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________________ अन्तराय अन्तपण्ड्यि 'इसका मस्तक काटो इत्यादि रूप कठोर शब्दोंको, 'हा हा इत्यादि जाना पतन है। बैठ जाना उपवेशन है। कुत्तादिका काटना सर्दश रूप आर्त स्वर वाले शब्दोंको और परचक्रके आगमनादि विषयक है। हाथसे भूमिको छूना भूमिस्पर्श है। कफ आदि मलका फेंकना विड्वरप्राय शब्दोको सुन करके भोजन त्याग देना चाहिए । निष्ठीवन है। पेटसे कृमि अर्थात कीडोका निकलना उदरकृमिनिर्गमन चा, पा.टो. २१/ ४३/१६ चाण्डालादिदशनात्तच्छब्दश्रवणाच भोजनं है । बिना दिया किचित् ग्रहण करना अदत्तग्रहण है। अपने व अन्यके त्यजेत् । -चाण्डालादिके दिखाई दे जानेपर, या उसका शब्द कानमें तलवार आदिसे प्रहार हो तो प्रहार है। ग्राम जले तो ग्रामदाह है। पड जानेपर आहार छोड देना चाहिए। पॉव-द्वारा भूमिसे कुछ उठा लेना वह पादेन किचित् ग्रहण है। हाथला. स. ५/२४८-२४६ श्रवणाद्धिसक शब्दं मारयामीति शब्दवत् । दग्धो मृत" स इत्यादि श्रुत्वा भोज्यं परित्यजेत् ॥ २४८॥ शोकाश्रितं वच. द्वारा भूमिसे कुछ उठाना वह करेण किंचित ग्रहण है। ये काकादि ३२ श्रुत्वा मोहाद्वा परिदेवनम् । दोनं भयानक श्रुत्वा भोजन त्वरित अन्तराय तथा दूसरे भी चाण्डाल स्पर्शादि, कलह, इष्टमरणादि बहुतत्यजेत् ॥२४॥ - 'मै इसको मारता हूँ' इस प्रकारके हिसक शब्दोको से भोजन रयागके कारण जानना। तथा राजादिका भय होनेसे, सुनकर भोजनका परित्याग कर देना चाहिए। अथवा शोकसे उत्पन्न लोकनिन्दा होनेसे, संयमके लिए, वैराग्यके लिए, आहारका त्याग होनेवाले वचनोंको सुनकर वा किसोके मोहसे अत्यन्त रोनेके शब्द करना चाहिए ॥४६५-५००। ( अन. ध ५/४२-६०/५५०) सुनकर अथवा अत्यन्त दोनताके वचन सुनकर वा अत्यन्त भयंकर ३. भोजन त्याग योग्य अवसर शब्द सुनकर शीघ्र ही भोजन छोड देना चाहिए। मू. आ. ४८० आट के उबसग्गे तिरवणे संभचेरगुत्तीओ। पाणिदया७. मन सम्बन्धी अन्तराय तबहेऊ सरीरपरिहारवेच्छेदो ।-व्याधिके अकस्मात् हो जानेपर, सा, घ.४/३३ । इद मांसमिति दृढसंकरपे चाशनं त्यजेत् । ३३ ॥- देव-मनुष्यादि कृत उपसर्ग हो जानेपर, उत्तम क्षमा धारण करनेके यह पदार्थ ( जैसे तरबूज ) मासके समान है अर्थात वैसी ही आकृति- समय, मह्मचर्य रक्षण करनेके निमित्त, प्राणियोकी दया पालनेके का है इस प्रकार भक्ष्य पदार्थ में भी मनके द्वारा सकल्प हो जानेपर निमित्त, अनशन तपके निमित्त, शरीरसे ममता छोड़नेके निमित्त निस्सन्देह भोजन छोड़ दे। इन छ कारणोंके होनेपर भोजनका त्याग कर देना चाहिए। ला स.५/२५० उपमानोपमेयाभ्यां तदिदं पिशितादिवत । मनः- अन, ध /६/५५८ आतङ्क उपसर्गे ब्रह्मचर्यस्य गुप्तये । कायस्मरणमात्रत्वात्कृत्स्नमन्नादिक त्यजेत १२५० = 'यह भोजन मासके कार्यतप प्राणिदयाद्यर्थ चानाहरेत् । ६४।-किसी भी आकस्मिक समान है वा रुधिरके समान है। इस प्रकार किसी भी उपमेय वा व्याधि-मारणान्तिक पीड़ाके उठ खड़े होनेपर, देवादिकके द्वारा किये उपमानके द्वारा मनमें स्मरण हो जावे तो भी उसी समय समस्त उत्पातादिक्के उपस्थित होनेपर, अथवा ब्रह्मचर्यको निर्मल बनाये जलपानादिका त्याग कर देना चाहिए ॥२५॥ रखने के लिए यद्वा शरीरकी कृशता, तपश्चरण और प्राणिरक्षा आदि धर्मोकी सिद्धिके लिए भी साधुओको भोजनका त्याग कर देना २. साधु सम्बन्धी अन्तराय चाहिए। मू. आ.