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________________ ऋषिपंचमी व्रत १५८ एक संस्थान ऋषि पंचमी व्रत-वतविधान संग्रह १०६)-कुल समय -५ वर्ष ५ मास, उपवास सख्या-६५, विधि- आषाढ शुक्ल ५ से प्रारम्भ करके प्रति मासकी दो-दो पञ्चमियोको उपवास करे, जाप्यमंत्रनमस्कार मंत्रका त्रिकाल जाप्य करे। ऋषिपुत्र-निमित्त शास्त्र तथा ऋषिपुत्र संहिताके रचयिता एक । ज्यौतिषाचार्य । समय-ई.श. ६-७ की सन्धि । (ती २/२६२.२६६) ऋषि मंडल यंत्र-दे यत्र । ऋषि मंत्र-दे मन्त्र १६ । ऋषिवंश-एक पौराणिक राज्य वश-दे इतिहास १०/४। [ए] एकट्ठी-दो के अंकको छ दफे वर्ग करनेस जो सख्या आवे वह होगी। (त्रि. गा. ६६)-दे बृ. जै. शब्दा द्वि.खंड। एंद्रदत्त-विनयवादी। एक-१. द्रव्यमें एक अनेक धर्म--दे. अनेकांत ४, २. मतिज्ञानका एक भेद-दे मतिज्ञान ४, ३. एक सख्याको नोकृति कहते है-दे. |प भी कहते है: ४. षद्रव्योमें एक अनेक विभाग--दे द्रव्य ३। एकजाट-८ ग्रहो में ७४वा ग्रह ज्योतिषी देव (त्रि. गा.३६६) -दे बृ. जै शब्दा द्वि.खड एकत्व-आप्त मी ३४ सत्सामान्यात्त सर्वेक्यं पृथग्द्रव्यादिभेदतः । भेदाभेदव्यवस्थायामसाधारणहेतुबत् १३४. = भेदाभेदकी विवक्षामें असाधारण हेतुके तुल्य सत्सामान्यसे सबकी एकता है और पृथक् पृथक द्रव्य आदिक्के भेद से भेद भी है। स,सा/आ/परि/शक्ति नं ३१ अनेक पर्यायव्यापकै कद्रव्यमयस्वरूपा एकत्वशक्ति । अनेक पर्यायोमें व्यापक ऐसी एक द्रव्यमयतारूप एकरव शक्ति है। प्र.सा/त/प्र १०६ तद्भावो ांकत्वस्य लक्षणम् । तद्भाव एकत्वका लक्षण है। आ.प.६ स्वभावानामेकधारत्वादेकस्वभाव. अनेक स्वभावोका एक आधार होनेपर 'एक स्वभाव' है। वै.द.७/२/१ रूपरसगन्धस्पर्शव्यतिरेकादर्थान्तरमेकत्वम् । -रूप, रस, गन्ध, स्पर्शके व्यतिरेकसे अर्थान्तरभूत एकत्व है। * परके साथ एकत्व कहनेका अभिप्राय-दे कारक २ * परमएकत्वके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग २१५ एकत्व प्रत्यभिज्ञान-दे, प्रत्यभिज्ञान । एकत्व भावना-दे. अनुप्रेक्षा। एकत्व विक्रिया-दे, वैक्रियक । एकत्वानुप्रेक्षा-दे अनुप्रेक्षा। एकदिशात्मक (ध. प्र.२७) one directional एकदेश-दे. देश। एकनासा-रुचक पर्वत निवासिनी देवी-दे लोक ५/१३ एकपर्वा एक औषधि विद्या-दे. विद्या। एकभक्त एकाशना-दे प्रोषधोपवास/१, २ साधुका मूल गुण -दे साधु। मू.आ ३५ उदयत्यमणे काले णालीतिय वज्जियम्मि मज्झम्हि। एकम्हि दुअ तिए वा मुहुलकालेयभत्त तु ।