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________________ उत्पादव्ययध्रौव्य २. उत्पादादिक तीनोंका समन्वय स.म २१/२६५/१५ ननुत्पादादय परस्पर भिद्यन्ते न बा। यदि भिद्यन्ते कथमेक वस्तुवयात्मकम् । न भिद्यन्ते चेत् तथापि कथमेक त्रयात्मकम्। उत्वादविनाशधौव्याणि स्याइ भिन्नानि, भिन्नलक्षणत्वाद रूपादिवदिति। नच भिन्न न झणत्वमसिद्धम् । न चामी भिन्न लक्षणा अपि परस्परानपेया खपुष्पवदसत्त्वापत्ते । तथाहि । उत्पाद केवलो नास्ति। स्थितिविगमरहितत्वात कूर्म रोमबत्। तथा विनाश केवलो नास्ति स्थित्युत्पत्तिरहितत्वात तद्वत् । एवं स्थिति केवला नास्ति निनाशोत्पाटशून्यत्वात तद्वदेव । इत्यन्योन्यायेक्षाणामुत्पादादीना वस्तुनि सत्त्व प्रतिपत्तव्यम् । तथा चोक्तम्--"घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पादस्थितिध्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थं जनो याति सहेतुकम् ।१। पयोवतो न दध्यत्ति न पयोऽत्ति दधिवत । अगोरसबतो नोभे तस्माद वस्तुत्रयात्मकम् ।२। प्रश्न-उत्पाद, व्यय और धौव्य परस्पर भिन्न है या अभिन्न 1 यदि उत्पादादि परस्पर भिन्न है तो वस्तुका स्वरूप उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप नहीं कहा जा सक्ता । यदि वे परस्पर अभिन्न है तो उत्पादादिमें से किसी एकको हो स्वीकार करना चाहिए। उत्तर-यह ठीक नही है क्योकि हम लोग उत्पाद,व्यय और धौव्यमे कचिव भेद मानते है अतएव उत्पाद व्यय ओर धौव्यका लक्षण भिन्न-भिन्न है, इसलिए रूपादिकी तरह उत्पाद व्यय धौव्यभी क्थ चित भिन्न है। उत्पाद आदिका भिन्न लक्षणपना असिद्ध भी नही है। उत्पाद आदि परस्पर भिन्न होकर भी एक दूसरे से निरपेक्ष नहीं है क्योकि, ऐसा माननेसे उनका आकाशपुष्पकी तरह अभाव मानना पडेगा। अतएव जैसे कछुवेकी पीठपर बालोके नाश और स्थितिके बिना, बालोका केवल उत्पाद होना सम्भव नही है, उसी तरह व्यय और प्रौव्यसे रहित केवल उत्पाद का होना नहीं बन सकता। इसी प्रकार उत्पाद और धौव्यसे रहित केवल व्यय, तथा उत्पाद और नाशसे रहित केवल स्थिति भी संभव नहीं है। अतएव एक दूसरे की अपेक्षा रखनेवाले उत्पाद, व्यय और धौव्यरूप वस्तुका लक्षण स्वीकार करना चाहिए । समन्तभद्राचार्यने कहा भी है--(आप्त मी ५६६०)।"घडे, मुकुट और सोनेके चाहने वाले पुरुष (सोनेके) घडेके नाश, मुकुटके उत्पाद और सोनेकी स्थिति में क्रमसे शोक, हर्ष और माध्यस्थ भाव रखते है। दूधका व्रत लेने वाला पुरुष दही नहीं खाता, दहीका नियम लेनेवाला पुरुष दूध नही पीता और गोरसका व्रत लेनेवाला पुरुष दूध और दही दोनो नहीं खाता । इसलिए प्रत्येक वस्तु उत्पाद व्यय और धौव्यरूप है। (प्र. सात प्र १००) घ्या. दो ३/७४/१२३/५ तस्माज्जोवद्रव्यरूपेणाभेदो मनुष्यदेवपर्यायरूपेण भेद इति प्रतिनियतनय विस्तारविरोधौ भेदाभेदौ प्रामाणिकावेव । - जीवद्रव्य की अपेक्षासे अभेद है और मनुष्य नथा देव पर्यायो की अपेक्षासे भेद है। इस प्रकार भिन्न-भिन्न नयोकी दृष्टिसे भेद और अभेद के माननेमे कोई विरोध नही है दोनो प्रामाणिक है।। प.ध/पू २१७ अगमर्थो यदि भेद स्यादुन्मज्जति तदा हि तव त्रितयम् अपि तत् त्रितय निमज्जति यदा निमज्जति स मूलतो भेद ।२१७४ -४ साराश यह है कि जिस समय भेद विवक्षित होता है उस समय निश्चयसे वे उत्पादादिक तीनो प्रतीत होने लगते है, और जिस समय वह भेद मल से हो विवक्षित नहीं किया जाता उस समय वे तीनो भी प्रतीत नहीं होते है। ६. उत्पादादिक में समय भेद नहीं है आप्त मो ५६ घटमौलिसुवर्णार्थी नाशोत्पाद स्थितिष्वयम् । शोकप्रमोदमाध्यस्थ्य जनो याति सहेतुकम् ।५। -स्वर्ण कलश, स्वर्ण माला तथा इनके श्री पुरुष घटक तोड माला करने में युगपत् शोक, प्रमोद व माध्यस्थताको प्राप्त होते है। सो यह सब सहेतुक है । क्योकि घट के नाश तथा मालाके उत्पाद व स्वर्ण की स्थिति इन तीनो बातोका एक हो काल है। ध.