मू. ४६५-५०० कागामेका छद्दी रोहण रुहिर' च अस्सुबाई च। जण्हहिहामरिसं जहुवरि वदिक्कमो चेव ॥४६॥ णाभि अधो ४.एक स्थानसे उठकर अन्यत्र चले जाने योग्य अवसर णिग्गमणं पच्चक्खियसेवणाय जंतुवहो । कागादिपिडहरणं पाणीदो धन. ध. ६/६४/६२५ प्रक्षाल्य क्रौ मीनेनान्यत्रादि बजेद्यदेवाद्यात् । पिंडपडणं च ॥४६६॥ पाणीए जतुबहो मासादीदंसणे य उबसग्गो। चतुरमुलान्तरसमक्रम सहायजजिपुटस्तदैव भवेत ॥ १४॥ भोजनके पादं तरम्मि जीवो संपादो भोयणाणं च ॥४६७) उच्चारं पस्सवणं स्थानपर यदि कीडी आदि तुच्छ जीव-जन्तु चलते-फिरते अधिक अभोजगिहपवसण तहा पडणं । उबवेसणं सदंसं भूमीसंफास- नजर पडे, या ऐसा ही कोई दूसरा निमित्त उपस्थित हो जाये तो णिठवणं ॥४८॥ उदरक्किमिणिग्गमणं अदत्तगहणं पहारगामडाहो। सयमियोको हाथ धोकर वहाँसे दूसरी जगहके लिए आहारार्थ मौन पादेण किचि गहणं करेण वा जं च भूमिए ॥४६एदे अण्णे बहूगा पूर्वक चले जाना चाहिए। इसके सिवाय जिस समय वे अनगार ऋषि कारणभूदा अभोयणसेह। बोहणलोगगंछणस जमणिम्वेदणद' च भोजन करे उसी समय उनको अपने दोनों पैरोके बीच चार अंगुलका ५००॥ साधुके चलते समय बा खडे रहते समय ऊपर जो कौआ आदि अन्तर रखकर, समरूपमें स्थापित करने चाहिए तथा उसी समय बोट करे तो वह काक नामा भोजनका अन्तराय है। अशुचि वस्तुसे दोनों हाथों की अंजलि भी बनानी चाहिए। चरण लिप्त हो जामा वह अमेध्य अन्तराय है । वमन होना छदि है। *अयोग्य वस्तु खाये जानेका प्रायश्चित-दे भक्ष्याभक्ष्य ।। भोजनका निषेध करना रोध है, अपने या दूसरेके लोहू निकलता देखना अंतराल--Interval-दे ज. प. प्र. १०५ । रुधिर है। दुःखसे आँसू निकलते देखना अश्रुपात है। पैरके नीचे अंतरिक्ष निमित्त ज्ञान-दे. निमित्त २॥ हाथसे स्पर्श करना जान्वध परामर्श है। तथा घुटने प्रमाण काठके ऊपर उलंघ जाना वह जानूपरि व्यतिक्रम अन्तराय है। नाभिसे नीचा अंतरिक्ष लोक-दे ज्योतिषी २। मस्तक कर निकलना बह नाभ्यधोनिर्गमन है। त्याग की गयी अंतरोपनिधा-दे णी। बस्तुका भक्षण करना प्रत्याख्यातसेवना है। जीव बध होना जन्तुबंध अंचित्प्रकाश-दे.दर्शन। कौआ प्रास ले जाये बह काकादिपिण्डहरण है। पाणिपात्रसे पिण्ड- __ अंतर्जातीय विवाह-दे विवाह । का गिर जाना पाणित' पिण्डपतन है। पाणिपात्रमें क्सिी जन्तुका अंतर्धान ऋद्धि-दे. ऋद्धि ३ । मर जाना पाणित जन्तुवध है। मांस आदिका दीखना मासादि दर्शन अंतीप-१. सागरोंमें स्थित छोटे-छोटे भूखण्ड, दे. लोक ४१। है। देवादिकृत उपसर्गका होना उपसर्ग है। दोनों पैरोंके बीच में कोई जीव गिर जाये वह जीवसंपात है। भोजन देनेवालेके हाथ से भोजन २. लवण समुद्रमें १८ अन्तर्दीप है, जिनमें कुभोग-भूमिज मनुष्य रहते है। (वे म्लेच्छ ) ये द्वीप अन्य सागरों में नहीं हैं। दे. लोक ४/१। गिर जाना बह भोजनसंपात है। अपने उदरसे मल निकल जाये वह उधार है। मूवादि निकलना प्रस्रवण है। चाण्डालादि अभोज्यके अंतीपजम्लेच्छ दे० म्लेच्छ । घरमें प्रवेश हो जाना अभोज्यगृह प्रवेश है। मूच्छादिसे आप गिर अंतण्ड्य -आर्यखण्डस्थ एक देश । दे० मनुष्य/४॥ जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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