तदुपपत्तिर्द ग्धतरुपुद्गलतद्भावोपपत्तिवद् दुर्लभा। तल्लाभे च देशकुलेन्द्रियसंपन्नारोगत्वान्युत्तरोत्तरतोऽतिदुर्लभानि । सर्वेष्वपि तेषु लब्धेषु सद्धर्मप्रतिलम्भो यदि न स्याद् व्यर्थ जन्म वदनमिव दृष्टिविकलम्। तमेव कृच्छलभ्य धर्ममवाप्य विषयसुखे रब्जन भस्मार्थ चन्दनदहनमिव विफलम्। विरक्तविषयसुखस्य तु तपोभावनाधर्मप्रभावनासुखमरणादिलक्षण समाधिरवाप । तस्मिन् सति बोधिलाभ' फलवान् भवतीति चिन्तनं बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा। एक निगोद शरीरमें सिद्धोंसे अनन्त गुणे जीव है। इस प्रकारके स्थावर जीवोंसे सर्व लोक निरन्तर भरा हुआ है। अत इस लोकमें प्रस पर्यायका प्राप्त होना इतना दुर्लभ है, जितना कि बालुकाके समुद्र में पडी हुई वज्रसिक्ताकी कणिकाका प्राप्त होना दुर्लभ होता है। इसमें भी विकलेन्द्रिय जीवोंकी बहुलता होनेके कारण गुणोमें जिस प्रकार कृतज्ञता गुणका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ होता है उसी प्रकार पचेन्द्रिय पर्यायका प्राप्त होना बहुत दुर्लभ है। उसमें भी पशु, मृग, पक्षी और सरीसृप तिर्यचौकी बहुलता होती है। इसीलिए जिस प्रकार चौराहेपर रत्नराशिका प्राप्त होना अति कठिन है, उसी प्रकार मनुष्य पर्यायका प्राप्त होना अति कठिन है। और मनुष्य पर्यायके मिलनेके माद उसके च्युत हो जानेपर पुन उसकी प्राप्ति होना इतना कठिन है जितनी कि जले हुए पुगनोका पुन' उस वृक्ष पर्याय रूपसे उत्पन्न होना कठिन होता है। कदाचिद पुन इसकी प्राप्ति हो जाये तो देश, कुल, इन्द्रिय, सम्पत और नीरोगता इनका प्राप्त होना उत्तरोत्तर दुर्लभ है। इन सबके मिल जानेपर भी यदि समीचीन धर्मकी प्राप्ति न होवे तो जिस प्रकार दृष्टिके बिना मुख व्यर्थ होता है उसी प्रकार मनुष्य जन्मका प्राप्त होना व्यर्थ है। इस प्रकार अति कठिनतासे प्राप्त होने योग्य उस धर्मको प्राप्त कर विषय सुख में रममाण होना भस्मके लिए चन्दनको जलानेके समान निष्फल है। कदाचित विषय सुखसे विरक्त हुआ तो भी इसके लिए तपको भावना, धर्मकी प्रभावना और सुखपूर्वक मरण रूप समाधिका प्राप्त होना अतिदुर्लभ है। इसके होनेपर ही बोधिलाभ सफल है, ऐसा विचार करना बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा है। (भ आ (म् /१८६६-१८७३) (मू आ./७५५७६२) (रा.वा./8/७,६/६०३) (चा सा /१६८/४) (प.वि./६/५५) (अन,ध./41 ७८-७६/६३१) (भूधरकृत भावना सं. ११)। द्र.स./टी/३५/१४४ कथंचित् काकतालीयन्यायेन (एते मनुष्यगति आर्यत्वतत्वश्रवणादि सर्वे) लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधे फलभूतस्वशुद्धात्मस वित्त्यात्मकनिर्मलधर्मध्यान शुक्लध्यानरूप परमसमाधिदुर्लभ' । तस्मात्स एव निरन्तर भावनीय' । सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति। एव सक्षेपेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता। -यदि काकतालीयन्यायसे इन मनुष्य गति. आर्यत्व, तत्त्वश्रवणादि सबकी लब्धि हो जाये तो भी इनको प्राप्ति रूप जो ज्ञान है, उसमें फलभूत जो शुद्धारमाके ज्ञान स्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्लध्यान रूप परमसमाधि है, वह दुर्लभ है 1 - "इसलिए उसको हो निरन्तर भावना करनी चाहिए। पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रका प्राप्त होना तो बोधि कहलाता है और उन्हीं सम्यग्दर्शनादिकोको निर्विधन अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है । ऐसा संक्षेपसे बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका कथन समाप्त हुआ। १२. लोकानुप्रेक्षा-१ निश्चय बा.