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________________ अनंतानुबंधी अनंतानुबंधी नहीं है, क्योकि यह तो हमें इष्ट हो है, अर्थात् अनन्तानुबन्धीको सम्यक्त्व और चारित्र इन दोनोका प्रतिबन्धक माना ही है। (ध.६/१,६-१,२३/४२/३)। गी,क/जी.प्र./५४६/७६/१२ मिथ्यात्वेन सह उदीयमाना कषाय' सम्यक्त्वं नन्ति । अनन्तानुबन्धिना च सम्बत्वसंयमौ । मिथ्यात्वके साथ उदय होनेवाली कषाय सम्यक्त्वको घातती है और अनन्तानुबन्धीके साथ सम्यक्त्व व चारित्र दोनोको घातती है। ४. एक ही प्रकृतिमें दो गुणोंको घातनेकी शक्ति कैसे सम्भव है ध.६/१,६-१,२३/४२/४ का एत्थ जुत्ती। उच्चदे-ण ताब एदे सणमोहणिज्जा, सम्मत्त-मिच्छत्त-सम्मामिच्छतेहि चेव आवरियस्स सम्मत्तस्स आवरणे फलाभावादो। ण चारित्तमोहणिज्जा वि, अपञ्चक्रवाणावरणादीहि आवरिदचारित्तस्स आवरणे फलाभावा । तदो एदोसिमभावो चेय। ण च अभावो मुत्तम्हि एसेसिमस्थित्तपदुप्पायणादो। तम्हा एदेसिमुदएण सासण गुणुप्पत्तीए अण्ण हाणुववत्तीदो सिद्ध दंसणमोहणीयत्त चारित्तमोहणीयत च । -प्रश्न- अनन्तानुबन्धी कषायोंक शक्ति दो प्रकारकी है, इस विषयमें क्या युक्ति है। उत्तर-ये चतुष्क दर्शन माहनीय स्वरूप नही माने जा सकते है, क्योकि सम्यक्त्व प्रकृति, मिथ्यात्व और सम्यग्मिथ्यात्व के द्वारा ही आवरण किये जानेवाले दर्शन मोहनीयकै फल का अभाव है। और न इन्हे चारित्र मोहनीय स्वरूप ही माना जा सकता है, क्योकि अप्रत्याख्यानावरणादि कषायोंके द्वारा आवरण किये गये चारित्रके आवरण करनेमे फल का अभाव है । इसलिए उपर्युक्त अनन्तानुबन्धी कषायोंका अभाव ही सिद्ध होता है। किन्तु उनका अभाव नहीं है, क्योकि सूत्रमें इनका अस्तित्व पाया जाता है। इसलिए इन अनन्तानुबन्धी कषायों के उदयसे सासादन भावकी उत्पत्ति अन्यथा हो नहीं सकती है। इस हो अन्यथानुपत्तिसे इनके दर्शनमोहनीयता और चारित्रमोहनीयता अर्थात सम्यक्त्व और चारित्रको घात करने की शक्तिका होना, सिद्ध होता है। ५. चारित्र मोहकी प्रकृति सम्यक्त्व घातक कैसे ? प.ध उ/११४० सत्य तत्राविनाभाविनो बन्धसत्त्वोदय प्रति। द्वयोरन्यतरस्यातो विवक्षायां न दूषणम् ॥११४०॥ -मिथ्यात्वके बन्ध, उदय, सत्त्वके साथ अनन्तानुबन्धी कषायका अविनाभाव है । इस लिए दोमेंसे एककी विवक्षा करनेसे दूसरेकी विवक्षा आ जाती है। अत कोई दोष नहीं। गो.क./जी./५४६/७१/१२ मिथ्यात्वेन सहोदोयमाना षाया सम्यक्त्व घ्नन्ति । अनन्तानुबन्धिन। च सम्यक्त्वसंयमौ। -मिथ्यात्वके साथ उदय होनेवालो कषाय सम्यक्त्वको घाततो है और अनन्तानबन्धीके द्वारा सम्यक्त्व और स यम धाता जाता है। ६. अनन्तानुबन्धीका जघन्य व उत्कृष्ट सत्त्व काल १ ओघकी अपेक्षा क.पा.२/६११८/EE/५ अणंताणु० चउक्क विहत्ती केवचिरं का० । अणादि० अपज्जवसिदा अणादि० सपज्जवसिदा सादि० सपज्जव सिदा वा। जा सा सपज्जवसिदा तिस्से इमो णिद्द सो-जह अतोमुहूर्त, उक्क० अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूण । = अनन्तानुबन्धी चतुष्ककी विभक्तिवाले' जीवोंका कितना काल है । अनादि-अनन्त, अनादि सान्त और सादि सान्त काल है। सादि सान्त अनन्तानुबन्धी चतुष्कविभक्तिका जघन्यकाल अन्तर्मुहूत और उत्कृष्ट काल कुछ कम अर्द्धपुद्गल परवर्तन प्रमाण है। क.