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________________ उच्छादन उच्छादनससि ६/२५ / २२२/२३ प्रतिधारि अनुभूतवृत्तिता अनाविर्भाव उच्छादनम् । = रोकनेवाले कारणों के रहनेपर प्रकट नहीं करनेकी वृत्ति होना उच्छादन है । उच्छिष्टावली — दे आवली उज्जिह्नि- - दूसरे नरकका आठवाँ पटल-दे नरक ५/११ उज्झनशुद्धि- शुद्धि । उज्वल—विद्य ुत्प्रभ गजदन्त पर्वतपर स्थित एक कूट तथा उसका रक्षक देव-दे लोक ५/१२ । उज्वलित तीसरे नरकका सातवाँ पटल-दे नरक ५/११ । उटुंबरी-आर्य खडकी एक नदी दे मनुष्य ४ । उडदशमीव्रत (वत - विधान संग्रह पृ. १३१) ( नवलसाहकृत बर्द्धमान पुराण), विधि - दशमी उडड उडड आहार । पाँच घरनि मिलि जो अविकार | नोट- यह व्रत श्वेताम्बर व स्थानकवासी आम्नायमें प्रचलित है । उत्कर्षण - १०/ ४२.४,२१/५२ / ४ कम्मप्सदेसट्ठि विद्वावणमुक्क डुणा । कर्मप्रदेशोकी स्थिति (व अनुभाग) को बढाना उत्कर्षण कहलाता है । उत्कर्षणचित गो को ४३८५१०४ और भी वृद्धि भागो रहते है। गो जो / भाषा २५८/५६६/१७ नोचले निषेकनिका परमाणू ऊपरिके निषेकनि विषै मिलावना सो उत्कर्षण है । (ल सा / भाषा ५४ / ८७ / ४) २ उत्कर्षण योग्य प्रकृतियाँ गोक / ४४४ / ५६५ • धुकटुकरण सगमगनघोन्ति होदि नियमेण । बन्धकरण और उत्कर्ष कर में दोनों जिस जिस प्रकृतिकी जहाँ अन्य तिस तिस प्रकृतिका ( व उत्कर्षण भी) तहाँ हो पर्यंत नियमकरि जानने । - ३ उत्कर्षण सम्बन्धी कुछ नियम क्षमा ४०२ कामेकदि असे अट्टिदा होति । आवसिय से काले तेण पर होति भजियां |४०२ | नियमन १- सक्रमण विषै जे प्रकृतिके परमाणु उरूप करिए है से अपने कालनिये आलिका पर्यंत ती अवस्थित हो रहे वादे परे भजनीय हो है. अवस्थित भी रहे और स्थिति आदिकी वृद्धि हानि आदि रूप भी होइ । 1 कपा २/४-२२०२.३३६/२२० अनुभागाचा विभागपडिदाण बुड्ढोए अभावादो बधेण विणा तदुक्कडगाणुवत्तीदी ।३३६.१ । परमाणून बहुतमण्पत वा अग्रभागमहाली न कारणमिदि बहुसो परुविदतादो ॥२६-१२० नियम न. २ होनेपर अनुभागस्थान के अविभागी प्रतियोकी वृद्धि नहीं होती है, क्योंकि बन्धके बिना उसका उत्कर्षण नही बन सकता। नियम न ३-परमाओका बहुतपना या अपना अनुभावी वृद्धि और हानिका कारण नहीं है, अर्थात् यदि परमाणु बहुत हो तो अनुभाग भो बहुत हो और यदि परमाणु कम हो तो अनुभाग भी कम हो, ऐसा नहीं है, यह अनेक बार कहा जा चुका है। [घ] १०/४.२.४.११/०३/२ बधाणुसारिणी उमामुधपदेस विष्णासातदो ध १०/४,२,४,१४,/४६ / ६ जस्स समयपबद्धस्स सत्तिद्विदी वट्टमाणसिमाना सो समयमहो वहमाचरियद्विदिति उ २३ Jain Education International ३५३ उत्कर्षण घ. १०/४.२.४.