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________________ लावण्ययप्रय सात १५ व्यय प्रच्यवन व्यय प्रच्युति है । (अर्थात पूर्व अवस्थाका नष्ट होना) प्रीका लक्षण स.सि. ४/१०/२००७ जनादिपारिणामिकस्वभावेन व्ययोदयाभावा वति स्थिरीभवतीति ध्रुव । धवस्य भाव कर्म वा धौव्यम् । या मृतावस्थासु मृदायन्यय जो अनादिकालीन पारि मिक स्वभाव है उसका व्यय और उदय नही होता किन्तु वह "ति' अर्थात् स्थिर रहता है इसलिए उसे न कहते है। सा इस धवका भाव या कर्म धौव्य कहलाता है। जैसे मिट्टी के पिण्ड और घटादि अवस्थाओ में मिट्टीका अन्वय बना रहता है। (रा.वा./ 4/20/8/28/8) प्रसा/त.प्र. ६५ धौव्यमवस्थिति । धौव्य अवस्थिति है। पंध / पू. २०४ तद्भावाव्ययमिति वा धौव्य तत्रापि सम्यगयमर्थ । य' पूर्व परिणामो भवति स पश्चात् स एव परिणाम । तद्भावसे वस्तुका नाश न होना, यह जो धौव्यका लक्षण बताया गया है, उसका भी ठीक अर्थ यह है कि जो जो परिणाम (स्वभाव) पहिले था वह वह परिणाम हो पीछे होता रहता है। २. उत्पादादिक तीनोका समन्वय १. उत्पादादिक तीनोंसे युक्त ही वस्तु सत् है तसू ५/३० उत्पादव्ययश्रव्ययुक्त सत् ॥ ३० ॥ -जो उत्पाद, व्यय और श्रीव्य इन तीनोंसे युक्त है वह सद है (पं.का.१०) (सखा // २) (म.सा. प्र.३६) (का.अ./पू. २३७) पं. घ. / पू. ८६ वस्त्वस्ति स्वत सिद्ध ं यथा तथा तत्स्वतश्च परिणामी । तस्मादुत्पादस्थितमय तद् समेतदिह नियमादस्तु स्वतः सिद्ध है वैसे हो यह स्वत परिणमनशील भी है, इसलिए यहाँ पर यह सत् नियमसे उत्पाद व्यय और धौव्य स्वरूप है । (पं./५८६) २. तीनों एक सत्के ही अंश हैं प्र. सात प्र १०१ पर्यायास्तुत्पादयम्ययन्ते उत्पादन्ययश्रामधामांङ्कुरद्रव्यस्यो मनोरथमानावतिष्ठमानभावलक्षणाखयोऽशा प्रतिभान्ति। - - पर्याये उत्पादarrators द्वारा अवलम्बित है, क्योकि, उत्पाद-व्यय-धौथ्य अशोके धर्म है - बीज, अकुर व वृक्षत्वकी भाँति । द्रव्यके नष्ट होता हुआ भाव उत्पन्न होता हुआ भाव और अवस्थित रहनेवाला भाव, ये तीनो अश भासित होते है । पं. ध. / २०३-२२८ मत कचि पर्यायाच केवल नसत । उत्पादव्ययवदिद तच्चेकशि न सर्वदेश स्याद् ॥ २०३ ॥ सत्रानित्यनिदानं ध्वंसोत्पादद्वय सतस्तस्य नित्य निदानं ध वमिति तत् त्रय मप्यभेद स्यात् । २०६ । नतु चोत्पादध्वंसौ द्वावप्यंशात्मकोभवेत हि भव्य त्रिकालयितस्यारम २१ पुन सोहि सर्ग नेनचिदर्शक भागमात्रेण सहारो वा धौव्यवृ फलपुष्पपत्रवन्न स्यात् ॥ २२५॥ =पर्यायार्थिकनयसे 'ध्रौव्य' भी कथचित सत्का होता है, केवल सत्का नही। इसलिए उत्पादव्ययकी तरह यह धौव्य भी सत्का एक अंश है सर्वदेश नही है ॥२०३॥ उस सत्यकी अनित्यताका मूलकारण व्यय और उत्पाद है, तथा नित्यताका मूलकारण धौव्य है । इस प्रकार वे तीनो ही सत्के अशात्मक भेद है ॥ २०६ ॥ प्रश्न -- निश्चयसे उत्पाद और व्यय ये दोनो भले अशस्वरूप होवे, किन्तु त्रिकालगोचर जो धौव्य है, वह कैसे अशात्मक होगा ? ॥२१८॥ उत्तर-यह कहना ठीक नहीं है, क्योंकि ये तीनो अश अर्थासरोकी तरह अनेक नहीं है ||२१|| बल्कि ये तीनो एक सत्के हो अंश है ॥२२४॥ वृक्ष फल फूल तथा पत्तेकी तरह किसी अशरूप एक भागसे सत्का उत्पाद अथवा व्यय और धौव्य होते हो, ऐसा Jain Education International २. उत्पादादिक तीनोंका समन्वय भी नही है ॥२२५॥ वास्तवमे वे उत्पाटिक न स्वतन्त्र अंशो के होते है और न केवल अंशो के | बल्कि अंशोसे युक्त अशोंके होते है ॥२२८ ॥ ३. वस्तु सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य नहीं है । सस्तो २४ नसा नित्यमुदेष्यति न च क्रियाकारकमंत्र मुक्तम् । नेवासो जन्म तो न नाशो, दीपस्तम गलभावोऽस्ति ॥२४ = यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उत्पाद व अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती और न उसमें क्रिया कारककी ही योजना बन सकती है । जो सर्वथा असत है उसका कभी जन्म नही होता और जो सत् है उसका कभी नाश नही होता। दोपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किन्तु उस समय अन्धकाररूप इगतपर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है । आ मो ३७,४१ नित्यैकान्तपक्षेऽपिविक्रिया नोपपद्यते। प्रागेव कारकाभाव क प्रमाणं व तत्फलम् ॥३७॥ क्षणिकैकान्तपक्षेऽपि प्रेत्यभावाद्यस भव । प्रत्यभिज्ञानाद्यभावान्न कार्यारम्भ कुत फलम् ॥ ४१ ॥ - नित्य एकान्त पक्ष पूर्व अवस्थाके परित्याग रूप और उत्तर अवस्थाके ग्रहण रूप विक्रिया घटित नहीं होती. अत कार्योत्पत्तिके पूर्व में ही कर्ता आदि कारकोका अभाव रहेगा। और जब कारक ही न रहेगे तब भला फिर प्रमाण और उसके फलकी सम्भावना कैसे की जा सकती है अर्थात् उनका भी अभाव ही रहेगा ॥ ३७॥ क्षणिक एकान्त पक्षमे भी प्रेत्यभावादि अर्थात् परलोक, बन्ध, मोक्ष आदि असम्भव हो जायेगे 1 और प्रत्यभिज्ञान व स्मरणज्ञान कार्यका प्रारम्भ हो सम्भव न हो सकेगा। तब कार्यके आरम्भ बिना पुण्य पाप व सुखदुख आदि फल काहे से होगे ॥ ४१ ॥ 1 1 = पका / प्र.८/१६/७ न सर्वथा नित्यतया सर्वथा क्षणिकतया वा विद्यमानमात्र वस्तु । सर्वथा नित्यत्वस्तुनस्तत्त्वत क्रमभुवा भावानामभावात विकार सर्वथा क्षणिस्य च प्रभ ज्ञानाभावात् कुल एक सानत्वम् तत प्रत्यभिज्ञानहेतुन चित्स्वरूपेण धौव्यमालम्व्यमान काभ्या चित्क्रमप्रवृत्ताभ्या स्वरूपा म्या यमानमुपजायमान चेककालमेव परमार्थ तम्रियमवस्था विभ्राण वस्तु सदवबोध्यम् । विद्यमानमात्र वस्तु न तो सर्वथा नित्यरूप होती है और न सर्वथा क्षणिक्रूप होती है। सर्वथा निष्य वस्तुको वास्तव मे क्रमभावी भावोका अभाव होनेसे विकार (परिणाम) कहाँसे होगा ' और सर्वथा क्षणिक वस्तुमें वास्तव मे प्रत्यभिज्ञानका अभाव होनेसे एक प्रवाहपना कहाँसे रहेगा इसलिए प्रत्यभिज्ञानके हेतुभूत किसी स्वरूपमे ध व रहती हुई और वर्ती स्वरूपोंसे नष्ट होती हुई तथा उत्पन्न हाती हुई इस प्रकार परमार्थत एक ही कालमें त्रिगुणी अवस्थाको धारण करती हुई वस्तु किन्ही दा क्रम - सत जानना । ३५८ ४. कथंचित् नित्यता व अनित्यता तथा समन्वय सू५/३२ तापितास [१२] मुख्यता और अपेक्षा एक वस्तु विरोधी माथुम पहनेवाले दा धर्मो सिद्धि होती है। द्रव्य भी सामान्यकी अपेक्षा निश्व है और विशेषकी अपेक्षा अनिष्य है। प का / मू ५४ एव सदो विणासो असदो जीवस्स हाइ उप्पादा। हदि जिणवरेहि भणिद अण्णाणविरुद्धम् विरुद्धम् ५४ (१ का प्र.५४) द्रव्याशिकनयोपदेशेन नानादुत्पाद तस्यैव पर्याया थिनयादेशेन सत्प्रणाशो शदुत्पादश्च । इस प्रकार जीवको सत्का विनाश और असत्का उत्पाद होता है, ऐसा जिनवराने कहा है, जो कि अन्योन्य विरुद्ध तथापि अविरुद्ध है १५४| क्योकि जीवको द्रव्यार्थिकनय के कथन से सदका नाश नही है और असत्वा उत्पाद नही है तथा उसको पर्यायार्थिकनय के कथनसे स्तुका नाश है और असतका उत्पाद भी है। • आप्त, मी ५७ न सामान्यात्मनोदेति न व्येति व्यक्तमन्वयात् ॥५७ = वस्तु सामान्यकी अपेक्षा तो न उत्पन्न है और न विनष्ट, क्योकि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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