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________________ उद्धारदेव ४१४ उपकार उद्धार देव-भूत चौबीसीमें दसवें तीर्थंकर--दे. तीर्थकर ५ उद्धार पल्य-कालका प्रमाण-दे. गणित !/१/५ उद्धार सागर-कालका प्रमाण-दे गणित I/१/५ उधत-(गो जी./सदृष्टि अधिकार) भाग की हुई राशि। उद्धाव-उत्पत्ति। उद्धिन्न- आहारका एक दोष--दे. आहार II/४/४; २ वसतिका एक दोष-दे, वसतिका। उभ्रान्त-प्र. नरकका पाँचवाँ पटल--दे. नरक ५/११ व रत्नप्रभा उद्यवन-(भ. आ./वि.२/१४/१५)उत्कृष्ट यवनं उद्यवनं ।...तत्कर्थ दर्शनादिभिरात्मनो मिश्रण मिति । असकृद्दर्शनादिपरिणतिरुधवन । - उत्कृष्ट मिश्रण होना उद्यवन है, अर्थात आत्माको सम्यग्दर्शनादि परिणति होना उद्यवन शब्दका अर्थ है। प्रश्न-सम्यग्दर्शनादि तो आत्मासे अभिन्न हैं, तब उनका उसके साथ सम्मिश्रण होना कैसे कहा जा सकता है । उत्तर--यहाँ पर उद्यवन शब्द का सामान्य सम्बन्ध ऐसा अर्थ समझना चाहिए । अर्थात बारम्बार सम्यग्दर्शनादि गुणोंसे आत्माका परिणत हो जाना उद्यवन शब्दका अर्थ है। धन. ध १/६६।१०४ दृष्ट्यादीना मलनिरसनं द्योतन तेषु शश्वद्ग,-- वृत्ति स्वस्योद्मवनमुदित धारणं निस्पृहस्य ।-दर्शन ज्ञान चारित्र और तप इन चारों आराधनाओमें लगनेवाले मलोंके दूर करनेको उद्योत कहते है। इन्हीं में इनके आराधकके नित्य एकतान होकर रहनेको उद्यवन कहते है। उद्यापन-उपवासके पश्चात उद्यापनका विधान । -दे. प्रोषधोपवास ३ उद्योत-१. आध्यात्मिक लक्षण भ. आ./वि.१/१४/६ उद्योतनं शङ्कादिनिरसन सम्यक्त्वाराधना श्रुतनिरूपिते वस्तुनि संशयप्रतिसज्ञिताया अपाकृति । अनिश्चयो बैपरीत्य वा ज्ञानस्य मलं, निश्चयेनानिश्चयव्युदास.। यथार्थतया वैपरीत्यस्य निरासो ज्ञानस्योद्योतन भावनाविरहो मलं चारित्रस्य, तासु भावनासु वृत्तिरुद्योतनं चारित्रस्य । तपसोऽसयमपरिणाम. कलङ्कतया स्थितिस्तस्यापप्रकृति' संयमभावनया तपस उद्योतनं । -शका काक्षा आदि दोषोंको दूर करना यह उद्योतन है। इसको सम्यक्त्वाराधना कहते है। जिसको सशय भी कहते है ऐसी शंकादिको अपने हृदयसे दूर करना (सम्यक्त्वका) उद्योतन है। निश्चय न होना अथवा उलटा निश्चय होना, यह ज्ञानका मल है। जब निश्चय होता है, तब अनिश्चय नहीं रहता। यथार्थ वस्तुज्ञान होनेसे विपरीतता चली जाती है। यह ज्ञानका उद्योतन है । भावनाओंका त्याग होना चारित्रका मल है अर्थात भावनाओंमें तत्पर होना ही चारित्रका उद्योतन है। असंयम परिणाम होना, यह तपका कलकं है संयम-भावनामें तत्पर रहकर उस कलकको हटाकर तपश्चरण निर्मल बनाना तपका उद्योतन है। भौतिक लक्षण-(स, सि. ५/२४/२६६/१०) उद्योतश्चन्द्रमणिखद्योतादिप्रभव. प्रकाश.1 -चन्द्र, मणि और जुगनु आदिके निमित्त जो प्रकाश पैदा होता है उसे उद्योत कहते है। (रा. वा./२४/१६/ ४८६/२१).(त.