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________________ ऋद्धि २. बुद्धि ऋद्धि निर्देश तदुभयसारी ये तीन पदानुसारीके भेद)। युगपत् एक जीवमे सर्वदा उत्पत्ति न हो सकने का प्रसग आवेगा। और एक जोबमें सर्वदा चार बुद्धियोको एक साथ उत्पत्ति हो ही नहीं, ऐसा है नही क्योकि(सात ऋद्धिपोका निर्देश करनेवाली) सुत्रगाथाके व्याख्यानमें (कही गयी) गणधर देवोके चार निर्मल बुद्धियाँ देखी जाती है। तथा गणधर देवोके चार बुद्धियों होती है, क्योकि उनके बिना (उनके द्वारा) बारह अगोकी उत्पत्ति न हो सकनेका प्रसग आवेगा। ३. बीज बुद्धिको अचिन्त्य शक्ति व शंका ध६/४,१,७/५८/३ "सखेजसहअण तलिगेहि सह बीजपद जाणंती. बीजबुद्धि त्ति भणिद होदि। णा बीजबुद्धि अणं तत्थ पडिबद्धअणंतलिगबीजपदमवगच्छदि, खओसमियत्तादो त्ति । ण खओवसमिएण परोक्खेग सुदणाणेण इत्यादि (देखो केवल भाषार्थ) संख्यात शब्दोके अनन्त अर्थोंमे सम्बद्ध अनन्त लिगों के साथ बीजपदको जाननेवाली बीज बुद्धि है, यह तात्पर्य है। प्रश्न-बीज बुद्धि अनन्त अोंसे सम्बद्ध अनन्त लिंगरूप बोजपदको नहीं जानती, क्योकि वह क्षायोपशमिक है। उत्तर -नही, क्योकि. जिस प्रकार क्षयोपशमजन्य परोक्ष श्रुतज्ञानके द्वारा केवलज्ञानसे विषय किये गये अनन्त अर्थोंका परोक्ष रूपसे ग्रहण किया जाता है, उमो प्रकार मतिज्ञानके द्वारा भी सामान्य रूपसे अनन्त अर्थों को ग्रहण किया जाता है, क्योकि इसमें कोई विरोध नहीं है । प्रश्न-यदि तज्ञानका विषय अनन्त सख्या है, तो 'चौदह पूर्वका विषय उत्कृष्ट संख्यात है' ऐसा जो परिकम में कहा है, वह कैसे घटित होगा। उत्तर-यह कोई दोष नहीं है, क्योकि उत्कृष्ट, उत्कृष्ट-सख्यातका ही जानता है, ऐसा यहाँ नियम नही है। प्रश्न-श्रुत ज्ञान समस्त पदार्थों को नहीं जानता है. क्यो कि, (पदार्थोंके अनन्तवे भाग प्रज्ञापनीय हैं और उसके भी अनन्तवें भाग द्वादशांग श्रुत के विषय है) इस प्रकारका वचन है । उत्तर-समस्त पदार्थों का अनन्तवाँ भाग द्रव्यश्रुतज्ञानका विषय भले ही हो, किन्तु भाव भूतज्ञानका विषय समस्त पदार्थ है, क्योकि, ऐसा माने बिना तीर्थकरोके वचनातिशयके अभावका प्रसग होगा। ३ कोष्ठबुद्धिका लक्षण व शक्तिनिर्देश ति प ४/१७८-१७६ "उत्कस्सिधारणाए जुत्तो पुरिसो गुरुवएसेणं । णाणाविहगथेसु वित्थारे लिगसद्दबीजाणि १७८। गहिऊण णियमदीए मिस्सेण विणा धरे दि मदिकोडे । जो कोई तस्स बुद्धी णिदिवा कोट्ठबुद्धी त्ति।१७।। - उत्कृष्ट धारणासे युक्त जो कोई पुरुष गुरुके उपदेशसे नाना प्रकारके ग्रन्थोमेसे विस्तारपूर्वक लिग सहित शब्दरूप भोजोको अपनी बुद्धिमें ग्रहण करके उन्हे मिश्रणके बिना बुद्धिरूपी कोठे में धारण करता है, उसकी बुद्धि कोष्ठबुद्धि कही गयी है । (रा. वा. ३/३६/३/२०१/२८). (चा सा २६२/४)। ध६/१,१.६/५३/७ कोष्ठय शालि वो हि-यव-गोधूमादिनामाधारभूत कुस्थली पल्यादि । सा चासेसदवपज्जायधारणगुणेण कोटुसमाणा बुद्धी कोट्टो, कोठा च सा बुद्री च कोठबुदी। एदिस्से अल्पधारणकालो जहण्णेण सखेजाणि उकास्सेण अस खेज्जाणिवसाणि कुदो। 'कालमसरख सखं च धारणा' त्ति सुत्त बल भादो। कुदो एद होदि। धारणाबरणीयस्स तिव्ववोत्रसमेण। -शालि, वीहि, जौ और गेहूँ आदिके आधारभूत कोथली, पल्ली आदिका नाम कोष्ठ है । समस्त द्रव्य व पर्यायोको धारण करनेरूप गुणसे कोष्टके समान होनेसे उस बुद्धिको भी कोष्ठ कहा जाता है। कोष्ठ रूप जो बुद्धि वह कोष्ठबुद्धि है। (ध १३/५५,४०२४३/११) इसका अर्थ धारणकाल जघन्यसे संख्यात वर्ष और उत्कर्ष से असख्यात वर्ष है, क्योकि, 'अस ख्यात और संख्यात काल तक धारणा रहती है' ऐसा सूत्र पाया जाता है। प्रश्न-यह कहाँसे होती है। उत्तर-धारणावरणीय कमके तीन क्षयोपशमसे होता है। ४ पदानुसारी ऋद्धि सामान्य व विशेष के लक्षण ति प ४/८०-६८३ बुद्धीविपक्रवणाण पदाणुसारी हवेदि तिविहप्पा । अणुसारी पडिसारी जहत्थणामा उभयसारी।