३।। - सूर्य के उदय और अस्तकाल की तान घडी छोडकर, वा मध्यकाल मे एक मुहुर्त, दो मुहुर्त, तीन मुहुर्त कालमें एक बार भोजन करना एकभक्त है। (मू आ. ४६२), (विशेष दे. आहार 11/१) एकरात्रि प्रतिमा-भ आ/वि ४०३/१६/७ एकरात्रिभवा भिक्षुप्रतिमा निरूप्यते। उपवासत्रय कृत्वा चतुया रात्री ग्रामनगरादेबहिर्देशे श्मशाने वा प्राड्मुख उदड्मुखश्चैत्याभिमुखो वा भूत्वा चतुरङ्गुलमात्रपदान्तरो नासिकाग्रदृष्टिस्त्यक्तस्तिष्ठेव । सुष्ठ प्रणिहित चित्त चतुर्विधोपसर्गसह. न चलेन पतेव यावत्सूर्य उदेति ।-तीन उपवास करनेके अनन्तर चौथी रात्रिमें ग्राम-नगरादिकके बाह्य प्रदेशमे अथवा श्मशानमें, पूर्व दिशा, उत्तरदिशा अथवा चैत्य (प्रतिमा)के सन्मुख मुख करके दोनो चरणों में चार अंगुल प्रमाणका अन्तर रख कर नासिकाके अग्रभागपर वह यति अपनी दृष्टि निश्चल करता है। शरीरपर का ममत्व छोड देता है, अर्थात कायोत्सर्ग करता हुआ मनको एकाग्र करता है । देव, मनुष्य, तिर्यञ्च व अचेतन इन द्वारा किया हुआ चार प्रकार उपसर्ग सहन करता है। वह मुनि भयसे आगे गमन करता नही और नीचे गिरता भी नहीं। सूर्योदय होने तक वहॉ ही स्थित रहता है । यह एकरात्रि प्रतिमा कुशल है। एकलठाणा-विधान संग्रह २६) - मात्र एक बार परोसा हुआ भोजन सन्तोष पूर्वक करना। एकल विहारी-मू आ १४६ तबसुत्तसत्तएग्गत्तभावसंघडणधिदि समग्गो य । पविआ आगमबलिओ एयविहारी अणुण्णादो ।१४६। =तप, सूत्र शरीर व मनके बलसे युक्त हो, एकत्व भावनामें रत हो, शुभ परिणाम, उत्तमसहनन तथा धृति अर्थात् मनोबलसे युक्त हो, दीक्षा व आगममें बलवान हो तात्पर्य यह कि तपोवृद्ध, ज्ञानवृद्ध, आचारकुशल व आगम कुशल गुण विशिष्ट साधुको ही जिनेश्वरने अकेले विहारके लिए सम्मति दी है । (और भी दे जिनकल्प) *पंचमकालमे एकलविहारी साधुका निषेध-दे. विहार । एकलव्य-पा.पु/सर्ग (श्लोक) गुरुद्रोणाचार्यका शिष्य एक भील था, स्तूपमें गुरुद्रोणाचार्य की स्थापना करके उनसे शब्दार्थ वेधनी विद्या प्राप्त की (१०/२२३); फिर गुरु द्रोणाचार्य के अजुन सहित साक्षात दर्शन होनेपर गुरुको आज्ञानुसार गुरुको अपने दाहिने हाथ का अंगूठा अर्पण करके उसने अपनी गुरुभक्ति का परिचय दिया। (१०/२६२) एकविंशति गुणस्थान प्रकरण-श्वेताम्बराचार्य सिद्धसैन दिवाकर (ई. ५५०) द्वारा रचित संस्कृत भाषाबद्घ गुणस्थान-प्ररूपक एक ग्रन्थ । एकविध-मतिज्ञान का एक भेद -दे. मतिज्ञान ४। एकशैल-पूर्व विदेहका एक वक्षार, उसका एक कूट तथा उसका रक्षक देव-दे लोक ५/३ । एकश्रेणी वर्गणा-दे वर्गणा । एकसंख्या-एक संख्याको नोकृति कहते है-दे. कृति । एक संस्थान-एक ग्रह-दे. ग्रह । जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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