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________________ अनुप्रेक्षा अनुदिश स्कृतमद विरहोऽनहङ्कारतानुत्सेक 1-ज्ञानादिकी अपेक्षा श्रेष्ठ होते हुए भी उसका मद न करना अर्थात् अहंकार रहित होना अनुत्सेक है । अनुदिश-रा वा /४/१६.५/२२५/१ किमनुदिशमिति । प्रतिदिशमित्यर्थः। -प्रश्न- अनुदिशसे क्या तात्पर्य है । उत्तर-अनुदिश अर्थात् प्रत्येक दिशामें वर्तमान विमान। अर्थात् जो प्रत्येक आठ दिशाओमें पाये जाये, वे अनुदिश हैं। क्योकि अनुदिश विमान एक मध्यमें है तथा दिशाओ व विदिशाओमें आठ है । अत इन विमानों को अनुदिश कहते है। २. करपातीत स्वर्गोंका एक भेद -- दे. स्वर्ग ५/२। अनुपक्रम-दे. काल १। अनुपचरित नय-दे नय V/s 1 अनुपमा-वरांग च./सर्ग/श्लोक "समृद्ध पुरके राजा धृतिसेनकी पुत्री थी (२/११) । वरागकुमारसे विवाही गयी (२/८७)। अन्तमें दीक्षा धारण कर ली (२६/१४) तथा घार तपश्चरण कर स्वर्ग में देव हूई (३१/११४)। अनुपलब्धि -दे उपलब्धि । अनुपसंहारी हेत्वाभास-श्लो वा ४/न्या २७३/४२५/२२ तथैबानुपसहारी केवलान्वयिपक्षक। व्यतिरेक नही पाया जाकर जिसका केवल अन्वय ही वर्तता है उसको पक्ष या साध्य बनाकर जिस अनुमानमे हेतु दिये जाते है, वे हेतु अनुपस हारी हेत्वाभास है। अनुपस्थापनापरिहार प्रायश्चित-दे. परिहार। अनुपात-रा. वा./१/११.६/१२/२४ अनुपात्त प्रकाशोपदेशादिपर। - अनुपात उपदेशादि 'पर' है। रावा./8/७.१/६००८ अनुपात्तानि परमाण्बादीनि। कर्मनोकर्मभावेन आरमनागृहीतानि । अनुपात द्रव्य वे परमाणु आदि है जो आत्माके द्वारा कर्म व नोकर्म रूपसे ग्रहण किये जाने योग्य नहीं है। ध. १२/४,२,७/२२०/१६६/६ कोऽनुपात । त्रैराशिकम् । प्रश्न-अनुपात किसे कहते है । उत्तर-त्रैराशिकको अनुपात कहते हैं । २. (ज. प /प्र. १२७) Proportion. अनुपालनाशुद्धप्रत्याख्यान-दे. प्रत्याख्यान १। अनप्रेक्षा-किसी बातको पुन -पुन चिन्तवन करते रहना अनुप्रेक्षा है । मोक्षमार्गमें वैराग्यको वृद्धिके अर्थ बारह प्रकारकी अनुप्रेक्षाओंका कथन जैनागममें प्रसिद्ध है। इन्हे बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते है। इनके भानेसे व्यक्ति शरीर व भोगोंसे निविण्ण होकर साम्य भावमें स्थिति पा सकता है। ११. बोधिदुर्लभानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १२. लोकानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १३ संवरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १४ ससारानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) २. अनुप्रेक्षा निर्देश १. सर्व अनुप्रेक्षाओका चिन्तवन सब अवसरोंपर आवश्यक नही २ एकत्व व अन्यत्व अनुप्रेक्षामे अन्तर * धर्म ध्यान व अनप्रेक्षामे अन्तर-दे. धर्मध्यान ३॥ ३. आस्रव, संवर, निर्जरा-इन भावनाओंकी सार्थकता ४. वैराग्य स्थिरीकरणार्थ कुछ अन्य भावनाएँ * ध्यानमे भाने योग्य कुछ भावनाएँ-दे. ध्येय । ३ निश्चय व्यवहार अनुप्रेक्षा विचार १ अनुप्रेक्षाके साथ सम्यक्त्वका महत्त्व २ अनुप्रेक्षा वास्तवमे शुभभाव है। ३. अन्तरंग सापेक्ष अनुप्रेक्षा संवरका कारण है। ४. अनुप्रेक्षाका कारण व प्रयोजन १ अनुप्रेक्षाका माहात्म्य व फल २ अनुप्रेक्षा सामान्यका प्रयोजन ३ अनित्यानुप्रेक्षाका प्रयोजन ४. अन्यत्वानुप्रेक्षाका प्रयोजन ५ अशरणानुप्रेक्षाका प्रयोजन ६ अशुचि अनुप्रेक्षाका प्रयोजन ७ आस्रवानुप्रेक्षाका प्रयोजन ८ एकत्वानुप्रेक्षाका प्रयोजन ९. धर्मानप्रेक्षाका प्रयोजन १. निर्जरानुप्रेक्षाका प्रयोजन ११. बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षाका प्रयोजन १२ लोकानुप्रेक्षाका प्रयोजन १३. संवरानुप्रेक्षाका प्रयोजन १४ संसारानुप्रेक्षाका प्रयोजन १भेद व लक्षण १ अनुप्रेक्षा सामान्यका लक्षण २. अनुप्रेक्षाके भेद ३. अनित्यानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ४ अन्यत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ५. अशरणानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ६. अशुचित्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ७. आस्रवानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ८. एकत्वानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) ९. धर्मानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १० निर्जरानुप्रेक्षा (निश्चय, व्यवहार) १. भेद व लक्षण १. अनुप्रेक्षा सामान्यका लक्षण त सू./8/9 स्वाख्यातत्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। बारह प्रकारसे कहे गये तत्त्वका पुन पुन: चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। स. सि /8/२/४०६ शरीरादीनां स्वभावानुचिन्तनमनुप्रेक्षा। -शरीरादिकके स्वभावका पुन पुन चिन्तन करना अनुप्रेक्षा है। (रावा./ ६/२,४/५६१/३४) स, सि /8/२५/४४३ अधिगतार्थस्य मनसाध्यासोऽनुप्रेक्षा। -जाने हुए अर्थका मनमें अभ्यास करना अनुप्रेक्षा है। (रा वा./६/२५,३/६२४) (त.सा./0/२०) (चा सा/१५३/३) (अनघ/७/८६/७१५) । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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