२१/२/५ उदद्यादिपदेसा प [रजिति । उदयमतिमाहिद्विदीओ समाज [१] उति किंतु परिमडी आवसियाए उसखेनविभाग आलिया अस खेज्जदिभागे उक्कडिज्जदि, उवरि द्विदिबंधाभावादो। अइच्छा वाणिखेवाभावा रथ उक्कडुणा हेट्ठा। नियम नं ४- उत्कर्षण बन्धका अनुसरण करने वाला होता है, इसलिए उसमें दूसरे प्रकार से प्रदेशोकी रचना नही बन सकती । नियम न ५- जिस समय प्रबद्धकी स्थिति वर्तमान में हुए कर्मको अन्तिम स्थिति समान है उस समय प्रबद्धका वर्तमानमे बँधे हुए कर्मकी अन्तिम स्थिति तक उत्कर्षण किया जाता है। नियम नं ६ - उदयावली की स्थिति के प्रदेशोका उत्कर्षण नही किया जाता है। नियम नं ७--- उदयाली बाहरको सभी स्थितियो (भी)(नहीं) किया जाता है किन्तु चरम स्थिति बावलोके असंख्यात भागको अतिस्थापना रूपसे स्थापित करके आवलिके असख्यात बहुभागका उत्कर्षण होता है। क्योकि इससे ऊपर स्थितिबन्धका अभाव है । अतिस्थापना और निक्षेपका अभाव होनेसे नीचे नही होता है । = पा. ७/५-२२/१४३९/२४४ विशेषार्थ पहले मतता जाये है कि सर्मपरमाशुओं का न होकर कुछ होता है और का नहीं। जिनका नहीं होता उनका सक्षेपसे व्योरा इस प्रकार है१. उयावलोके भीतर स्थितमाओंका उत्कर्षण नहीं होता। २. उदपावली के बाहर भी सत्ताने स्थित जिन कर्मपरमाणुओ की कर्म स्थिति (स्थिति) उत्कर्षण के समय बंधनेवाले क्मोंकी आबाधाके बराबर या उससे कम शेष रही है, उनका भी उत्कर्षण नहीं होता। ३. निर्व्याघात दशामें उत्कर्षको प्राप्त होनेवाले कर्म परHight अतिस्थापना कमसे कम एक आवली प्रमाण बतलायी है, इसलिए अतिस्थापनारूप द्रव्यमें उत्कर्षित द्रव्यका निक्षेप नहीं होता । ४ व्याघात दशा में कमसे कम आवलिके असंख्यातवें भागप्रमाण अतिस्थापना और इतना ही निक्षेप प्राप्त होनेपर उत्कर्षण होता है । अन्यथा नही होता। नोट- इस विषयका विस्तार - दे. (क. पा सुत्त ६-२२ / सूत्र ४-४७ / पृ २१४ - २१६), (क. पा. ७/५-२२/ ४२६-४०४/२४२-२०३) ४ व्याघात व अन्य घात उत्कर्षण निर्देश क. पा. ७/५-२२/४३१/२४५/५ विशेषार्थ "जहाँ अति स्थापना एक आवली और निक्षेप आवलीका असंख्यातवा भाग आदि बन जाता है वहाँ दिशा होती है और जहा अतिस्थापना एक आवली प्रमाण होने में बाधा आती है वहाँ व्याघात दशा होती है । जब प्राचीन सत्ता में स्थित्त कर्म परमाणुओकी स्थिति से नूतनबन्ध अधिक हो, पर इस अधिकका प्रमाण एक आवली और एक आवलिके असख्यातवें भाग के भीतर ही प्राप्त हो, तब यह व्याघात दशा होती है । इसके सिवा उत्कर्षण में सर्वत्र निर्व्याघात दशा ही जानना ।" ५ स्थिति बन्धोत्सरण निर्देश ख. खा. / भाषा ३९४ / २६१से स्थिति मन्यसरकार दे, अपकर्ष प ३) स्थिति पाइएक-एक अन्तर्मुहूर्त समान मन्ध करें था, तसे इहॉ स्थितिबन्धोत्सरणकार स्थिति बन्ध बधाइ एक एक अन्तविष समान बन्ध करें है। ६ उत्कर्षण विधान तथा जघन्य उत्कृष्ट अतिस्थापना व निक्षेप १. दृष्टि नं. १ सामू ६१-६४ सत्तग्गा अस्वभातियमेव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only योग आग लितत्तदिध्यावण दि www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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