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________________ अकलंक भट्ट अक्रियावाद हेतु कुछ इसलिए शब्दम शब्द है। यहा अकलंक भद्र--१. (सि. वि. प्र.५/पं. महेन्द्रकुमार)-लघुहव्व नृपतिके ज्येष्ठ पुत्र प्रसिद्ध आचार्य। आपने राजा हिम-शीवलकी सभामें एक बौद्ध साधुको परास्त किया था, जिसकी ओर से तारा देवी शास्त्रार्थ किया करती थी। अकलंक देव आपका नाम था और भट्ट आपका पद था । आपके शिष्यका नाम महीदेव भट्टारक था। आपने निम्नग्रन्थ रचे हैं.-१. तत्त्वार्थ राजवातिक सभाष्य, २. अष्टशती, ३. लघीयत्रय सविवृत्ति, ४ न्यायविनिश्चय सविवृत्ति, ५.सिद्धिविनिश्चय,६ प्रमाणसंग्रह, ७.स्वरूप सबोधन, ८.बृहत्त्रयम. ६.न्याय चूलिका, १०. अकलंक स्तोत्र। आपके कालके सम्बन्धमें चार धारणाएँ है'-१ अकल क चारित्रमें "विकमार्कशकाब्दीयशतसप्तप्रमाजुषि । कालेऽकलङ्कयतिनो बौद्ध दो महानभूव" ॥-विक्रम संवत् ७०० (ई.६४३) में बौद्धोंके साथ श्री अकल क भट्टका महान शास्त्रार्थ हुआ। २ वि. श.६ ( सभाष्य तत्त्वार्थाधिगम/प्र. २/टिप्पणी में श्री नाथूराम प्रेमी) । ३. ई. ६२०-६८० ( नरसिहाचार्य, प्रो. एस. श्रीकण्ठ शास्त्री, प. जुगल किशोर, डॉ ए. एन. उपाध्ये, पं कैलाशचन्द्रजी शास्त्री, ज्योतिप्रसादजी)। ४.ई.स.७२०-७८० (डॉ. के. बी. पाठक, डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण, डॉ आर. जी. भण्डारकर, पिटर्सन, लुइस राइस, डॉ विन्टरनिट्ज, डॉ. एफ. डब्ल्यू थामस, डॉ ए. बी. कोथ, डॉ. ए. एस आत्तेकर, श्री नाथूराम प्रेमी, प, सुखलाल, डॉ बी.एन. सालेतोर, महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज, पं. महेन्द्रकुमार) उपरोक्त चार धारणाओं मेंसेनं १ वाली घारणा अधिक प्रामाणिक होनेके कारण आपका समय ई.६२०-६८० के लगभग आता है। ४ शब्दानुशासनके कर्ता (दे भट्टाकलंक)। * जैन साधु संघमें आपका स्थान (दे. इतिहास ७/१) । अकलंक स्तोत्र-आ अकलंक भट्ट ( ई ६२०-६८०) द्वारा सस्कृत छन्दोमें रचित जिन-स्तोत्र । इसमें कुल १६२ श्लोक है। इस पर प.सदासुखदास (ई १७६५-१८६६) ने भाषामें टीका लिखी है। अकषाय-दे. कषाय १। अकषाय वेदनीय-दे. मोहनीय १ । अकाम निर्जरा-दे 'निर्जरा'। अकाय-दे. 'काय'। अकार्यकारण शक्ति-स. मा./आ./परि शक्ति १४ अन्याक्रिय माणान्याकारकैकद्रव्यात्मिका अकार्यकारणशक्तिः । = अन्यसे न करने योग्य और अन्यका कारण नहीं ऐसा एक द्रव्य, उस स्वरूप अकार्यकारण चौदहवीं शक्ति है । अकालनय-१. दे. नय 1/५। २. काल व अकाल नयका समन्वय दे.नियति । अकाल मृत्यु-दे मरण ४ । अकालवर्ष-मान्यखेटके राजा अमोघवर्ष के पुत्र थे। कृष्ण द्वितीय इनकी उपाधि थी जो कृष्ण प्रथमके पुत्र ध्र वराजके राज्यपर आसीन होनेके कारण इन्हे प्राप्त थी। ये भी राष्ट्रकूटके राजा थे। राजा लोकादित्यके समकालीन थे। इनका समय ई ८७८ से ११२ है। (विशेष दे इतिहास ३/५) । (ह. पु ६६/५२-५३), (उत्तरपुराणकी प्रशस्ति); (जीवन्धर चम्पू / प्र.८/ A. N. Upadhye); (आ. अनु प्र.७०/H L. Jain,), (म पु प्र. ४२/पं. पन्नालाल बाकलीवाल)। अकालाध्ययन-सम्यग्ज्ञानका एक दोष-दे. 