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________________ उभयसारीऋषि ऊहा आठ प्रकार सिद्ध नही होते है। उत्तर-यहाँ पुरुष भेदोंकी अपेक्षासे निरूपण किया है जैसे। कोई पुरुष सूत्रका अर्थ तो ठीक कहता है, परन्तु सूत्रको विपरीत पढता है ठीक पढता नहीं। दीर्घोच्चार के स्थानमें हत्वोच्चार इत्यादि दोषयुक्त बोलता है। ऐसा दोषयुक्त पढ़ना नहीं चाहिए इस वास्ते व्यजनशुद्धि कही है। दूसरा कोई पुरुष सूत्रको ठोक पढ़ लेता है । परन्तु सूत्रार्थका विपरीत निरूपण करता है। यह भी योग्य नहीं है। इसका निराकरण करनेके लिए अर्थशुद्धि कही है। तीसरा आदमी सूत्र भी विपरीत पढ़ता है और उसका अर्थ भो अटसट कहता है। इन दोनो दोषों को दूर करने के लिए तदुभयेशुद्धिको भिन्न मानना चाहिए। उभयसारी ऋद्धि-दे ऋद्धि २/४ । उभयासंख्यात-दे, असंख्यात । उमास्वामी-१ नन्दिसघ बलात्कार गणके अनुसार (दे. इतिहास ४१३) आप कुन्दकुन्दके शिष्य थे और (प.खं २/७३/H L. Jain) के अनुसार 'बलाक पिच्छ' के गुरु थे। (त वृ/प्र.६७) में पं. महेन्द्रकुमार 'प्र नाथूराम प्रेमी' का उद्धरण देकर कहते है कि आप यापनीय सघके आचार्य थे । (ष ख.१/प्र ५६/H L_Jain) तथा तत्त्वार्थसूत्रको प्रशस्तिके अनुसार इनका अपर नाम गृद्रपृच्छ है । आप बड़े विद्वान व वाचक शिरोमणि हुए है। आपके सम्बन्धमें एक किंवदन्ती प्रसिद्ध है-सौराष्ट्र देशमें द्वैपायन नामक एक श्रावक रहता था। उसने एक बार मोक्षमार्ग विषयक कोई शास्त्र बनानेका विचार किया और एक सूत्र रोज बनाकर ही भोजन करूगा अन्यथा उपवास करू गा' ऐसासकल्प किया। उसी दिन उसने एक सूत्र बनाया "दर्शनज्ञान चारित्राणि मोक्षमार्ग "। विस्मरण होनेके भयसे उसने उसे घरके एक स्तम्भपर लिख लिया। अगले दिन किसो कार्यवश वह तो बाहर चला गया, और उसके पीछे एक मुनिराज आहारार्थ उसके घर पधारे। लौटते सयय मुनिकी दृष्टि स्तम्भ पर लिखे सूत्रपर पड़ी। उन्होंने चुपचाप 'सम्यक' शब्द उस सूत्रसे पहिले और लिख दिया और बिना किसीसे कुछ कहे अपने स्थान को चले गये। श्रावकने लौटने पर सत्र में किये गये सधारको देखा और अपनी भूल स्वीकार की। मुनिको खोज उनसे ही विनीत प्रार्थना की कि वह इस ग्रन्थको रचना करें, क्योकि उसमें स्वय उसे पूरा करनेको योग्यता नहीं थी । बस उसकी प्रेरणासे हो उन मुनिराजने 'तत्त्वार्थ सूत्र' (मोक्ष शास्त्र) की १० अध्यायोमें रचना की यह मुनिराज 'उमास्वामो' के अतिरिक्त अन्य कोई न थे। (स सि. प्र८०/पं फूलचन्द्र) आप बडे सरल चित्त व निष्पक्ष थे और यही कारण है कि श्वेताम्बर तथा दिगम्बर दोनो ही सम्प्रदायोमें आपकी कृतियाँ समान रूपसे पूज्य व प्रमाण मानी जाती है। आपकी निम्न कृतियाँ उपलब्ध है- तत्त्वार्थ सूत्र, सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम, ये दो तो उनको सर्वसम्मत रचनाएँ है । और (ज प /प्र ११०/A N Up ) के अनुसार 'जम्बू द्वीपसमास' नामकी भी आपकी एक रचना है। समय - पट्टावलोके अनुसार श. सं.