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________________ उपचार १. उपचारके भेद व लक्षण २. उपचारके भेद-प्रभेद आ. ५/५,६ असद्भुत व्यवहारस्त्रे पा। स्वजात्यसद्भूतव्यवहारो, विजात्यसद्भूतव्यवहारो, स्वजाति विजारयसभूतव्यवहारो। उप चरिता सदभूतव्यवहारस्त्रेधा । स्वजात्यसभूतव्यवहारो, विजात्य सदभूत व्यवहारो, स्वजातिविजात्यसदभूतव्यवहारो, १५ गुणगुणिनो पर्यायपर्यायिणो स्वभावस्वभाविनो कारक्कारकिणोभद सदभूतव्यवहारस्यार्थ । द्रव्ये द्रव्योपचार , पर्याये पर्यायोपचार .गुणे गुणोपचार , द्रव्ये गुगापचार , द्रव्ये पर्यायोपचार , गुणे द्रव्योपचार , गुणे पर्यायोपचार, पर्याय द्रव्यापचार ,पर्याये गुणोपचार इति नवविधोऽसद्भूतव्यवहारस्थाओं द्रष्टव्य । सोऽपि सबन्धाविनाभावः। सश्लेषमबन्ध , परिणाम-परिणामिसबन्ध , श्रद्धाश्रद्धय-संबन्ध , ज्ञानज्ञयसबन्ध., चारित्रचर्यास बन्धश्चेत्यादि सत्यार्थ असत्यार्थः, सत्यार्थासत्यार्थश्चेत्युपचरितासद्भुतव्यवहारनयस्यार्थ । - भावार्थ-१ उपचार दो प्रकारका है भेदोपचार और अभेदोपचार। गुणगुणीमें भेद करके कहना भेदोपचार है। इसे सद्भुत व्यवहार कहते है क्योकि गुणगुणीका तादात्म्य सम्बन्ध पारमार्थिक है। भिन्न द्रव्योमे एकत्व करके कहना अभेदोपचार है। इसे असद्भुत व्यवहार कहते है, क्योकि भिन्न द्रव्योका संश्लेष या स्योग सम्बन्ध अपारमार्थिक है। यह अभेदोपचार भी दो प्रकारका है-सश्लेष युक्त द्रव्यो या गुणो आदिमें और स योगी द्रव्यो या गुणो में । तहाँ सश्लेपयुक्त अभेदको असद्भूत कहते है और सयोगी-अभेदका उपचरित असद्भुत कहते है, क्योकि यहाँ उपचारका भी उपचार करनेमे आता है, जैसे कि धन पुत्रादिका सम्बन्ध शरीरसे है और शरीरका सम्बन्ध जोवसे । इसलिए धनपुत्रादिका जीवका कह दिया जाता है। २ गुण-गुणीमें, पर्याय-पर्यायोमे, स्वभाव-स्वभाबीमे, कारक-कारकीमे भेद करना सद्भूत या भेदोपचारका विषय है। (विशेष दे नय V/५/४-६) ३ एक द्रव्य में अन्य द्रव्यका, एक पर्यायमे अन्य पर्यायका, एक गुणमें अन्य गुणका, द्रव्यमे गुणका, द्रव्यमें पर्यायका, गुणमें द्रव्यका, गुण में पर्यायका, पर्याय में द्रव्यका तथा पर्यायमे गुण का इस तरह नौ प्रकार असदभूत-अभेद।पचारका विषय है। सो भी स्वजाति-असद्भूतव्यवहार, विजाति अगदभृत-व्यय हार, और स्वजाति-विजातिअसद्भूत-व्यवहार के भेदसे तान-तीन प्रकारका है। ४ अविनाभावीसम्बन्ध कई प्रकारका होता है। जैसे-संश्लेष-सम्बन्ध, परिणामपरिणामी सम्बन्ध, श्रद्वा-श्रद्धेय सम्बन्ध, ज्ञान-ज्ञेय सम्बन्ध,चारित्रचर्या सम्बन्ध इत्यादि । ये सब उपचरित-असइभृत-व्यवहार रूप अभेदोचारके विषय है। सो भी स्वजाति-उपचरित-असदभृतव्यवहार, विजाति-उचरित-असद्भूत-व्यवहार और स्वजातिविजाति-उपचरित-अमद्भूत व्यवहारके भेदसे तीन-तीन प्रकारके है। अथवा सत्यार्थ, असत्यार्थ व सत्यासत्यार्थ के भेदमे तीन-तीन प्रकार है। यथा-१ स्वजाति-द्रव्य में विजाति-द्रव्यका आरोप, २ स्वजाति-गुणमें विजाति-गुणका आरोप, ३. स्वजाति पर्यायमें विजाति पर्यायका आरोप ४ स्वजाति द्रव्यमे विजाति गुणका आरोप. ५. स्वजाति द्रव्यमे विजाति पर्यायका आरोप, ६ स्वजाति गुणमें विजाति द्रव्यका आरोप, ७ स्वजाति गूण में विजाति पर्यायका आरोप ८ स्वजाति पर्याय में बिजाति द्रव्य का आरोप, ६. स्वजाति पर्यायमें विजाति गुणका आरोप। ५ इसी प्रकार द्रव्य गुण पर्याय में स्वजाति विजाति व स्वजातिविजाति (उभयरूप) भेदोमे परस्पर अविनाभावी-राम्बन्ध देखकर यथासम्भव अन्य भी भग बना लेने चाहिए । (न च / १८८.१८४ २२३-२३६/२४० न च /श्रुत २२) ६. इनके अतिरिक्त भी प्रयोजनके वशसे अनेको प्रकारका उपचार करने में आता है। यथा-कारण में कार्यका उपचार, कार्य में कारण का उपचार, अल्पमे पूर्ण का उपचार, आधारमे आधेयका उपचार, तद्वानमें ततका उपचार, अतिसमीपमें तत्पनेका उपचार इत्यादि-इत्यादि । (इनमें से कुछ का परिचय आगेवाले शीर्ष को मे यथासम्भव दिया गया है।) ३. उपचारके भेदोके लक्षण न.