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________________ उत्तमार्थकाल उत्पादव्ययध्रौव्य उत्तमार्थकाल-दे काल १। उत्तर-१ चय अर्थात Com n on difference (विशेष दे गणित II/२/३), २ दक्षिण घृतवर द्वीपका रक्षक देव-दे व्यतर ४ । उत्तर कुमार-(पा. पु सर्ग श्लो) राजा विराटका पुत्र था (१८/४२) इसके पिताके कौरवो द्वारा बाँध लिये जाने पर अर्जुनने इसका सारथी बनकर कौरवोसे युद्ध किया (१८/६१) फिर कृष्ण जरासन्ध युद्धमे राजा शल्य द्वारा मारा गया (१९/१८३)। उत्तरकुरु-१ विदेह क्षेत्रमें स्थित उत्तम भोगभूमि है। इसके उत्तर में नील पर्वत, दक्षिण में सुमेरु, पूर्व में माल्यवान गजदन्त और पश्चिममें गन्धमादन गजदन्त पर्वत स्थित है-दे. लोक ३/१२ । २. उत्तरकुरु सम्बन्धी कुछ विशेषताएँ-- दे. भूमि ५ (ज.प/प्र १४०/AN. Up & H L Jain) दूसरी सदी के प्रसिद्ध इतिहासज्ञ 'टालमी के अनुसार उत्तर कुरु' पामीर देशमें अवस्थित है । ऐतरेय ब्राह्मणके अनुसार यह हिमवानके परे है। इण्डियन ऐंटिक्वेरी १६१६ पृ ६५ के अनुसार यह शको और हूणोंके सीमान्त थियानसान पर्वतके नले था। वायुपुराण ४५-५८ के अनुसार 'उत्तराणा कुरूणा तु पार्ने ज्ञय तु दक्षिणे। समु मूमिमाल ढय नानास्वरविभूषितम् ।" इस श्लोकके अनुसार उत्तरकुरु पश्चिम तुर्किस्तान ठहरता है, क्योंकि, उसका समुद्र 'अरलसागर' जो प्राचीनकालमे कैप्सियनसे मिला हुआ था. वस्तुत प्रकृत प्रदेश के दाहिने पाश्वमे पडता है। श्री राय कृष्णदासके अनुसार यह देश थियासानके अचलमें बसा हुआ है। उत्तरकुरु कूट-गन्धमादन पर्वतपर स्थित एक कूट। माल्यवान गजदन्तपर स्थित एक कूट व उसका स्वामी देव-दे लोक ५/४। उत्तरकुरुद्रह-उत्तरकुरुमें स्थित १० द्रहो में-से दोका नाम उत्तर कुरु है-दे लोक ५/६। उत्तरगुण-भ आ /वि. ११६/२७७/८ प्रगृहीतसयमस्य सामायिकादिक अनशनादिकं च वर्तते इति उत्तरगुणरव सामायिकादेस्तपसश्च । -जिसने संयम धारण किया है, उसको सामायिकादिक, और अनशनादिक भी रहते है। अत सामायिकादिको और तपको उत्तरगुणपना है। * साधु व श्रावकके उत्तर गण-दे. साधु २ तथा श्रावक ५ । उत्तरचरहेतु-दे हेतु। -कायोत्सर्गका एक अतिचार-दे.व्युत्सर्ग १। उत्तरदिशा- उत्तर दिशाकी प्रधानता -दे दिशा उत्तरधन-चयधन-दे. गणित //३। उत्तरपुराण-१. आचार्य जिनसेन (ई ८१८-८७८) के 'आदिपुराण' की पूर्ति के अर्थ उनके शिष्य आचार्य गुणभद्र (ई ८६८) ने इसे लिखा था। इसमें भगवान ऋषभदेवके अतिरिक्त शेष २३ तीर्थंकरोंका वर्णन है। वास्तव में आचार्य गुणभद्र भी स्वयं इसे पूरा नहीं कर पाये थे। अत: इस ग्रन्थ के अन्तिम कुछ पद्य उनके भी शिष्य लोकचन्द्र ने ई. ८६८ में पूरे किये थे। इस ग्रन्थ में २६ पर्व है तथा ८००० श्लोक प्रमाण है। (ती ३/६) २ आचार्य सकल कीति (ई. १४०६-१४४२) द्वारा रचित दूसरा उत्तर पुराण है । (ती. ३/३३३) उत्तरप्रतिपत्ति-ध ॥