१०१-१४२ (वी नि ७०६-७४७) । परन्तु 'विद्वज्जनबोध के अनुसार वह वो नि ७७० प्राप्त होता है। "वर्ष सप्तशते सप्तत्या च विस्मृती।" इसलिए विद्वानोने उनकी उत्तरावधि ७४७ से ७७० कर दी है। (विशेष दे कोष १/परिशिष्ट ४,४) इसके अनुसार इनका सयय ई १७६-२४३ (ई. श. ३) आता है । मूलस धर्म आपका स्थान (दे इतिहास ७/१) उमास्वामो नं २-श्रावकाचार' और 'पच नमस्कार स्तवन' नामके ग्रन्थ जिन उमास्वामी की रचनाएँ है वे तत्त्वार्थ सूत्रके रचयिता उमास्वामी नं १ से बहुत पीछे होने के कारण लघु-उमास्वामी कहे जाते है । (सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम । प्र५ में प्रेमीजी की टिप्पणी) उरुकुल गण-एक जैनाभासी सघ (दे इतिहास ६/७) । उरुबिल्व-(म. पु / ४६/पं पन्नालाल)-वर्तमान 'बुद्ध-गया' नामका नगर । यह बिहार प्रान्तमें है। मिमालिनी-अपर विदेहस्थकी एक विभंगा नदी-दे. लोक/ उर्वक-(घ १२/४,२,७,२१४/१७०/६) एस्थ अणंतभागअड्ढीए उन्वंकसण्णा- यहाँ अनन्त भाग वृद्धिकी उर्वक अर्थात 'उ' संज्ञा है। (षट् स्थानपतित हानि-वृद्धि क्रमके छह स्थानोको सहननी क्रमश' ४,५,६,७,८ और 'उ' स्वीकार की गयी है)। (गो. जी म. ३२५/६८४), (ल.स /जी.प्र ७६/३)। उशीनर-भरतक्षेत्रमें आर्यखण्डका एक देश-दे मनुष्य ४। उष्ण परोषह-स.सि. १/१/४२६/६ निवाते निर्जले ग्रीष्मरविकिरणपरिशुष्कपतितपर्ण व्यपेतच्छायातरुण्यटव्यन्तरे यदृच्छयोपनिपतितस्यानशनाद्यभ्यन्तरसाधनोत्पादितदाहस्य दवाग्निदाहपुरुषवातातपजनितगलतालुशोषस्य तत्प्रतीकारहेतूद बहननुभूतानचिन्तयत प्राणिपोडापरिहारावहितचेतसश्चारित्ररक्षणमुष्णसहनमित्युपबयेते । निर्वात और निर्जल तथा ग्रीष्मकालीन सूर्यको किरणों से सूखकर पत्तोके गिर जानेसे छायारहित वृक्षोसे युक्त ऐसे बनके मध्य जो अपनी इच्छानुसार प्राप्त हुआ है, अनशन आदि अभ्यन्तर साधन वश जिसे दाह उत्पन्न हुई है,दवाग्निजन्य दाह, अतिकठोर वायु और आतपके कारण जिसे गले और तालुमें शोष उत्पन्न हुआ है, जो उसके प्रतीकारके बहुत-से अनुभूत हेतुओको जानता हुआ भी उनका चिंतवन नही करता है तथा जिसका प्राणियोकी पीडाके परिहारमें चित्त लगा हुआ है, उस साधुके चारित्रके रक्षणरूप उष्णपरोषहजय कही जाती है । (रा.वा ६/६/७/६०६/१२), (चा सा ११२/४)। उष्ण योनि-दे योनि १। उष्माहार-दे आहार /१। उष्ट्रकूट-दे कृष्टि । ट-मानुषोत्तर पर्वतका एक कूट-दे लोक/७ । ऊँच-दे, उच्च । ऊर्जयन्त-सौराष्ट्र देशके जूनागढ नगरमें स्थित गिरनारपर्वत । ऊर्ध्वक्रम-दे म। ऊर्ध्वगच्छ-गुणहानि आयाम-दे गणित 11/६/२॥ ऊर्ध्व गति-जीव व पुद्गल का ऊर्ध्व गमन-दे गति १। ऊर्ध्व प्रचय-दे क्रम ऊर्यक्रम। ऊर्ध्व लोक-दे स्वर्ग ५। ऊहा-प.ख. १३/१४/सू३८/२४२ ईहा ऊहा अपोहा मग्गणा गवसणा मीमांसा ३८ । ईहा, ऊहा, अपोहा, मार्गणा, गवेषणा और मीमासा ये ईहाके पर्याय नाम है। तत्त्वार्थाधिगम भाष्य १/१५ ईहाऊहातक परीक्षाविचारणाजिज्ञासा इत्यनर्थान्तरम् । -ईहा, उहा, तर्क, परीक्षा, विचारणा. जिज्ञासा ये सब शब्द एकार्थवाची है। जनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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