SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 413
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ उदय ३९८७ उदय उदीरणा व बन्धकी सयोगी स्थान प्ररूपणाएँ ८ प्रकृति स्थिति आदि उदयोंकी अपेक्षा ओघ आदेश प्ररूपणाओंकी सूचीध १५/२८८ प्रकृति उदयका नानाजीवापेक्षा भग त्रिचय, सन्निकर्ष व स्वामित्वादि। घ. १५/२८६ मूल प्रकृतियोकी स्थिति के उदयका प्रमाण । ध१५/२६२ मूल प्रकृतियोके स्थिति उदयका नानाजीषापेक्षया भगविचय ध १५/२६३ उपरोक्ताका नाना जीवापेक्षा सन्निकर्ष । ध १५/२६४ उत्तर प्रकृतियोके स्थिति उदयका प्रमाण । ध. १५/२६५ उपरोक्तका नाना जीवापेक्षा भग विचय । ध. १५/३०६ उपरोक्तका नाना जीवापेक्षा सन्निकर्ष । ७ उदय उदीरणा व बन्धकी संयोगी स्थान प्ररूपणाएँ १ उदयव्युच्छित्तिके पश्चात् पूर्व व युगपत् बन्ध व्युच्छित्ति योग्य प्रकृतियाँ पं.स/प्रा ३/६७-७० देवाउ अजसकित्ती बेउव्याहार-देवजुयलाइ । पुठवं उदओ णस्सइ पच्छा अन्धा वि अहह ।६७। हस्स रइ भय दुगुछा सुहुम साहारण अपज्जत । जाइ-चउक्के थावर सव्वे व कसाय अत लोहूणा ।६८ पु वेदो मिच्छत्तं णराणुपुठवी य आयव चेव । इकतीस पयडीण जुगव मंधुदयणासो त्ति।६। एक्कासी पयडोणं णाणावरणाइयाण सेसाण । पुर्व बधो छिज्जइ पच्छा उदओ त्ति णियमेण ॥७०। -देवायु, अयश कीर्ति, वैक्रियक्युगल (अर्थात वैक्रियक शरीर व अंगोपॉग), आहारक्युगल और देवयुगल (गति व आनुपूर्वी), इन आठ प्रकृतियोका पहिले उदय नष्ट होता है, पीछे बन्धव्युच्छित्ति होती है ।६हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, सूक्ष्म, साधारण, अपर्याप्त, एकेन्द्रियादि चार जातियाँ, स्थावर, अन्तिम स ज्वलनलोभके बिना सभी कषाय (१५), पुरुषवेद,मिथ्यात्व, मनुष्यगत्यानुपूर्वी और आतप इन इकतीस प्रकृतियोके बन्ध और उदयका नाश एक साथ होता है । ६८-६६। शेष बची ज्ञानावरणादि कर्मोकी इक्यासी प्रकृतियोकी नियमसे पहिले बन्ध व्युच्छित्ति होती है और पीछे उदयव्युच्छित्ति होती है। (ज्ञानावरण ५, दर्शनावरण ६, वेदनीय २, सज्वलन लोभ, नपुसकवेद, अरति, शोक, नरक-तिर्यकमनुष्यायु ३. नरक तिर्यक-मनुष्य गति ३, पचेन्द्रिय जाति, औदारिक-तेजस-कार्माण शरीर ३, औदारिक अगोपाग, (छ) सहनन ६, (छ) सस्थान ६, वर्ण-रस-गन्ध-स्पर्श ४, नरक तिर्यगानुपूर्वी २, अगुरुल घु-उपघात-परधात-उद्योत ४, उच्छवास, विहायोगतिद्विक (प्रशस्त व अप्रशस्त) २. त्रस-बादरप्रत्यक-पर्याप्त ४, स्थिर-अस्थिर २, शुभ-अशुभ २, सुभग-दुर्भग २, सुस्वर-दुःस्वर २, आदेय-अनादेय २, यश कीति, निर्माण, तीर्थकर, नीच व उच्च गोत्र २ अन्तराय ५-८१] (ध ८/३,५/७-६/११-१२), (गो क /मू व टी ४००-४०१/५६५), (१ स स . ३/८०-८७), (विशेष दे दोनोको व्युच्छित्ति विषयक सारिणियाँ)। २ स्वोदय परोदय व उभयबन्धी प्रकृतियाँ पं. स /प्रा ३/७१-७३ तित्थयराहारदुअ वेउ व्विय छक्क णिरय देवाऊ। एयारह पयडीओ बज्झति परस्स उदयाहि ७१। णाणतरायदसयं दसणचउ तेय कम्म णिमिण च । थिरसुहजुयले य तहा वण्णचउं अगुरु मिच्छत्त १७२। सत्ताहियवीसाए पयडीणं सोदया दू बंधो त्ति। सपरोदया दु बधो हवेज वासी दि सेसाण | तीर्थकर, आहारकद्विक, वैक्रियकषट्क, नरकायु और देवायु- ये ग्यारह परके उदयमें बंधती है ।७१। ज्ञानावरणकी पॉच, अन्तराय पाँच, दर्शनावरणकी चक्षुवर्शनावरणादि चार, तेजस शरीर, कार्माणशरीर, निर्माण, स्थिरयुगल, शुभयुगल, तथा वर्ण चतुष्क, अगुरुलधु और मिथ्यात्व; इन सत्ताईस प्रकृतियो का स्वोदयसे बन्ध होता है ।७२। शेष रही ८२ प्रकृतियोका बन्ध स्वोदयसे भी होता है परोदयसे भी होता है ।