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________________ उदय ३७५६. कर्म प्रकृतियोंकी उदय व उदयस्थान प्ररूपणाएँ प्रन' संकेत अर्थ संकेत अर्थ उ.योग्य अनदय पुन उद 'कुल उद तिस मनु । - । ब्युच्छिन्न प्रकृतियाँ अनदया स्थान | उदय ४ । अप्र चतु., वैक्रि. द्वि., ।। | चारों । नरक त्रि, देव त्रि.,मनु- आनुपूर्वी निर्या-आनु ,दुर्भग,अनादेय, अयश -१७ प्रचतु , तिरू आयु, नीच | गोत्र,तियाँ गति, उद्यात ८ | आहारक द्विक, स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा,प्रचलाप्रचला सम्यक्त्व मोहनीय, अर्ध नाराच, कीलित, सृपाटिका हास्य, रति, भय, जुगुप्सा आहारक । दिश ८/अंत २ उदय योग्य पाँच काल | तिर्यञ्च वि ग. विग्रह गति काल मनुष्य मिश मिश्र शरीर काल प पर्याप्त (आहार ग्रहण करनेसे अपर्याप्त शरीर पर्याप्ति की मूक्ष्म पूर्णता तक) बा, बादर शप शरीर पर्याप्ति काल न अप लब्ध्यपर्याप्त (शरीर पर्याप्तिके पश्चात् नि. अप निवृत्त्यपर्याप्त आनपान पर्याप्तिकी | ४ सारणीके शीर्षक पूर्णता तक) आप आनपान पर्याप्ति काल | अनुदय उस स्थानमें इन प्रकृ(आनपान पर्याप्तिके तियोका उदय सम्भव पश्चात् भाषा पर्याप्ति नहीं। आगे जाकर को पूर्णता तक) सम्भव है। भा प भाषा पर्याप्ति काल | पुन उदय पहले जिसका अनुदय (पूर्ण पर्याप्त होने के था उन प्रकृतियोका पश्चात आयुके अन्त यहाँ उदय हो गया है तक) व्युच्छिनि इस स्थान तक तो इन ३. मार्गणा सम्बन्धी प्रकृतियोका उदय है पंचे. पंचेन्द्रिय पर अगले स्थानोमें सा. सामान्य सम्भब नहीं २ उदय व्युच्छित्तिकी ओघ प्ररूपणा नोट- उदय योग्यमे-से अनुदय घटाकर पुन उदयको प्रकृतियाँ जो डने. पर उस स्थानकी कुल प्रकृतियाँ प्राप्त होती है । इनमें-से व्युच्छित्ति की प्रकृतियाँ घटानेपर अगले स्थानकी उदय योग्य प्राप्त होती है। १. कुल उदय योग्य प्रकृतियाँ -वर्ण पाँच, गन्ध दो, रस पाँच ओर स्श आठ इन २० प्रकृति योमे-मे अन्यतमका ही उदय होना सम्भव है, तात केवल मूल प्रकृतियोका ही ग्रहण है, शेष १६ का नही। तथा बन्धन पाँच और सघात पाँच इन दस प्रकृतियोका भी स्व-स्व शरीर में अन्तर्भाव हो जानेसे इन १० का भी ग्रहण नहीं। इस प्रकार २६ रहित१२२प्रकृतियाँ उदय योग्य है-१४८-२६-१२२॥ (प.स./प्रा.२/७) प्रमाण-(पं.सं /प्रा. /२७-४३), (रा.वा. ६/३६/८/६३०), (ध.८/३.५/६), (गो के जो प्र २६३-२७७/३६५-४०६) ६/६ ह | १२/२ अरति, शोक -२ (मवेद भाग)तीनो वेद-३ क्रोध मान माया लोभ (बादर) लोभ । सूक्ष्म) वज्र नाराच, नाराच -२ (द्विचरम समय) निद्रा, प्रचला (चरम समय) ज्ञानावरण, ४ दर्शनावरण, ५ अन्तराय (नाना जीवापेक्षया)वज्र वृषभ नाराच, निर्माण, स्थिर-अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वरदु स्वर, प्रशस्त-अप्रशस्त विहायो., औदा. द्वि, तैजस-कार्माण,६ सस्थान, वर्णादि चतु, अगुरुलघु, उपधात, परघात, उच्छवास, प्रत्येक शरीर -२६ | (एक जीवापेक्षा) उपरोक्त २६ + अन्यतम वेदनीय | पुन उ.योग्य अनुदय पुन उद] कुल उद। स्थान | व्युच्छिन्न प्रकृतियाँ उदय तीर्थकर ४१ " आतप, सूक्ष्म, अपर्याप्त, तीर्थ, । साधारण, मिथ्यात्व -५ आ द्वि मिश्र , सम्य । तीर्थकर ४१ १ ४२ २ १-४ इन्द्रिय, स्थावर, नरकानुअनन्तानुबन्धी चतु. -६ पूर्वी । मिश्र मोहनीय -१: मन, श्रिमोह १०२ ३ १ १०० ति..देव (नाना जीवापेक्षया)निम्न १२+१ वेदनीय =१३ (एक जीवापेक्षया) शेष अन्यतम एक वेदनीय, मनु गति व आयु, पंचेन्द्रिय जाति, सभग,त्रस, बादर, पर्याप्त, आदेय, यश कीर्ति, तीर्थकर, उच्च गोत्र आनुपूर्वी जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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