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________________ अंग्रनिर्वृत्तिक्रिया अचेलकत्व श्रुतस्य प्रधानता। श्रुतज्ञानमन्तरेण चारित्रानुत्पत्तेः अथवा, अश्य मोक्षः तत्साहचर्याच्छ्र तमप्यामम् । -चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता है इसलिए उसकी अग्र संज्ञा है। प्रश्न-चारित्रसे श्रुतकी प्रधानता किस कारणसे है ? उत्तर-क्योंकि श्रुतज्ञानके बिना चारित्रकी उत्पत्ति नहीं होतो, इसलिए चारित्रको अपेक्षा श्रुतकी प्रधानता है। अथवा अग्य शब्दका अर्थ मोक्ष है, इसके साहचर्यसे श्रुत भी अध्य कहलाता है। घ.१४/५,६,३२३/३६७/४ जहण्णणिवत्तिए चरिमणिसओ अग्गं णाम । -जघन्य निर्वृत्तिके अन्तिम निषेक की अग्र संज्ञा है। स सि./६/२७/४४४ अग्र मुखम् । = अग्र है सो मुख है। (अर्थात अग्रका मुख, सहारा, अवल बन, आश्रय, प्रधान वा सम्मुख अर्थ है।) २. आत्माके अर्थमें रा. वा /8/२७,३/६२५/२३ अडग्यते तदङ्गमिति तस्मिन्निति वानं मुखम् ॥३॥ रा,वा/१/२७,७/६२५/३२ अर्थपर्यायवाची वा अप्रशन्द ॥७॥ अथवा अड्ग्यते इत्यग्र अर्थ इत्यर्थः । रा. वा./६/२७,२१/६२७/३ अङ्गतीत्यग्रमात्मेति वा ॥२१॥ जिसके द्वारा जाना जाता है या जिसमें जाना जाता है ऐसा अग्र मुख है । ३ । अब शब्द अर्थका पर्यायवाची है, जिसके द्वारा गमन किया जाये या जाना जाये सो अग्र या अर्थ है ऐसा अर्थ समझना 11 जो गमन करता है या जानता है सो अग्र आत्मा है । २१ । त, अनु /६२ अथवाङ्गति जानातीत्यग्रमात्मा निरुक्तितः। तत्त्वेषु चानगण्यत्वादसावग्रमिति स्मृन । ६२ -जो गमन करता है या जानता है सो अन आत्मा है ऐसी निरुक्ति है या तत्त्वों में अग्रणी होनेके कारण यह अात्मा अग्र है ऐसा जाना जाता है। अग्रनिर्वृत्ति क्रिया-दे. सस्कार २ । अग्रवया-(म प्र/प्र ५०/प. पन्नालाल ) वर्तमान नगर आगरा। अग्रस्थिति--दे. स्थिति १। अग्रहण वर्गणा-दे. वर्गणा १ । अग्रायणी-ध. १/२,१,२/११५/१ अग्गेणियं णाम पुव्व • अंगाणगं वणे - अब अर्थात द्वादशांगों में प्रधानभूत वस्तुके अयन अर्थात ज्ञानको अग्रायण कहते है, और उसका कथन करना जिसका प्रयोजन हो उसे अग्रायणी पूर्व कहते है। ध.६/१,१,२/१२३/६ अंगाणमग्गपद बण्णेदि त्ति अग्गेणिय गुणणाम । -अगों के अग्र अर्थात् प्रधानभूत पदार्थों का वर्णन करनेवाला होनेके कारण 'अग्रायणीय यह गौण नाम है। ध.१/४,१.४५/२२६/७ अगानामग्रमेति गच्छति प्रतिपादयतीति गोण्णणाममग्गेणिय । - अगों के अग्र अर्थात प्रधान पदार्थ को वह प्राप्त होता है अर्थात् प्रतिपादन करता है अत अग्रायणीय यह गौण नाम है। * श्रुतज्ञानका द्वितोय पूर्व-दे. श्रुतज्ञान III/१॥ अग्राह्य वर्गणा-दे. वर्गणा १॥ अघ-एक ग्रह -दे. ग्रह । अधन धारा-दे, गणितII/१/२ । अघन मातृक धारा-दे. गणित/५/२। अघाती प्रकृतियाँ-दे, अनुभाग ३ । अचक्षुदर्शन-दे. दर्शन ५। अचक्षुदर्शनावरण-दे, दर्शनावरण । अचल-१. जीवके अचल प्रदेश ( दे. जीव ४) २. द्वितीय बलदेव । अपरनाम अचलस्तोक ( दे. अचलस्तोक), ३. षष्ठ रुद्र । अपरनाम बल (दे. शलाका पुरुष ७)। ४. भरत क्षेत्रका एक ग्राम ( दे. मनुष्य ४)।