सा. ३/७१), (द्र सं./टी १६/५३) घ. ६/१४--१,२८/६०/६ उद्योतनमुद्योत । -उद्योतन अर्थात चमकने को उद्योत कहते हैं। गो. क./मू-३३/२६ अण्हूणपहा उज्जोओ। उष्णता रहित प्रभाको उद्योत कहते हैं। २. उद्योत नाम कर्मका लक्षण स सि. ८/११/६६१/५ यन्निमित्तमुद्योतन तदुद्योतनाम । तच्चन्द्ररखद्योतादिषु वर्तते। जिसके निमित्तसे शरीरमें उद्योत होता हे वह उद्योत नाम-कर्म है। वह चन्द्रबिम्ब और जुगन आदिमे होता है। (रा.वा ८/११/१६/५७८/७);(ध ६/१,१-१,२८/६०18),(ध. १३/५५,१०/३६५/१); (गो.क /जी.प्र. ३३/२६/२१) उद्योतन सूरि-आप 'कुवलयमाला' नाम ग्रन्थके रचयिता एक श्वेताम्बराचार्य थे। यह कृति आपने वि.८३५ (ई.७७८) में समाप्त की थी। (ह पु/प्र/प, पन्नालाल), (वरांगचरित्र/प्र २१/पं.खुशालचन्द), (ती. ३/२८७)। उद्वग-नि सा/ता वृ६ इष्टवियोगेषु विक्लवभाव एवोद्वेग । इष्टके वियोगमें विल्कवभाव या घबराहटका भाव होना उद्वेग है । उद्वेष-पृथिवी त्नपर या बीचमें चौडाई। उद्वेलन-दे सक्रमण ४॥ उद्वेल्लिम-तद्वयतिरिक्त द्रव्य निक्षेपका एक भेद । -दे.निक्षेप५/ उन्मग्ना-विजयाईकी गुफाओमें स्थित नदी। दे लोक ३/५॥ ति, प ४/२३८ णियजलपवाहपडिदं दवं गरुव णेदि उवरिम्मि। जम्हा तम्हा भण्णइ उम्मग्गा वाहिणी एसा। क्योंकि, यह अपने जलप्रवाहमें गिरे हुए भारीसे भारी द्रव्यको भी ऊपर ले आती है। इसलिए यह नदी उन्मग्ना कही जाती है । (रा बा, ३/१०/४/१७५/ ३३): (त्रि.सा ५६४) * उन्मग्ना नदीका लोकमे अवस्थानादी-दे. लोक ३/७ उन्मत्त-कायोत्सर्गका एक अतिचार-(दे. व्युत्सर्ग १)। उन्मत्तजला-पूर्व विदेह की एक विभंगा नदी। दे. लोक ५/उन्मान-दे. प्रमाण ५। उन्मिश्र-१ आहारका एक दोष-दे,आहार II/४/४,२ वस्तिकाका एक दोष-दे. वस्तिका। उपकरण-ध.६/१,१,३३/२३६/३ उपक्रियतेऽनेनेत्युपकरणम् -- जिसके द्वारा उपकार किया जाता है उसे उपकरण कहते है | संयमोपकरण-प्रसा/ता, वृ २२३/१) निश्चयव्यवहारमोक्षमार्ग सहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिद्धमुपकरण रूपोपधि अप्रार्थनीय-भावसंयमरहितस्यासंयतजनस्यानभिलषणीयम्। -निश्चय व्यवहार मोक्षमार्ग के सहकारीकारण रूपसे अप्रतिषिद्ध जो उपकरण रूप उपाधि वह भाव संयमसे रहित असं यत जनोके द्वारा प्रार्थना या अभिलाषा की जाने योग्य नहीं होनी चाहिए। * उपकरण इन्द्रिय-दे. इन्द्रिय १ * जिन प्रतिमाके १०८ उपकरण द्रव्य-दे. चैत्य १/११ उपकार-उपकरणाका सामान्य अर्थ निमित्त रूपसे सहायक होना है। वह दो प्रकार है-खोपकार व परोपकार। यद्यपि व्यवहार मार्गमें परोपकार की महत्ता है, पर अध्यात्म मार्गमे स्वोपकार ही अत्यन्त इष्ट है, परोपकार नहीं। १. उपकार सामान्यका लक्षण स. सि. ५/१७/२८२/२ उपक्रियत इत्युपकार. । क पुनरसी। गत्युपग्रहः स्थित्युपग्रहश्च । -उपकारकी व्युत्पत्ति 'उपक्रियते' है। प्रश्न-यह उपकार क्या है । उत्तर-(धर्म द्रव्यका) गति उपग्रह और (अधर्म द्रव्यका) स्थिति उपग्रह, यही उपकार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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