८01 आदि अवसाणमज्झे गुरूवदेसैण एकबीजपदं । गेण्हिय उव रिमगथ जा गिण्हदि सा मदी हु अणुसारी।८१ आदिअवसाणमझे गुरूवदेसेण एकबीजपद । गेण्हिय हेठिमगथं बुज्झदि जा सा च पडिसारी।८। णियमेण अणियमेण य जुग एगस्स बीजसईस्स । उवरिमहेटिठमर्गथं जा बुज्झइ उभयसारी सा ।१८३। घ.६/४,१,८/६०/२ पदमनुसरति अनुकुरुते इति पदानुसारी बुद्धि। बीजबुद्धीए बीजपदमवग तूण एत्य इद एदेसिमरवराण लिग होदि ण होदि त्ति इहिदुणसयलसुदक्खर-पदाइमबगच्छती पदाणुसारी। तेहि पदेहितो समुप्पज्जमाण णाण सुदणाणं ण अक्खर पदविसर्य, तेसिम खरपदाणं बीजपद ताभावादो। सा च पदाणसारी अणु-पदितदु भयसारिभेदेण तिविहो। कुदो एद होति। ईहाबायावरणीयाण तिब्बक्खओवसमेण । -(ध.६/६०)-पदका जो अनुसरण या अनुकरण करती है वह पदानुसारी बुद्धि है। बीज बुद्धिसे बीजपदको जानवर, 'यहाँ यह इन अक्षरोका लिग होता है और इनका नही', इस प्रकार विचारकर समस्त श्रुत के अवर पदोको जाननेवाली पदानुसारी बुद्धि है (उन पदोसे उत्पन्न होनेवाला ज्ञान श्रृतज्ञान है, वह अक्षरपद विषयक नहीं है, क्योंकि, उन अक्षरपदोका बीजपद में अन्तर्भाव है। प्रश्न यह कैसे होती है । उत्तर-ईहावरणीय कर्मके तीव क्षयोपशमसे होती है। ति.प-विचक्षण पुरुषोको पदानुसारिणी बुद्धि अनु सारिणी, प्रतिसारिणी और उभयसारिणीके भेदसे तीन प्रकार है, इस बुद्धिके ये यथार्थ नाम है ।१८० जो बुद्धि आदि मध्य अथवा अन्त में गुरुके उपदेशसे एक बीजपद को ग्रहण करके उपरिम (अर्थात उससे आगेके) ग्रन्थको ग्रहण करती है वह 'अनुसारिणी' बुद्धि कहलाती है ।१८१। गुरुके उपदेशसे आदि मध्य अथवा अन्तमे एक बीजपद को ग्रहण करके जो बुद्वि अधस्तन (पीछे वाले) ग्रन्थको जानती है, वह 'प्रतिसारिणी' बुद्धि है ।२। जो बुद्वि नियम अथवा अनियमसे एक भीजशब्दके (ग्रहग करनेपर) उपरिम और अधस्तन (अर्थात उस पद के आगे ब पीछेके सर्व) ग्रन्थको एक साथ जानती है वह 'उभयासारिणी' बुद्धि है।८३1 (रा वा ३/३६/३/२०९/३०), (ध, १/४.१,८/६०/५), (चा, सा २१२/५) ५ संभिन्नश्रोतृत्वका लक्षण ति.प. ४/१६४-६८६ सोदिदिग्सुदणाणावरणाण वीरियतरायाए । उक्त स्सक्ख उबसमे उदिदं गोव गाणामकम्मम्मि हटा सोदुक्कस्सरिखदीदो बाहि स खेज्जजोयणपएसे। सठियणरतिरियाणं बहविहसह समुठ्ठ ते ।६८५। अक्रवर अणक्खरमए सोदूर्ण दस दिसासु पत्तेक्क । ज दिज्जदि पडिवयणे त चिय स भिण्णसोदित्त ।६।- श्रोत्रेन्द्रियावरण, भूतज्ञानावरण, और वीर्यान्तरायका उत्कृष्ट क्षयोपशम तथा अगोपांग नामकर्मका उदय होनेपर श्रोनेन्द्रियके उत्कृष्ट क्षेत्रसे बाहर दशों दिशाओमें सख्यात योजन प्रमाण क्षेत्र में स्थित मनुष्य एव तियंचोंके अक्षरानझरात्मक बहुत प्रकारके उठनेवाले शब्दोको सुनकर जिससे (युगपत) प्रत्युत्तर दिया जाता है, वह सभिन्नश्रातृत्व नामक बुद्धि ऋद्धि कहलाती है। (रा.वा ३/३६/३/२०२/१), (ध, १/४,१.६/६१/४), (सा चा २१३/२) 'ध.६/१,१,६/६२/६ कुदो एद होदि। बहुबहु विहविरवपावरणीयाण' खावसमेण . = यह कहाँसे होता है । बहु, बहुविध और क्षिप्र (मति) ज्ञानावरणीयके क्षयोपशमसे होता है। ६ दूरादास्वादन आदि ऋद्धियोके लक्षण ति.प.४/१८७-६१७१-जि भिदिय सुदणाणावरणाण बीरण तरायाए। उक्कस्सक्वउबसमे उदिदगोव गणामकम्मम्मि ।१८७१ जिम्भुक्कस्स २९ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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