पा २/६१२१/१,०८/५ अथवा सव्वत्थ उप्पज्जमाणसासणस्स एगसमओ बत्तव्यो। पचिंदियअपज्जत्तरसु सम्मत्त सम्मामि० विहत्ति० जह० एगसमओ। -अथवा जिन आचार्योंके मतसे सासादन सम्यग्दृष्टि जीव एकेन्द्रियादि सभी पर्यायों में उत्पन्न होता है उनके मतसे ६ चेन्द्रिय और पचेन्द्रिय पर्याप्त जीवोके अनन्तानबन्धी चतुकका एक समय जघन्य काल कहना चाहिए। २ आदेशकी अपेक्षा क पा २/११६/१०१११ आदेसेण णिरयगदीए रयिएमु मिच्छत्त-बारसकसाय-णवनोकसाय० विहत्ती केव०। जह० दस वाससहस्साणि, उक० तेत्तीस सागरोधमाणि । पढमादि जाव सत्तमा त्ति एव चेव वत्तव्यं । · वरि सत्तमाए पुढवीए अण ताणु० चउक्कस्स जह. अतोमुहुत्त । मन आदेशकी अपेक्षा नरकगतिमें नारकियोमे मिथ्यात्व, बारह कषाय और नौ नोकषाय विभक्तिका कितना काल है। उत्तरजघन्य काल दस हजार वर्ष और उत्कृष्ट काल तेतीस सागर है । इसी प्रकार सम्यक्त्व-प्रकृति, सम्यकमिथ्यात्व और अनन्तानुबन्धी चतुष्कका काल भी समझना चाहिए। इतनी विशेषता है कि इनका जघन्यकाल एक समय है। पहली पृथिवीसे लेकर सातवी पृथिवी तक इसी प्रकार समझना चाहिए। परन्तु सातवीं पृथिवीमें अनन्तानुबन्धीका जघन्यकाल अन्तर्महूर्त है। क.पा २/६१२०/१०२/१ तिरिक्खगईए तिरिवखेसु • अण ताणु० चउकस्स जह० एगसमओ, उक्क० दोण्ह पि अणंतकालो।- तिर्यञ्च गतिमें अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जधन्य काल एक समय है तथा पूर्वोक्त बाईस और अनन्तानुबन्धी चतुष्क इन दोनोका उत्कृष्ट अनन्तकाल है । क.पा २/१२०/१०/२७ एवं मणुसतियस्स वत्तव्यं । क.पा २/१२२/१०४/२ देवाणं णारगभगो। ___ मनुष्य-त्रिक अर्थात् सामान्य मनुष्य, पर्याप्त मनुष्य और मनुष्यनीके भी उक्त अट्ठाईस प्रकृतियों का काल समझना चाहिए। देवगति में सामान्य देवोके अट्ठाईस प्रकृतियोंकी विभक्तिका सत्त्व काल सामान्य नारकियोके समान कहना चाहिए। ७. जघन्य व उत्कृष्ट अन्तर काल क.पा.२/६१३५/१२३/७ अण ताणुब धिचउक्क० वित्ति० जह० अतोमुहत्त, उक० बेछावट्ठिसागरोबमाणि देसूणाणि। = अनन्तानुबन्धी चतुष्कका जघन्य अनन्तरकाल अन्तमुहर्त और उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम एक सौ बत्तीस सागर है। ८. अन्तर्मुहर्त मात्र उदयवाली भी इस कषायमें अनन्ता नुबन्धीपना कैसे ? घ.६/१,६-१,२३/११/१ एदेसिमुदयकालो अतोमुहूत्तमेत्तो चेय... तदो एददेसिमणं तभवाणुबंधित ण जुज्जदि ति। ण एस दोसो, एदेहि जीवम्हि जणिदससकारस्स अण तेसु भवेसु अवठाणभुवगमादो। =-प्रश्न-उन अनन्तानुबन्धी क्रोधादिकषायोका काल अन्तर्मुहूर्त मात्र ही है अतएव इन कषायोमें अनन्तानुबन्धिता घटित नहीं होती । उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि इन क्षायोके द्वारा जोवमे उत्पन्न हुए संस्कारका अवस्थान अनन्तभवो में माना गया है । ( विशेष दे अनन्तानुबन्धी १)। ६. अनन्तानुबन्धीका वासना काल गो,क /जी/४६.४७ अतोमुहूत्तपवरख छम्मासं सखासखण तभव । सजलणमादियाणं वासणकालो दुणिय मेण॥४६॥ उदयाभावेऽपि तत्सस्कारकालो वासनांकाल स च सज्वलनानामन्तमुहर्त । प्रत्याख्यानावरणानामेकपक्ष अप्रत्याख्यानावरणाना षण्मासा अनन्तानुबन्धिनां सख्यातभवा असख्यातभवा, अनन्तभवा वा भवन्ति नियमेन । -उदयका अभाव होते सतै भी जो कषायनिका सस्कार जितने काल रहै ताका नाम वासनाकाल है। सो सज्वलन कषायनिका वासनाकाल अन्तर्मुहूर्त मात्र है। प्रत्याख्यानकषायनिका एक पक्ष है। अप्रत्यारण्यान पायनिका छ महीना है। अनन्तानबन्धी कषायनिका सख्यात भव, असख्यात भव, अनन्त भव पर्यन्त वासना काल है। जैसे-काहू पुरुषने क्रोध किया पीछे क्रोध मिदि और कार्य विषै लग्या, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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