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________________ ऋद्धि ४ चारण व आकाशगामित्व ऋदिव निर्देश स योगी-५६, षट्संयोगी-२८,सप्तसंयोगी-८; और अष्टसंयोगी २. ईशित्व व वशित्व विक्रियामे अन्तर १। कुल भग-२५५ (विशेष देखो गणित II/४)। ध ६/४,१,१५/७६/३ ण च वसित्तस्स ईसित्तिम्म पवेसो, अवसाणं पि २ अणिमा विक्रिया हदाकारेण ईसित्तकरणुवल भादो। - वशित्वका ईशित्व ऋद्धि ति. प. ४/१०२६ अणुतणुकरणं अणिमा अणुछिह पविसिदूण तत्थेव।। अन्तर्भाव नही हो सकता, क्योकि, अबशीकृतीका भी उनका आकार विरदि खदावार णिएसमवि चक्वट्टिस्स ।१०२६) अणुके बराबर नष्ट किये बिना ईशित्वकरण पाया जाता है। शरीरको करना अणिमा ऋद्धि है। इस ऋद्धिके प्रभावसे महर्षि ३ ईशित्व व वशित्वमे विक्रियापना कैसे है? अणुके बराबर छिद्र में प्रविष्ट होकर वहाँ हो, चक्रवर्तीके कटक और ध६४१,१५/७६/५ ईसित्तबसित्ताण कध वेउविवत्त । ण, विविहगुणनिवेशकी विक्रिया द्वारा रचना करता है । (रा.वा ३/३६/३/२०२/३४) इडिजुत्तं वेउवियमिदि तेसि वे उवियत्ताविरोहादो। -प्रश्न(ध.६/४,१,१५/७५/५) (चा. सा. २१६/२) ईशित्व और वशित्व के विक्रियापना कैसे सम्भव है। उत्तर-नहीं. ३ महिमा गरिमा व लधिमा विक्रिया क्योकि, नाना प्रकार गुण व ऋविध युक्त होनेका नाम बिक्रिया है, अतएव उन दोनोके विक्रियापने में कोई विरोध नहीं है। ति.प.४/१०२७ मेरूवमाण देहा महिमा अणिलाउ लहुत्तरो लहिमा।। वज्जाहिंतो गुरुवत्तणं च गरिमं त्ति भणं ति ।१०२७१ - मेरुके बराबर ६. अप्रतिघात अन्तर्धान व कामरूपित्व शरीरके करनेको महिमा, वायुसे भी लघु (हलका) शरीर करनेको ति.प ४/१०३१-१०३२ सेलसिलातरुपमुहाणभतरं होइदूण गमणं व । ज लघिमा और बज्रसे भी अधिक गुरुतायुक्त (भारी) शरीरके करनेको बच्चदि सा अवधी अप्पडिघादेत्ति गुणणामं ।१०३१॥ ज हवदि अहिगरिमा ऋद्धि कहते है। (रा वा ३/३६/३/२०३/१), (ध. ६/४,१,१५/ सत्त अतद्धाणा भिधाण रिद्धी सा। जुगवे बहुरूवाणि ज विग्यदि ७५/५). (च सा. २१४/२) कामरूव रिधी सा १०३२। जिस ऋद्विधके बल से शैल, शिला और वृक्षादिके मध्यमें होकर आकाशके समान गमन किया जाता है वह ४ प्राप्ति व प्राकाम्य विक्रिया सार्थक नामवाली अप्रतिघात ऋद्धि है ।१०३१। जिस ऋधिसे ति.प ४/१०२८-१०२९ भूमोए चेठेतो अगुलिअग्गेण सूरिससिपहुदि । अदृश्यता प्राप्त होती है, वह अन्तर्धाननामक ऋद्धि है; और जिससे मेरुसिहराणि अण्ण ज पाव दि पत्तिरिद्धी सा ।१०२८। सलिले वि युगपद वहुत-से रूपोको रचता है, वह कामरूप अधि है ।१०३२। य भूमीए उन्मजणिमज्जणाणि ज कुणदि। भूमीए विय सलिले (रा.वा. ३/३६/३/२०३/५), (च। सा. २१६/4)। गच्छदि पाकम्म रिद्धी सा (१०२६। भूमिपर स्थित रहकर अगुलिके ध४/४.१,१५/७६/४ इच्छिदरूनग्गहणसत्ती कामरूवित्त णाम । अग्रभागसे सूर्य-चन्द्रादिकको, मेरुशिखरोको तथा अन्य वस्तुको इच्छित रूपके ग्रहण करनेको शक्तिका नाम कामरूपित्व है। प्राप्त करना यह प्राप्ति ऋद्धि है ।१०२८। जिस ऋद्धिके प्रभावसे जलके समान पृथिवीपर उन्मजन-निमज्जन क्रियाको करता है और ४.चारण व आकाशगामित्व ऋद्धि निर्देश पृथिवीके समान जलपर भी गमन करता है वह प्राकाम्य ऋद्धि है। १. नारण ऋद्धि सामान्य निर्देश १०२६। (रा वा ३/३६/३/२०३/३); (चा सा २१६/३) ध.