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________________ उपपाद योगस्थान ४२८ उपयोग विषय-सूची उपपादगृह है । बहुरि तीह उपपादग्रहविषै दोय रत्नमई शय्या पाईए २ उपयोग व लब्धि निर्देश है। इहा इन्द्रका जन्मस्थान है । बहुरि इस उपपाद गृहकै पासि बहुत * प्रत्येक उपयोगके साथ नये मनकी उत्पत्ति-दे. मन ह शिखरनिकरि संयुक्त जिनमन्दिर है। उपपाद योगस्थान दे योग। १ उपयोग व ज्ञानदर्शन मार्गणामे अन्तर उपबृंहण-दे उपगृहन। २ उपयोग व लब्धिमे अन्तर । उपभोग-दे, भोग। ३ लब्धि तो निर्विकल्प होती है। उपमान-न्या /सू./म. व भाष्य १/१/६ प्रसिद्धसाधासाध्यसाधन * एक समयमे एक ही उपयोग सम्भव है-दे उपयोग 1 २/२ मुपमानम् ।६। प्रज्ञातेन सामान्यात्प्रज्ञापनीयस्य प्रज्ञापन मुषमानमिति । ४ उपयोगके अस्तित्वमे भी लब्धिका अभाव नही हो जाता यथा गौरेवं गवय इति। - प्रसिद्ध पदार्थ की तुल यतासे साध्यके साधन- * उपयोग व इन्द्रिय --दे इन्दिर को उपमान कहते है। प्रज्ञातके द्वारा सामान्य होनेसे प्रज्ञापनीयका प्रज्ञापन करना उपमान है जैसे 'गौ की भॉति गबय होता है। ऐसे * केवली भगवान मे उपयोग सम्बन्धी-दे केवलो ६ कहकर 'गवय'का रूप समझाना । (न्या.वि /मू३/८५/३६१),(रा वा * ज्ञान दर्शनोपयोगके स्वामित्व सम्बन्धी गुण-स्थान, १/२०/१५/७८/१७) मार्गणास्थान, जीव समास आदि २० प्ररूपणाएँ-दे सत २ उपमान प्रमाणका श्रुतज्ञानमे अन्तर्भाव II शुद्ध व अशुद्धादि उपयोग रा वा १/२०/१५/०८/१८ इत्युपमानमपि स्वपरप्रतिपत्तिविषयत्वादक्ष रानक्षरच ते अन्तर्भावयति । क्योंकि इसके द्वारा स्व व परकी प्रति- १ शुद्धाशुद्ध उपयोग सामान्य निर्देश पत्ति हा जाती है । इसलिए इसका अक्षर व अनवक्षर श्रुतज्ञानमें अन्तर्भाव हो जाता है। १ उपयोगके शुद्ध अशुद्ध आदि भेद उपमा प्रमाण-दे प्रमाण ५। २ ज्ञान दर्शनोपयाग व शुद्धाशुद्ध उपयोगमे अन्तर उपमा मान-(ज. प./प्र १०१)Similar Measure * शुद्ध व अशुद्ध उपयोगोका स्वामित्व-दै. उपयोग II AR उपमा सत्य-दे सत्य १॥ २ शुद्धोपयोग निर्देश उपमिति भवप्रपञ्च कथा- विरमें श्वेताम्बराचार्य सिद्धर्षि १ शुद्धोपयोगका लक्षण द्वारा रचित एक ग्रन्थ । (जै /१/४३२) । २ शुद्धोपयोग व्यपदेश मे हेतु उपयुक्त-वसतिकाका एक दोष--दे. वसतिका। * शुद्धपयोगका स्वामित्व-दे उपयोगII/४/५ उपयोग-चेतनाकी परिणति विशेषका नाम उपयोग है। चेतना ३ शुद्धोपयोग साक्षात् मोक्षका कारण है सामान्य गुण है और ज्ञान दर्शन ये दो इसकी पर्याय या अवस्थाएँ ४ शुद्धोपयोग सहित ही शुभोपयोग कार्यकारी है है। इन्हीको उपयोग कहते है। तिनमें दर्शन तो अन्तचित्प्रकाशका सामान्य प्रतिभास है जो निर्विकल्प होनेके कारण बचनातीत व केवल + धर्ममे शुद्धपयोगकी प्रधानता-दे धर्म ३ अनुभवगम्य है। और ज्ञान बाह्य पदार्थों के विशेष प्रतिभासको कहते * अल्प भूमिकाओमे भी कथचित् शुद्धोपयोग--दे अनुभव ५ है। सविकल्प होनेके कारण व्याख्येय है। इन दोनों ही उपयोगीके * लौकिक कार्य करते भी सम्यग्दृष्टिको ज्ञान चेतनाका सद्भाव अनेको भेद-प्रभेद है । यही उपयोग जब बाहरमें शुभ या अशुभ -दे सम्यग्दृष्टि २ पदार्थोंका आश्रय करता है तो शुभ अशुभ विकल्पो रूप हो जाता है और जब केवल अन्तरात्माका आश्रय करता है तो निर्विकल्प होनेके ___ * एक शुद्धपयोगमे ही संवरपनाकैसे है-दे सवर २ कारण शुद्ध कहलाता है। शुभ अशुभ उपयोग ससारका कारण है अत * शुद्धोपयोगके अपर नाम-दे. मोक्षमार्ग २/५ परमार्थ से हेय है और शुद्धोपयोग मोक्ष व आनन्दका कारण है, इसलिए उपादेय है। ३ मिश्रोपयोग निर्देश १ मिश्रोपयोगका लक्षण I ज्ञानदर्शन उपयोग * मिश्रोपयोगके अस्तित्व सम्बन्धी शंका १. भेद व लक्षण --दे अनुभव ५/८ १ उपयोग सामान्यका लक्षण २ जितना रागाश है उत्सना बन्ध है और जितना वीतरा२ उपयोग भावनाका लक्षण गाश है उतना संवर है ३ उपयोगके ज्ञानदर्शनादि भेद ३ मिश्रोपयोग बतानेका प्रयोजन ४ उपयोगके वाचना पृच्छना आदि भेद ४ शुभ व अशुभ उपयोग निर्देश ५ उपयोगके स्वभाव विभावरूप भेद व लक्षण १ शुभोपयोगका लक्षण * ज्ञान व दर्शन उपयोग विशेष-दे वह वह नाम २ अशुभोपयोगका लक्षण * साकार अनाकार उपयोग - दे. आकार ३ शुभ व अशुभ दोनो अशुद्धोपयोगके भेद है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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