अ /४२ असुहेण णिरय तिरिय सुहउपजोगेग दिविजणरसोवरन । सुद्धेण लहइ सिद्धि एवं लोय विचितिज्जो ॥४॥ - यह जीव अशुभविचारोसे नरक तथा तियन गति पाता है, शुभ विचारोसे देवो तथा मनुष्योके सुख भोगता है और शुद्ध विचारोसे मोक्ष प्राप्त करता है, इस प्रकार लोक भावनाका चिन्तन करना चाहिए। (भा पा./मू./७६, ७७,८८) (श्रीमदकृत १२ भावनाएँ)। भ आ /वि./१७१८/१६१४/१८ यद्यप्यनेक प्रकारो लोकस्तथापीह लोक शब्देन जीवद्रव्यं लोक एवोच्यते। सूत्रेण जीवधर्मप्रवृत्तिक्रमनिरू: णात् । यद्यपि (नाम, स्थापनादि विकल्पोसे) लोकके अनेक भेद हैं तथापि यहाँ लोक शब्दसे जीव द्रव्य लोक ही ग्राह्य है क्योंकि जीवके धर्म प्रवृत्तिका यहाँ क्रम कहा गया है। द्र सं/टो /३५/१४३ आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुट्टै स्वभावे परमात्मनि सकल विमलकेवलज्ञानलोचनादर्श बिम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चयलोकाख्ये स्वकीयशुद्धपरमात्मनि अवलोकन वा स निश्चयलोक । ...इति निजशुद्वात्मभावनोत्पन्नपरमाहादै कसुखामृतस्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा। आदि. मध्य तथा अन्त रहित शुद्ध, बुद्ध एक स्वभाव तथा परमात्ममें पूर्ण विमल केवलज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिबिम्बोंका भान होता है उसी प्रकारसे शुद्धात्मादि पदार्थ देखे जाते है, जाने जाते है। इस कारण वह शुद्धात्मा ही निश्चय लोक है अथवा उस निश्चय लोकवाले निज शुद्धपरमात्मामें जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है। इस प्रकार निज शुद्धात्माकी भावनासे उत्पन्न परमाह्वाद सुखरूपी अमृतके आस्वादके अनुभवसे जो भावना होती है वही निश्चयसे लोकानुप्रेक्षा है। २. व्यवहार मू.आ/७१५-७११ तत्थणुवहति जीवा सकम्मणिव्वत्तियं मह दुवखें । जम्मणमरणपुणभवमण तभवसायरे भीमे। ॥७१५॥ आदा य होदि धूदा धूदा मादुत्तणं पुण उवेदि। पुरिसोवि तत्थ इत्थी पुमं च अपुमं च होइ जगे ॥७१६॥ होऊण तेयसत्ताधिओ दु बलविरियरूवसंपण्णो । जादो बच्चवरे किमिधिगत्थु संसारवासस्स ७१७॥ विभक्दु लोगधम्म देवाविय सूरवदीय महधीया। भोत्तूण य सुहमतुलं पुणवि दुक्खाबहा होति ॥७१८॥ णाऊण लोगसार णिस्सार दीहगमणससार । लोगग्गसिहरवास झाहि पयत्तेण सुहवासं ॥७१६॥ - इस लोकमें ये जीव अपने कर्मोसे उपार्जन किये सुख-दुखको भागते है और भयकर इस भवसागरमें जन्म-मरणको बारम्बार अनुभव करते है ॥७१५॥ इस संसारमें माता है, वह पुत्री हो जाती है, पुत्री माता हो जाती है। पुरुष स्त्री हो जाता है और स्त्री पुरुष और नपुंसक हो जाती है ॥७१६॥ प्रताप सुन्दरतासे अधिक बल वीर्ययुक्त इनसे परिपूर्ण राजा भी कर्मवश अशुचि (मैले) स्थानमें लट होता है। इसलिए ऐसे संसारमें रहनेको धिक्कार हो ॥७१७॥ लोकके स्वभावको धिक्कार हो जिससे कि देव और महान ऋद्धिवाले इन्द्र अनुपम सुखको भोग कर पश्चाव दुख भोगनेवाले होते है ॥७१८॥ इस प्रकार लोकको निस्सार (तुच्छ) जानकर तथा उस संसारको अनन्त जानकर अनन्त सुखका स्थान ऐसे मोक्षका यत्नसे ध्यान कर ॥७१६॥ भ आ /मू./१७६८, १८१२ आहिंडय पुरिसस्स व इमस्स णीया तहिं होति । सव्वे वि इमो पत्तो सबंधे सव्वजीवेहि ॥१७६८॥ विज्जू वि चचल फेणदुव्वलं बाधिमयिमच्चुहद । णाणी किह पेच्छतो रमेज्ज दुक्खुधुदं लोग ॥१८१२५ - एक देशसे दूसरे देशको जानेवाले पुरुषके समान इस जीवको सर्व जगमें बन्धु लाभ होता है, अमुक जीवके साथ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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