५. पश्चिम धातकी खण्डका मेरु (दे. लोक ४/२) । अचलप्र-कालका प्रमाण विशेष। अपरनाम अचलारम चचिका (दे० गणित १/४) अचलमात्रा-(ज. प./प्र. १०५) Invariant mass. अचलस्तोक-(म. पु./५८/श्लोक ) पूर्व भव नं. ३ में भरत क्षेत्र महापुर नगरका राजा वायुरथ । ८०।, पूर्व भव नं.२ में प्राणतेन्द्र १८२) वर्तमान भव-यह द्वितीय बलदेव हैं। अपर नाम अचल -दे, शलाका पुरुष ३ । अचलात्म-कालका प्रमाण विशेष-दे. गणित १/४ । अचलावली-कालका प्रमाण विशेष-दे आवलि । अचित्त-भक्ष्य पदार्थोंका सचित्ताचित्त विचार-दे, सचित्त । अचित्त गुणयोग-दे योग ।। अचित्त योनि-स सि २/१२/१८८ तेषां हि योनिरुपपाददेश पुद्गलपचयोऽचित्तः। - उनके उपपाद देशके पुद्गल प्रचयरूप योनि अचित्त है। (रा.वा./२/१२/१८/४३/१)। अचेतन-आ. १/१९ अचेतनस्य भावोऽचेतनत्वमचैतन्यमननु__ भवनम् । जिस गुण के निमित्तसे द्रव्य जाना जाये, पर जान न सके वह अचेतनत्व गुण है। अर्थात जवादि पदार्थोंको स्वयं न जान सके सो अचेतनत्व है। अचेलकत्व-भ आ /मू /११२६ ११२४/११३० देसमासियमुत्तं आचे. लक्कति तं खु ठिदिकप्पे लुत्तोत्थ आदिसहो जह तालपल नमुत्तम्मि ११२३। णय होदि संजदो बमित्तचागेण सेससंगेहि। तह्मा आचेलक्क चाओ सन्वेसि होइ संगाणं ।११२४१ = चेल शब्द परिग्रहका उपलक्षण है अत चेल शब्दका अर्थ वस्र ही न समझकर उसके साथ अन्य परिग्रहोंका भी ग्रहण करना चाहिए। इसके लिए आचार्यने तालपलम्बका उदाहरण दिया है। तालपलम्ब इस सामासिक शब्दमें जो ताल शब्द है उसका अर्थ ताड़का वृक्ष इतना ही नहीं अपितु बनस्पतियोंका उपलक्षण रूप समझकर उससे सम्पूर्ण वनस्पतियोंका ग्रहण करते है । ११२३। वस्त्र मात्रेका त्याग करनेपर भो यदि अन्य परिग्रहों से मनुष्य युक्त है तो इसको संयत मुनि नहीं कहना चाहिए। अत वनके साथ सम्पूर्ण परिग्रह त्याग जिसने किया है वही अचेलक माना जाता है । (म् आ ३०)। ___ * पाँच प्रकारके वस्त्र वस्त्र १. नाग्य परिषहका लक्षणस.सि./E/E/४२२ जातरूपवनिष्व लङ्कजातरूपधारणमशक्यप्रार्थनीयं याचनारक्षणहिंसनादिदोषविनिमुक्त निष्परिग्रहत्वानिर्वाणप्राप्ति प्रत्येक साधनमनन्यबाधनं नाग्न्यं विभ्रतो मनोविक्रियाविप्लुतिबिरहाव खीरूपाण्यत्यन्ताशुचिकुण रूपेण भनयतो रात्रिन्दिवं ब्रह्मचर्यमखण्डमातिष्ठमानत्याचेलवतधारणमनवद्यमवगन्तव्यम् । -मालकके स्वरूपके समान जो निष्क्ल क जातरूपको धारण करने रूप है, जिसका याचना करनेसे प्राप्त होना अशक्य है, जो याचना, रक्षा करना और हिसा आदि दोषो से रहित है, जो निष्परिग्रह रूप होनेमे निर्वाण प्राप्तिका अनन्य साधन है, जो अन्य बाधाकर नहीं है. ऐसे नाग्यको जो धारण करता है, जो मनके विक्रिया रूप उपद्रवसे रहित होनेके कारण स्त्रियों के रूपको अत्यन्त अपवित्र बदबूदार अनुभव करता है, जो रात-दिन अखण्ड ब्रह्मचर्यको धारण करता है, जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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