'काल'। अकिंचित्कर हेत्वाभास-प मु ३/३५-३६ सिद्ध प्रत्यक्षादि बाधिते च साध्ये हेतुकिंचित्कर । जो साध्य स्वयं सिद्ध हो अथवा प्रत्यक्षादिसे बाधित हो उस साध्यकी सिद्धिके लिए यदि हेतुका प्रयोग किया जाता है तो वह हेतु अकिंचित्कर कहा जाता है। न्या. दी ३/६३।१०२ अप्रयोजको हेतुरकिंचित्कर'। -जो हेतु साध्यकी सिद्धि करनेमे अप्रयोजक अर्थात असमर्थ है उसे अकिंचित्कर हेत्वाभास कहते है। २. अकिंचित्कर हेत्वाभासके भेद न्या. दी. ३/६६३/१०२ स द्विविध-सिद्धसाधनो बाधितविषयश्चेति ।-अकिचित्कर हेत्वाभास दो प्रकारका है-सिद्धसाधन और बाधितविषय। ३. सिद्धसाधन अकिंचित्कर हेत्वाभासका लक्षण प. मु ३/३६-३७ सिद्ध श्रावण शब्द शब्दत्वात् । किचिदकरणाद। शब्द कानसे सुना जाता है क्योंकि वह शब्द है। यहाँपर शब्दमें श्रावणत्व स्वयं सिद्ध है इसलिए शब्दमें श्रावणत्वकी सिद्धिके लिए प्रयुक्त शब्दत्व हेतु कुछ नहीं करता (अत' सिद्धसाधन हेत्वाभास है)। स.म | श्रुत प्रभावक मण्डल १२७/१६ पूर्वसे ही सिद्ध है ( ऐसी) सिद्धिको माधनेसे सिद्ध साधन दोष उपस्थित होता है। न्या दी ३/६६३/१०२ यथा शब्द श्रावणो भवितुमर्हति शब्दत्वादिति। अत्र श्रावणत्वस्य साध्यस्य शब्द निष्ठत्वेन सिद्धत्वाद्धतरकिचित्कर । शब्द श्रोत्रेन्द्रियका विषय होना चाहिए, क्योंकि वह शब्द है । यहाँ श्रोत्रंन्द्रियकी विषयता रुप साध्य शब्दमें श्रावण प्रत्यक्षसे ही सिद्ध है। अत उसको सिद्ध करनेके लिए प्रयुक्त किया गया 'शब्दपना' हेतु सिद्धसाधन नामका अकिचित्र हेत्वाभास है। ____ * प्रत्यक्षवाधित आदि हेत्वाभास-दे. 'बाधित' । * कालत्ययापदिष्ट हेत्वाभास--दे, 'कालात्ययापदिष्ट । अकृत-अभ्यागम दोष या हेत्वाभास । दे. 'कृतनाश'। अकृतिधारा-दे गणित II/५/२ । अकृतिमातृकधारा-दे गणित II/५/२ । अक्रियावाद १ मिथ्या एकान्तकी अपेक्षाध.६/४,१,४५ / २०७/४ सूत्रे अष्टाशीतिशतसहस्रपदै १८००००० पूर्वोक्तसर्वदृष्टयो निरूप्यन्ते. अबन्धक' अलेपक. अभोक्ता अकर्ता निर्गुण सर्वगत अद्वैत नास्ति जीव. समुदयजनित सर्व नास्ति बाह्यार्थों नास्ति सर्व निरात्मक, सर्व थणिक अक्षणिकमद्वै तमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यन्ते। -सूत्र अधिकारमें अठासी लाख ८८००००० पदों द्वारा पूर्वोक्त सब मतोका निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त जीव अबन्धक है, अलेपक है, अभोक्ता है, अकर्ता है, निर्गुण है, व्यापक है, अद्वैत है जीव नही है, जीव (पृथिवी आदि चार भूतोके ) समुदायसे उत्पन्न हुआ है सब नही है अर्थात शून्य है. बाह्य पदार्थ नहीं है, सब निरात्मक है. सब क्षणिक है, सब अक्षणिक अर्थात नित्य है, अद्वैत है. इत्यादि दर्शन भेदों का भी इसमें निरूपण किया जाता है । (ध. १/१,१२/११०/८) गो क /भाषा /८८४/१०६८ अक्रियावादी वस्तु को नास्ति रूप मानि क्रियाका स्थापन नाहि करें है। भा. पा./भाषा/१३७ पं. जयचन्द-बहरि केई अक्रियावादी हैं तिनि नै जीवादिक पदार्थ नि विर्षे क्रियाका अभाव मानि परस्पर विवाद करें हैं। केई कहै है जीव जानैं नाहीं है, केई कहै है कछ कर नाहीं है, केई कहैं है भोगवै नाही है. केई कहै है उपजै नाहीं है, केई कहै है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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