१/४,१,१६/०४/७ चरणं चारित्त सजमो पावकिरियाणिरोहोf घ./४,१,१५/७५/७ भूमिट्ठियस्स करेण चदाइञ्चदबिबच्छिषणसत्ती पत्नी एयट्ठो तहि कुसलो णि उणो चारणो । चरण, चारित्र, स जम, पापणाम । कुलसेलमेरुमहीहर भूमीण बाहमकाऊण तासु गमणसत्ती तवच्छरणबलेणुप्पणा पागम्मं णाम । - (प्राप्तिका लक्षण उपरोक्तवत ही क्रियानिरोध इनका एक ही अर्थ है। इसमें जो कुशल अर्थाव निपुण है वे चारण कहलाते है। है)-कुलाचल और मेरुपर्वतके पृथिवीकायिक जीवोको बाधा न पहुँचाकर उनमें, तपश्चरणके बलसे उत्पन्न हुई गमनशक्तिको प्राकाम्य २. चारण ऋद्धि की विविधता ऋद्धि कहते है। ति. प. ४/१०३४-१०३५, १०४८ “चारण रिद्धी बहुविहवियप्पसंदोह चा.सा. २१९/४ अनेकजातिक्रियागुणद्रव्याधीनं स्वागार भिन्नमभिन्न वित्थरिदा ।१०३४। जलजधाफलपुष्फ पत्तग्गिसिहाण धूममेघाण । च निर्माण प्राकाम्यं सैन्यादिरूपमिति केचित् । -कोई-कोई आचार्य धारामकडत तूजोदीमरुदाण चारणा कमसो ।१०३५अण्णो विविहा अनेक तरह की क्रिया गुण वा द्रव्यके आधीन होनेवाले सेना आदि भगा चारणरिद्वीए भाजिदा भेदा। तां सरूवकहणे उबएसो अम्ह पदार्थोंको अपने शरीरसे भिन्न अथवा अभिन्न रूप बनाने की शक्ति उच्छिण्णो १०४८। चारण ऋद्धि कमसे जलचारण, जंघाचारण, प्राप्त होनेको प्राकाम्य कहते है। (विशेष दे व क्रियक 1१। पृथक् व फलचारण, पुष्पचारण, पत्रचारण, अग्निशिखाचारण, धूभचारण, अवृथक्विक्रिया) मेघचारण, धाराचारण, मर्कटतन्तु चारण, ज्योतिषचारण और मरु छारण इत्यादि अनेक प्रकारके विकल्प समूहोसे विस्तारको प्राप्त हैं । ५. ईशित्व व वशित्व विक्रिया १०३४-१०३५। इस चारण ऋद्धिके विविध भगोंसे युक्त विभक्त किये ति.प. ४/१०३० णिस्सेसाण पहुत्त जगाण ईसत्तणामरिद्धी सा। वसमें ति हुए और भी भेद होते हैं। परन्तु उनके स्वरूपका कथन करनेवाला तवबलेण जं जीओहा वसित्तरिद्धी सा (१०३०१ = जिससे सब जगत उपदेश हमारे लिए नष्ट हो चुका है ।१०४॥ पर प्रभुत्व होता है, वह ईशित्वनामक ऋद्धि है और जिससे तपोबल ध.१/४,१,१७/पृ ७८/१० तथा पृ. ८०/६ जल जंघ-तंतु-फल-पुप्फ-बीयद्वारा जीव समूह वशमें होते है, वह वशित्व ऋधि कही जाती है। आयास-सेडीभेएण अट्ठविहा चारणा। उत्त च (गा सं २१) ७८-१०॥ (रा वा ३/३६/३/२०३/४) (चा सा २१६/५) । चारणाणमेत्थ एगसंजोगादिक्मेण विसदपंचपचासभ गा उप्पाएदया। ध.१/४.१.१५/७६/२ सव्वेसि जीवाणं गामणयरखेडादीणं च भुजणसत्ती कधमेग चारित्त विचित्तसत्तिमुप्पायय । ण परिणामभेएण णाणाभेद समुप्पण्णा ईसित्तं णाम। माणुस मायंग-हरि-तुरयादीण सगिच्छाए भिण्णचारित्तादो चारणबहुत्त पडि विरोहाभावादो । कथं पुण चारणा विउव्वणसत्ती वसित्तं णाम । - सब जीवो तथा ग्राम, नगर, एवं खेडे अहविहा सि जुज्जदे ण एस दोसो, णियमाभावादो, विसदपंचव चाआदिकोके भोगनेकी जो शक्ति उत्पन्न होती है वह ईशित्व अद्धि सचारणाण अविह चारणे हितो एयतेण पुधत्ताभावादी । जल, कही जातो है। मनुष्य, हाथी, सिह एवं घोडे आदिक रूप अपनी जघा, तन्तु, फल, पुष्प, बीज, आकाश और श्रेणी भेदसे चारण इच्छासे विक्रिया करनेकी (अर्थात् उनका आकार बदल देनेकी) ऋधि धारक, आठ प्रकार है। कहा भी है। (गा नं २१ में भी यही शक्तिका नाम वशित्व है। आठ भेद कहे है। (रा.वा ३/३६/३/२०२/२७), (चा सा, २१८/१। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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