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________________ अधस्तन शीर्ष अधस्तन शीर्ष कृष्टि अधिक या सू./५/२/१२/२१२ हेतुदाहरणाधिकमधिहेतु और उदाहरणचे अधिक होनेसे अधिक नामक निग्रह स्थान है। (लो. मा.४/२२२/४००/१५)। अधिकरण - जिस धर्मो में जो धर्म रहता है उस धर्मीको उस धर्मका (न्याय विषयक) अधिकरण कहते है जैसे-पव धर्मका अधिकरण घट है । प्र.सा./त.प्र./२६/११ सुद्धा किज्ञानविपरिणमनस्वभावस्याधारभूतस्वादधिकरणत्वमात्मसात्कुर्माण - शुद्ध अनन्त शक्तियुक्त ज्ञान रूप परिणमित होनेके स्वभावका स्वयं ही आधार होनेसे अधिकरणताको आत्मसात् करता हुआ ( इस प्रकार ) स्वयमेव (अधिकरण कारक) रूप होता है। सा.../९६/२२ निश्चयचैतन्यादिस्वभावात्मनः स्वयमेवाधारत्वादधिकरणं भवति । - यह आत्मा निश्चयसे शुद्ध चैतन्यादि गुणा स्वयमेव आधार होनेसे अधिकरण कारकको स्वीकार करता है। स. सा./आ.परि./शक्ति नं. ४६ भाव्यमानभावाधारत्वमयी अधिकरणशक्तिः । - भावनेमें आता जो भाव इसके आधारपनमयी छयालीसर्वो अधिकरण शक्ति है । १. अधिकरणके मेव ससू /६/०-११ अधिकरण जीवाजीबा 194 बाय संरम्भसमारम्भारम्भयोगकृतकारितानुमतकषाय विधेरै खिखिखितुरचे कश ॥८॥ निर्व नापि योगनिसर्गातु भेदा पर-अधिकरण जीव और अजीब रूप हैं ॥७॥ पहला जीवाधिकरण संरंभ, समारंभ, आरम्भके भेदसे तीन प्रकारका, कृत, कारित और अनुमतके भेदसे तीन प्रकारका तथा कषायके भेदसे चार प्रकारका होता हुआ परस्पर मिलानेसे १०८ प्रकारका है ॥ ८ ॥ पर अर्थात् अजीवाधिकरण क्रमसे दो, चार दो और तीन भेटवाले निर्वर्तना, निशेष संयोग और निसर्गरूप है। (भ. खा./.८११/१५४)। १ रा. बा./१/१.१२-१३/२११/२८ अजीवाधिकरण निर्वर्तनलक्षणं द्वेषा व्य अतिष्ठते। कुत। मुसोत्तरमेदाद मूलगुण निर्वर्तनाधिकरण उत्तरगुण निर्वर्तनाधिकरणं चेति तत्र सूर्य पचविधानि शरीराणि बाह मन प्राणापानाश्च । उत्तर काष्ठपुस्तकचित्रकर्मादि |.. निक्षेपश्चतुर्धा भिद्यते कृत अपश्यदुष्यमार्णनसहसानामो गभेदाद अमध्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण दुष्प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरणं, सहसा निक्षेपाधिकरण, अनाभागनिक्षेपाधिकरणं चेति । संयोगो द्विधा विभज्यते । कुत' । मापानोपकरण मेदात, भक्तपानसंयोगाधिकरणम्. उपकरणसयोगावरणं चेति.. निसर्ग स्त्रिया कम्प्यते कुतकायादिभेदात् । काय निसर्गाधिकरणं वा निसर्गाधिकरणं मनो निसर्गाधिकरणं चेति । रा.वा./६/०२/१३/२१ तद्भयमधिकरणं दशमकार विषवणहारकटुकाम्लस्नेहाग्नि- दुष्प्रयुक्त कायवाङ्मनोयोगभेदाद-खजीवाधिकरणोंमें निर्वर्तनालक्षण अधिकरण दो प्रकारका है। कैसे सगुण निर्वर्तनाधिकरण और उसरगुणनिर्वर्तनाधिकरण उसमें भी सगुण निर्वर्तनाधिकरण ८ प्रकारका ई पाँच प्रकारके शरीर मन, वचन और प्राणापान । उत्तरगुणनिर्वर्तनाधिकरण काठ, पुस्तक व चित्रादि रूपसे अनेक प्रकारका है ॥ १२॥ निक्षेपाधिकरण चार प्रकारका है कैसे अप्रत्यवेक्षित निक्षेपाधिकरण, दुष्प्रमृष्टनिलेपा पिकरण, सहसानिक्षेपाधिकरण और बनाभोगनिपाधिकरण ॥१ संयोगनिक्षेपाधिकरण दो प्रकारका है। कैसे भक्तपानसंयोगाधिकरण और उपकरणसंयोगाधिकरण ॥१४॥ निसर्गाधिकरण तीन प्रकारका है कैसे काय निसर्गाविवरण वचननिसर्गाधिकरण और मनोनिसर्गाधिकरण १९५० तदुभयाधिकरण दश प्रकारका है-विष लवण, क्षार, कटुक. आम्ल, स्निग्ध, अग्नि और दुष्प्रयुक्त मन, वचन, काय (स सि./६/१/२२७), (म. आ /- ८१२/१५७) । । 1 1 Jain Education International - ४९ जीवाधिकरण " निर्वर्तना मूलगुग निर्वर्तन. 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only अधिकरण | निक्षेप दुःप्रमृष्ट सहसा अनाभोग सयोग 1 I 1 1 शरीर वचन मन प्राण अपान I 1 काष्ठ अधिकरण 1 I भक्त उपकरण मन वचन काय पान कर्म जीवाधिकरण निसर्ग T उत्तरगुण निर्वर्तना 1 कान 1 औदारिक वै क्रियक आहारक तेजस संरम्भ, समारम्भ, आरम्भ x मन बचन काय x ४ कषाय x कृत कारित, अनुमोदना - १०८ २. निर्वर्तनधिकरण सामान्य- विशेष 1 स.सि./६/६/३२६ निर्वत्यंत इति निर्वर्तना निष्पादना । निक्षिप्यत इति निक्षेपःस्थापना । संयुज्यत इति संयोगो मिश्रीकृतम् । निसृज्यत इति निसर्ग निर्वर्तमाका अर्थ निष्पादना या रचना है। निक्षेपका अर्थ स्थापना अर्थात रखना है। संयोगका अर्थ मिश्रित करना अर्थात मिलाना है और निसर्गका अर्थ प्रसंग है। (रा.वा./ ६/६,२/५१६ / १ ) । भ.आ./वि./८९४/१७. निक्षिप्यत इति निक्षेष उपकरणं पुस्तकादि. शरीरं शरीरमतानि वा सहसा शीघ्र निक्षिप्यमाणानि भवात । कुतश्चित्कार्यान्तरकरणप्रयुक्तेन वा स्वरितेन षड्जीवनिकायाधाधिकरणं प्रतिपद्यन्ते । असत्यामपि त्वरायां जीवा' सन्ति न सन्तीति निरूपणामन्तरेण निक्षिप्यमाणं तदेवोपकरणादिक अनाभोगनिक्षेपाधिकरणमुच्यते। प्रमृहयुपकरणादिनिक्षिप्यमाणं प्रमृष्टनिक्षेपाधिकरण स्थाप्यमानाधिकरणमा दुष्प्रमृष्टनिपाधिकरण प्रमार्जनसरका जीवाः सन्ति न सन्तीति अप्रत्यवेक्षितं यन्निक्षिप्यते तदप्रत्यवेक्षितं निपाधिकरण निर्मसंनामेदमाचष्टे देहो तो प्रमु शरीरं हिंसोपकरणानि इति निर्वर्तनाधिकरणं भवति। उपकरणानि च सच्छिद्राणि यानि जीवनाधानिमित्तानि निर्व तान्यपि निर्तनाधिकरणं यस्मिन्सौमीरादिभाजने प्रानियते ॥१४॥ संजोजनमुत्रकरणाणं उपकरणानां पिच्छादोनां अन्योन्येन संयोजना शीतस्पस्य पुस्तकस्य महादेय आतपरिप प्रमार्जनं इत्यादिकम् । तहा तथा । पाणभोजणाण च पानभोजनयीश्च पानेन पानं, भोजनं भोजनेन, भोजन पानेनेत्येव मादिकं संयोजन | यस्य संमूर्छन संभवति सा हिसाधिकरणत्वेनानोपान्तान सर्वा । दुणिसिट्ठा मणबचिकाया दुष्टुप्रवृत्ता मनोवाक्कायप्रभेदा निसर्गशब्देनोच्यन्ते । निक्षेप किया जाये उसे निक्षेप कहते है । पिच्छी कमण्डलु आदि उपकरण, पुस्तकादि शरीर और शरीरका मल इनको भय से सहसा जल्दी फेंक देना, रखना। किसी कार्य में तत्पर रहने से अथवा वरासे पिच्छी कमण्डल्वादिक पदार्थ जब जमीन पर रखे जाते हैं तब षट्काय जीवों को बाधा देनेमें आधाररूप होते है अर्थात इन पदार्थों से जीवोंको बाधा पहुँचती है। त्वरा नहीं होनेपर भा जोव है। अथवा नहीं है इसका विचार न करके, देख भाल किये बिना ही उपकरणादि जमीनपर रखना, फेंकना उसको अनाभोगक्षेपाधिकरण कहते हैं। उपकरणादिक वस्तु बिना साफ किये ही जमीनपर 1 बरू चित्र कर्म कर्म www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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