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________________ उपयोग 3 मिश्रोपयोग निर्देश समुल्लसत्यवशतो यत्कर्म बन्धायं तन्मोक्षाय स्थितमेकमेव परमं ज्ञान विमुक्त स्वतः ।११०। - जब तक ज्ञानको कर्म विरति (साम्यता) भली-भॉति परिपूर्णताको प्राप्त नहीं होती तब तक कर्म और ज्ञानका (राग व वीतरागताका) एकत्रितपना शास्त्रो में कहा है। उसके एकत्रित रहने में कोई भी क्षति या विरध नहीं है। किन्तु यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि आत्मामें अवशपनेसे जो कर्म (राग) प्रगट होता है वह तो बन्धका कारण है और जो एक परम ज्ञान है वह एक ही मोक्षका कारण है-जो कि स्वतः विमुक्त है। प्रसा/त प्र/२४६ परद्रव्यप्रवृत्तिसालतशुद्धात्मवृत्ते. शुभोपयोगि चारित्र स्यात् । अत' शुभोपयोगिश्रमणानी शुद्वात्मानुरागयोगिचारित्रलक्षणम् । -पर द्रव्य प्रवृत्तिके साथ शुद्धात्मपरिणति मिलित होनेसे शुभोपयोगी चारित्र है। अत शुद्वात्माके अनुरागयुक्त चारित्र शुभोपयोगी श्रमणोका लक्षण है। का/त प्र१६६ "अहंदादिभक्तिसंपन्न कथचिच्छदस प्रयोगोऽपि सत् जीवो जीवद्रागलवस्वाच्छुभोपयोगतामजहत बहुश. पुण्यं बध्नाति, न खलु सकलकर्मक्षयमारभते। = अहंदादिके प्रति भक्ति सम्पन्न जीव, कथ चित् 'शुद्ध सम्प्रयोगवाला' हाने पर भी रागलव जो वित होनेसे 'शुभोपयोगीपने' को नही छोडता हुआ, बहुत पुण्य बांचता है, परन्तु वास्तव में सकल कमौका क्षय नही करता। प्र. सा /ता वृ २५५/३४८/२७ यदा पूर्व मूत्रकथितन्यायन सम्यक्त्वपूर्वक शुभोपयोगो भवति तदा मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धो भवति पर परया निर्वाण च । नो चेत्पुण्यमन्धमात्रमेव । - जब पूर्वसूत्र कथित न्यायसे सम्यक्त्व पूर्वक शुभोपयोग होता है तब मुख्य वृत्तिसे तो पुण्यबन्ध ही होता है, परन्तु परम्परासे मोक्ष भी होता है। केवल पुण्यबन्ध मात्र नहीं होता। स. सा/ता वृ/४१४ अत्राह शिष्य -केवल ज्ञान शुद्ध छद्मस्थज्ञान पुनर शुद्ध शुद्धस्य केवल ज्ञानस्य कारण न भवति । कस्मात् । इति चेत'सुद्ध' तु वियाण तो सुद्वमेवप्पयं लहदि जीवो' इति वचनात इति । नै, छदास्थज्ञान कथ चिच्छुद्धाशुद्धत्व । तद्यथा-यद्यपि केवल ज्ञानापेक्षा या श द न भवति तथापि मिथ्यात्वरागादिरहितत्वेन बीतरागसम्यवत्वचारित्रसहितत्वेन च शद्ध । प्रश्न-केवलज्ञान शुद्ध है और छद्मस्थ ज्ञान अशुद्ध है । वह शुद्ध केवलज्ञानका कारण कैसे हो सकता है । क्योकि ऐसा वचन है कि शुद्धको जाननेवाला ही शुद्वात्मा को प्राप्त करता है। उत्तर-ऐसा नहीं है, क्योकि, छद्मस्थका ज्ञान भी कथंचित शुद्धाशुद्ध है । वह ऐसे कि-यद्यपि केवलज्ञानकी अपेक्षा तो अशुद्ध ही है. तथापि मिथ्यात्व रागादिसे रहित तथा वीतराग सम्यक्त्व व चारित्र (शुद्धोपयोग) से सहित होनेके कारण शुद्ध है। द्र स /टी ४८/२०३/४ यद्यपि ध्याता पुरुष स्वशुद्वात्मसवेदन विहाय बहिश्चिन्तां न करोति तथापि यावताशेन स्वरूपे स्थिरत्व मास्ति तावताशेनानी हितवृत्त्या विकल्पा स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्यवितकवीचार ध्यान भण्यते । यद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज शुद्वारम सवेदनाको छोड़कर बाह्यपदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अशमे उस पुरुषके अपने आत्मामें स्थिरता नही है उतने अशोंमें अनिच्छितवृत्तिमे विकल्प उत्पन्न होते है, इस कारण इस ध्यानको 'पृथक्त्ववितकवीचार' कहते है। २ जितना रागांश है उतना बन्ध है और जितना वीतरागांश है उतना संबर है पु. सि./उ २१२-२१६ येनाशेन सुदृष्टिस्तेनाशेन बन्धन नास्ति । यैनाशेन तु रागस्तैनाशेनास्य बन्धन भवति ।२१२। येनाशेन ज्ञान तेनाशेनास्य बन्धन नास्ति । येनाशेन तु रागस्तेनाशेनास्य अन्धन भवति ।२१३। येनाशेन चारित्र तेनाशेनास्य बन्धनं नास्ति । येनाशेन तु रागस्तेनांशेनास्य बन्धन भवति ।