च /वृ २२६-२३१ स्वजातिपर्याय स्वजातिपर्यायारोपणोऽसद्भूत व्यवहार - "दट ठूण पडिविन भवदि हु त चेव एस पज्जाओ। सज्जाइ असबभू ओ उपयौरओ णियजाइपज्जाओ ।२२६-१)" विजातिगुणे विजातिगुणारोपणोऽसद्भूतव्यवहार - "मुत्तं इह मइणाणं मुत्तिमद्दवेण जणि ओ जम्हा । जइ णहु मुत्तणाण तो कि खलुओ हु मुत्तेण ।२२६-२" स्वजातिविजातिद्रव्ये स्वाजातिविजातिगुणारोपणोsसद्भूतव्यवहार -णेय जीवमजीव त पिय णाण खु तस्स विसयादो। जो भण्णइ एरिसरथ सो ववहारोऽसब्भूदो ॥२२७-११" स्वजातिद्रव्ये स्वजातिविभावपर्यायारोपणोऽसद्भूतव्यवहार. "परमाणु एयदेसी बहुप्पदेसी य ज पय जो हु। सा ववहारी णेओ दब्वे १ज्जाय उबयारो ।२२७-२" स्वजातिगुणे स्वजातिद्रव्यारोपणोऽसद्भुतव्यवहारो-"रूब पि भणई दव्य ववहारो अण्ण अत्थसंभूदो। सो खलु जधोपदेसं गुणे सु व्वाण उवयारो ।२२८" स्वजातिगुणे स्वजाति पर्यारोपणोऽसदभूतव्यवहार -"णाण पिहू पज्जाय परिणममाणो दु गिहणए जम्हा। ववहारो खलु जपइ गुणेसु उवयरिय पज्जाओ १२२६॥"स्वजातिविभावपर्याये स्वजातिद्रव्यारोपणोऽसद्भूतव्यवहार.. "दठूणथूलखध पुग्गलदव्वेत्ति जंपए लोए । उवयारो पज्जाए पुग्गलदव्वस्स भण्णइ ववहारो।२३०॥" स्वजातिपर्याये स्वजातिगुणारोपणोऽसदभ्रतव्यवहारा-"द टूण देहठाण वणतो होइ उत्तम भव । गुण उवयारो भणिओ पज्जाए णस्थि सदेहो ।२३१॥" न च /वृ २४१-२४४ देसवइ देसत्यो अत्यवाणिज्जो तहेव जपतो। मे देस मे दव्व सच्चासच्चपि उभयत्थं ।२४१। पुत्ताइबंधुवग्ग अहं च मम स पदादि जपतो। उवयाग सम्भृओ सज्जाइ दन्वेसु णायचो ।२४२। आहरणहेमरयणाच्छादीया ममेति जप्पंतो। उघयारियअसभूओ, विजाइदम्वेसु णाययो ।२४३। देसत्थरज्जदुग्गं मिस्सं अण्णं च भणइ मम दव्वं । उहयत्ये उवयरिदो होइ असम्भूयववहारो ।२४४। १. असद्भूत व्यवहारके भेदोकी अपेक्षा १ स्वजाति पर्याय में स्वजाति पर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-दर्पण मे प्रतिबिम्ब को देखकर यह दर्पणकी पर्याय है' ऐसा कहना। यहाँ प्रतिबिम्ब व दर्पण दोनो पुद्गल पर्यायें है। एकका दूसरेमें आरोप क्यिा गया है। २. विजाति गुण में विजाति गुणका आरोप इस प्रकार है। जैसे-मूर्त इन्द्रियोमें या विषयोसे उत्पन्न होनेके कारण मतिज्ञानको मूर्त कहना। तथा ऐसा तर्क उपस्थित करना यदि यह ज्ञान मूर्त न होता तो मूर्त द्रव्योसे स्खलित कैसे हो जाता । यहाँ ज्ञान गुण का विजाति मर्त गुणका आरोप क्यिा गया है। ३ स्वजाति-विजाति द्रव्यमें स्वजाति विजाति गुणका आरोप इस प्रकार है । जैसे-जीव व अजीव द्रव्योको ज्ञेय रूपसे विषय करने पर ज्ञानको जीन्ज्ञान व अजीवज्ञान कह देना। यहाँ चेतन अचेतन द्रव्योमें ज्ञान गुणका आरोप किया गया है। ४. स्वजाति द्रव्यमें स्वजाति विभावपर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-परमाणु यद्यपि एक प्रदेशी है, परन्तु परस्परमें कर बहुप्रदेशी स्कन्ध होनेकी शक्ति होनेके कारण बहुप्रदेशी कहा जाता है । यहाँ पुदगल द्रव्य (परमाणु) का पुद्गल पर्याय (स्कन्ध) में आरोप किया गया है। स्वजाति गुणमें स्वजाति द्रव्यका आरोप इस प्रकार है। जैसे-द्रव्यके रूपको ही द्रव्य कहना यथा--रूपपरमाणु, गन्धपरमाणु आदि । यहाँ पृद्धगल के गुण मे पृद्गल द्रव्य (परमाणु) का आरोप किया गया है। ६ स्वजाति गुणमें स्वजाति पर्यायका आरोप इस प्रकार है। जैसे-परिणमनके द्वारा ग्राह्य होने के कारण ज्ञानको ही पर्माय कह देना । यहाँ ज्ञान गुणमें स्वजाति ज्ञान पर्याय जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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