१,६,२७/३२/8 उत्तरमणुज्जुवं आइरियपरंपराएणागदमिदि एयट्ठो। - उत्तर, अनृजु और आचार्य परम्परासे अनागत ये तीनो एकार्थवाची है। ध.१/प्र. ५७(H. L.Jain) आगममें आचार्य परम्परागत उपदेशोंसे बाहरको जिन श्रुतियोका उल्लेख मिलता है वह अनृजु होनेके कारणसे उत्तर प्रतिपत्ति कही गयी है। धवलाकार श्री वीरसेन स्वामी इसको प्रधानता नहीं देते थे। (ध /३ प्र. १५ H L.Jain) उत्तरमीमांसा दे 'दर्शन'। उत्तराध्ययन-द्वादशाग श्रुतज्ञानका स्वॉ अगबाह्य-दे श्रुत ज्ञान IIII उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र-दे. नक्षत्र । उत्तराभाद्रपद नक्षत्र-दे नक्षत्र , उत्तराषाढ़ नक्षत्र-दे. नक्षत्र । उत्तरित-कायोत्सर्ग का एक अतिचार-दे व्युत्सर्ग १ । उत्तरोत्तर-(धप्र.२७) गणितप्रकरण में sueeessive उत्पत्ति-जीवों की उत्पत्ति-दे जन्म । उत्पन्नस्थानसत्त्व-दे सत्त्व १. उत्पल-पद्म ह्रदमें स्थित एक कूट-दे लोक ५/७ । उत्पला-सुमेरु पर्वतके नन्दन आदि तीन वनो में स्थित पुष्करिणी दे लोक ५/६। उत्पलोज्ज्वला-सुमेरु पर्वतके नन्दनादि तीनों बनों में स्थित पुष्करिणी-दे. लोक /६। उत्पात-एक ग्रह-दे ग्रह । उत्पातिनी-एक औषधि विद्या-दे विद्या। उत्पादन-१ आह रका एक दोष---दे. आहार II/४/१,४,२ वस्ति काका एक दोष--दे बस्तिका। उत्पादनोच्छेद-दे व्युच्छित्ति। उत्पादपूर्व-श्रुतज्ञानका प्रथम पूर्व दे. श्रुतज्ञान III उत्पादलब्धिस्थान-दे लब्धि। उत्पादव्ययध्रौव्य-सत् यद्यपि त्रिकाल नित्य है, परन्तु उसमें बराबर परिणमन होते रहनेके कारण उसमे नित्य ही किसी एक अवस्थाका उत्पाद तथा किसी पूर्वबाली अन्य अवस्थाका व्यय होता रहता है इसलिए पदार्थ नित्य होते हुए भो कथ चित् अनित्य है और अनित्य होते हुए भी कथंचित नित्य है । वस्तुमें ही नहीं उसके प्रत्येक गुणमे भी यह स्वाभाविक व्यवस्था निराबाध सिद्ध है। १ भेद व लक्षण १ उत्पाद सामान्यका लक्षण २ उत्पादके भेद ३ स्वनिमित्तक उत्पाद ४ परप्रत्यय उत्पाद ५ सदुत्पाद ६ असदुत्पाद ७ व्ययका लक्षण ८ ध्रौव्यका लक्षण २ उत्पादिक तीनोका समन्वय * द्रव्य अपने परिणमनमे स्वतन्त्र है-दे. कारण 11/१ उत्पादादिक तीनोसे युक्त ही वस्तु सत् है जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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