२१४। योगात्प्रदेशबन्ध' स्थितिबन्धो भवति तु कषायात । दर्शनबोधचरित्रं न योगरूपं कषायरूपं च ।२१५॥ दर्शनमात्मविनिश्चितिरात्मपरिज्ञानमिष्यते भोध । स्थितिरात्मनि चारित्रं कुत एतेभ्यो भवति बन्ध' ।२१६) = इस आत्माके जिस अंशके द्वारा सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान व सम्यग्चारित्र है, उस अशके द्वारा इसके अन्ध नहीं हैं, पर जिस अशके द्वारा इसके राग है, उस अंशसे बन्ध होता है ।२११-२१४ । योगसे प्रदेशबन्ध होता है और कषायसे स्थितिबन्ध होता है । ये दर्शन ज्ञान व चारित्र तीनों न तो योगरूप है और न कषायरूप ।२१॥ आत्म विनिश्चयका नाम दर्शन है, आश्मपरिज्ञानका नाम ज्ञान है और आत्मस्थितिका नाम चारित्र है। तब इनसे सन्ध कैसे हो सकता है ।२१६। (पं.ध/उ.७७३), प्रसा/ता. २१८/प्रक्षेपक गाथा २/२६२/२१ सूक्ष्मजन्तुघातेऽपि यावयां शेन स्वस्वभावचलनरूपा रागादिपरिणतिलक्षणभावहिसा तावताशेन बन्धो भवति, न च पादसंघट्टमात्रेण । - सूक्ष्म जन्तुका घात होते हुए भी जितने अशमें स्वभावभाव से चलनरूप रागादि परिणति लक्षणवालो भाव हिसा है, उतने ही अंशमें गन्ध होता है, पाँवसे चलने मात्रसे नही। प्रसा/ता वृ २३८/३२६/१४ या न्तरात्मावस्था सा मिथ्यास्वरागादि२ हितत्वेन शुद्वा यावताशेन निरावरणरामादिरहितत्वेन शुद्धा च तावताशेन मोक्षकारणं भवति ।--जो अन्तरात्मारूप अवस्था है वह मिथ्यात्वरागादिसे रहित होनेके कारण शुद्ध है। जितने अशमें निरावरण रागादिरहित होने के कारण शुद्ध है, उतने अंशमें मोक्षका कारण होती है । ( स./टी.३६/१५३/५) अन ध १/११०/११२ येनाशेन विशुद्धि रयाजन्तोस्तेन न पन्धनम् । येनांशेन तु राग' स्यात्तेन स्यादेव बन्धनम् । = आत्माके जितने अशमें विशुद्धि होती है, उन अशोंकी अपेक्षा उसके कर्मबन्ध नहीं हुआ करता। किन्तु जिन अशो में रागादिका आवेश पाया जाता है, उनकी अपेक्षासे अवश्य ही बन्ध हुआ करता है। पौंध /उ ७७२ बन्धो मोक्षश्च ज्ञातव्य समासात्प्रश्न कोविदै । रागा शबन्ध एव स्यान्नारागाँशै क्दाचन १७७२१ - प्रश्न करने में चतुर जिज्ञासुओको संक्षेपसे बन्ध और मोक्ष इस प्रकार समझ लेना चाहिए कि जितने रागके अंश है उनसे अन्ध ही होता है तथा जितने अरागके अश है उनसे कभी भी बन्ध नही होता ७७२। मो पा /प जयचन्द/४२ प्रवृत्तिरूप क्रिया है सो शुभकर्म रूप बन्ध करै है और इन क्रियानिमै जेता अश निवृत्ति है ताका फल बन्ध नाही है । ताका फल कमकी एकदेश निर्जरा है। ३ मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन द्र.सं./टो. ३४/१६/११ अयमत्रार्थ :- यद्यपि पूर्वोक्तं शुद्धोपयोगलक्षण क्षायोपशमिकं ज्ञानं मुक्तिकारणं भवति तथापि धरातृपूर षेण यदेव निरावरणमण्डै कविमल केवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाह न च खण्डज्ञानरूपम् इति भावनीयम्। इति सवरतत्त्वव्याख्यानविषये नविभागे ज्ञातव्य इति । यहाँ साराश यह है कि यद्यपि पूर्वोक्त शुद्धोपयोग लक्षणका धारक क्षायोपशमिक ज्ञान मुक्तिका कारण है तथापि ध्याता पुरुषको, "नित्य, सक्ल आवरणहित अखण्ड एक सकल विमल-केवलज्ञानरूप परमात्माका स्वरूप ही मै हूँ, खण्ड ज्ञानरूप नही हूँ' ऐसा ध्यान करना चाहिए। इस तरह संबर तत्वके व्याख्यानमें नयका विभाग जानना चाहिए। द्र सं/टी ३६/१५३/५ रागादिभेद विज्ञाने जातेऽपि यावतांशेन रागादिक मनु भवति तावताशेन सोऽपि बध्यत एव, तस्यापि रागादिभेदविज्ञानफलं नास्ति । यस्तु रागादिभेद विज्ञाने जाते सति रागादिक त्यजति तस्य भेदविज्ञानफल मस्तीति ज्ञातव्यम् । रागादिमें भेद विज्ञानके होनेपर भी जितने अंशोसे रागादिका अनुभव करता है, उतने अशोसे वह भेद विज्ञानी बन्धता ही है, अत: उसके रागादिकके भेद विज्ञानका फल नही है। और जो राग आदिकका भेद विज्ञान होनेपर राग आदिक्का त्याग करता है उसके भेद विज्ञानका फल है, यह जानना चाहिए। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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