४/१.५,४/३३५/६ सम्मत्तगहिदपढमसमए णडो मिच्छत्तपज्जाओ। कधमुप्पत्तिविणासाणमेक्को समओ। ण एक्कम्हि समए पिडागारेण विण?धडाकारेणुप्पण्णमिट्टियदव्वस्सुवलंभा। = सम्यक्त्व ग्रहण करने के प्रथम समयमे ही मिथ्यात्व पर्याय विनष्ट हो जाती है । प्रश्न-- सम्यक्त्वकी उत्पत्ति और मिथ्यात्वका नाश इन दोनो विभिन्न कार्योंका रक समय कैसे हो सकता है। उत्तर--नही क्योकि, जैसे एक ही समय में पिण्डरूप आकारसे विनष्ट हुआ घटरूप आकारसे उत्पन्न हुआ मृत्तिका रूप द्रव्य पाया जाता है। प्र सात प्र १०२ यो हि नाम वस्तुनो जन्मक्षण स जन्मनैव व्याप्तत्वात स्थितिक्षणो नाशक्षणश्च न भवति । यश्च स्थितिक्षण स खलूभयोरन्तरालदुर्ललितत्वाज्जन्मक्षणो नाशक्षणश्च न भवति। यश्च नाशक्षण स तूत्पद्यवस्थाय च नश्यतो जन्मक्षण स्थितिक्षणश्च न भवति । इत्युपपादादोनो वितळमाण क्षणभेदोहृदयभूमिमवतरति । अवतरत्येव यदि द्रव्यमात्मनैवोत्पद्यते आत्मनै वावतिष्ठते आत्मनै व नश्यतीत्यभ्यु गम्यते । तत्तु नाभ्युपगमात् । पर्यायामेवोत्पादादय कुत क्षण भेद । -प्रश्न--वस्तुका जो जन्मक्षण है वह जन्मसे ही व्याप्त होनेसे स्थितिक्षण और नाशक्षण नहीं है, जो स्थितिक्षण है वह दोनो (उत्पादक्षण और नाशक्षण) के अन्तरालमे दृढतया रहता है इसीलिए (वह) जन्मक्षण और नाशक्षण नहीं है, और जो नाशक्षण है वह वस्तु उत्पन्न होकर और स्थिर रहकर फिर नाशको प्राप्त होती है, इसलिए, जन्मक्षण और स्थितिक्षण नहीं है। इस प्रकार तर्कपूर्वक विचार करनेपर उत्पादादिका क्षणभेद हृदयभूमिमें अवतरित होता है ? उत्तर-यह क्षणभेद हृदयभूमिमें तभी उतर सकता है जब यह माना जाय कि 'द्रव्य स्वय ही उत्पन्न होता है, स्वय ही धब रहता है और स्वय ही नाशको प्राप्त होता है। किन्तु ऐसा तो माना नहीं गया है। (क्योकि यह सिद्ध कर दिया गया है कि) पर्यायोके ही उत्पादादिक है। (तब फिर) वहाँ क्षणभेद कहाँसे हो सकता है। गो. जी /म.प्र. ८३/२०५/७ परमार्थतः विग्रहगतौ प्रथमसमये उत्तरभवप्रथमपर्यायप्रादुर्भावो जन्म । पूर्वपर्याय विनाशोत्तरपर्यायप्रादुर्भाव योरङ्गुलि ऋजुत्वविनाशस्त्रक्रत्वोत्पादवदेवकालत्वात्। - परमार्थ से विग्रहगतिके प्रथम समय में ही उत्तर भवकी प्रथम पर्यायके प्रादुर्भावरूप जन्म हो जाता है। क्यो कि, जिस प्रकार अगुलोको टेढी करनेपर उसके सीधेपनका विनाश तथा टेढेपनका उत्पाद एक ही समयमै दिखाई देता है, उसी प्रकार पूर्व पर्यायका विनाश और उत्तर पर्यायका प्रादुर्भाव इन दोनोका भी एक ही काल है। पंध/पू २३३-२३६ एव च क्षणभेद स्याद्बीजाइकुरपादपत्ववत्त्विति चेत् ॥२३३। तन्न यत क्षणभेदो न स्यादेकसमयमा तत् । उत्पादादित्रयमपि हेतो सदृष्टितोऽपि सिद्धत्वाव ।२३४। अपि चाड कुरसृष्टेरिह य एष समय स बीजनाशस्य। उभयोरप्यात्मत्वाव स एव कालश्च पादपत्वस्य ।२३६। प्रश्न-बीज अकुर और वृक्षपनेकी भॉति सव की उत्पादादिक तीनो अवस्थाओ मे क्षणभेद होता है ।२३३। 1 उत्तरऐमा कहना ठीक नहीं है, क्यो कि तीनोमे क्षणभेद नहीं है। परन्तु हेतुसे तथा साधक दृष्टान्तोसे भी सिद्ध होनेके कारण ये उत्पादादिक तीनो केवल एक समयवर्ती है ।२३४। वह इस प्रकार कि जिस समय अकुर की उत्पत्ति होती है, उसी समय बीजका नाश होता है और दोनोमे वृक्षत्व पाया जानेके कारण वृक्षरवका भी बही काल है ।२३।। ७ उत्पादादिकमें समयके भेदाभेद विषयक समन्वय घ १२/४ २,१३.२५४/४५७/६ सुमसापराइयचरिय समए वेयणोयरस उकास्साणुभागबधो जादो । ण च सुहमसर्मपराइए मोहणीयभावो णस्थि,भावेण विणा दव्य क्म्मरस अस्थित्त बरोहादो समसापरायसण्णाणुनबत्तीदो बा। तम्हा मोहणीयवेयणाभावविसया पत्थि त्ति ण जुज्जदे । एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा-विणासविसए दोणि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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