७३) दर्शनावरणीयकी पाँच निद्रा १, वेदनीय २: चारित्र मोहनीय २५, तिर्यग्मनुष्यायु २; तिर्यक्मनुष्यगति २; जाति ५, औदारिक शरीर व अंगोपाग २, सहनन ६, सस्थान ६. तिर्यकमनुष्य आनुपूर्वी २, उपघात, परघात, आतप, उद्योत, उच्छ्वास, विहायोतिद्विक २: बादर-सूक्ष्म २, पर्याप्त-अपर्याप्त २, प्रत्येक-साधारण २, सुभग-दुर्भग २; सुस्वर-दु स्वर २, आदेय-अनादेय २, यश-अयश २, ऊँच-नीच गोत्र २, बस-स्थावर २, =५२ (विशेष देखो उनकी व्युच्छित्ति विषयक सारणियाँ) । (ध.८/३,५/११-१३/१४-१५), (गो.क./मू. व टो ४०२-४०३/५६६-५६७), (प. स /स. ३/८८-९०) ३ किन्हीं प्रकृतियोंके बन्ध व उदयमें अविनाभावी सामानाधिकरण्य ध ६/१,६-२, २२/३ मिच्छस्सण्णस्थ बधाभावा । तं पि कुदो। अणत्थ मिच्छत्तोदयाभावा । ण च कारणेण विणा कज्जस्मुप्पत्ती अत्थि, अइप्पसंगादो । तम्हा मिच्छादिहि चेव सामी होदी। -मिथ्यात्व प्रकृतिका मिथ्याष्टिके सिवाय अन्यत्र बन्ध नही होता है। और इसका भी कारण यह है कि अन्यत्र मिथ्यात्व प्रकतिका उदय नहीं होता है, तथा कारणके बिना कार्यकी उत्पत्ति नही होती है । यदि ऐसा माना जाये तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त होता है। घ ६/१,६-२,६१/१०२/णिरयगदीए सह एइदिय-बेइदिय-तेइ दियचउरिदियजादोआ किण्ण बज्झतिण णिरयगइबधेण सह एदासि बधाणं उत्तिविरोहादो। एदेसि सताणमकमेण एयजीवम्हि उत्तिदसणादोण विरोहो त्ति चे, होदु सत पडि विरोहाभाबो इच्छिज्जमाणत्तादो । ण बधेण अविरोहो, तधोवदेसाभावा। ण च सतम्मि विरोहाभावदट्ठूण बम्हि वि तदभावो बोत्तु सक्विज्जड बधसताणमेयत्ताभावा। तदो णिरयगदीए जासिमुदओ णत्थि. एर तेण तासि बधो णत्थि चेव । जासि पुण उदओ अस्थि, तासि णिग्यगदीए सह केसि पि बंधो हो दि,केसि पिण होदि त्ति घेत्तव्यं । एव अण्णासि पि णिरयगदीए बधेण विरुद्धबधपयडीणं परूवणा कादया। - प्रश्न- नरकगतिके साथ एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय जाति नामवाली प्रकृतियाँ क्यो नही बंधती है । उत्तर-- नही, क्योकि, नरकगतिके बन्धके साथ इन द्वीन्द्रियजाति आदि प्रकृतियोके बँधनेका विरोध है। प्रश्न-इन प्रकृतियोके सत्वका एक साथ एक जीवमें अवस्थान देखा जाता है, इसलिए बन्धका विरोध नहीं होना चाहिए। उत्तर-सत्त्वको अपेक्षा उक्त प्रकृतियोके एक साथ रहनेका विरोध भले ही न हो, क्योकि, वैसा माना गया है । किन्तु बन्धकी अपेक्षा उन प्रकृतियोके एक साथ रहने में विरोधका अभाव नही है। अर्थात विरोध ही है, क्योकि, उस प्रकारका उपदेश नहीं पाया जाता है। और सत्त्वमें विरोधका अभाव देखकर अन्धमें भी उसका अभाव नहीं कहा जा सकता है, क्योकि, बन्ध व सत्त्वमें एक्त्वका विरोध है। इसलिए नरकगतिके साथ जिन प्रकृतियोका उदय नही है, एकान्तसे उनका मन्ध नहीं ही होता है। किन्तु जिन प्रकृतियोका एक साथ उदय होता है, उनका नरकगतिके साथ कितनी ही प्रकृतियोका बन्ध होता है और कितनी ही प्रकृतियोंका नही होता है, ऐसा अर्थ ग्रहण करना चाहिए। इसी प्रकार अन्य भी नरक्गति (प्रकृति) के बन्धके साथ विरुद्ध पड़नेवाली बन्ध प्रकृतियोकी प्ररूपणा करनी चाहिए। घ. ११/४,२,६ १६५/३१०/६ सयमूलपयडीण सग-सग-उदयादो समुप्पण्ण परिणामाणं सग-सगढिदिखधकारणतण हिदिबंधझवसाणट्ठाणसण्णिदाण। एस्थ गहण कायव्यं, अण्णहा उत्तदोसप्पस गादो। सब मूल प्रकृतियों के अपने-अपने उदयसे जो परिणाम उत्पन्न होते है उनकी ही अपनी-अपनी स्थितिके बन्धमें कारण होनेसे स्थितिबन्धाध्यवसायस्थान संज्ञा है, उनका ही ग्रहण यहाँ करना चाहिए, क्योकि, अन्यथा पुनरुक्त दोषका प्रसग आता है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy