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________________ रामता ईपिथकर्म ३५० ईषत्प्राग्भार कामणिज्जरा इव अण्णेसिमणताणं कम्मरत्रंधाणं बंधमकाऊण णिज्जि- होदय, अण्णहा कम्मभावपरिणामाणुववत्तीदो ति । ण एस दोसो ण्णत्तादो। बन्धको प्राप्त हुए परमाणु दूसरे समपमें ही सामस्त्य जहण्णाणुभागठाणस्स जहण्णफद्दयादो अणं तगुणहोणाणुभागेण कम्मभावसे निर्जराको प्राप्त होते है, इसलिए ईर्यापथकर्म स्कन्ध महात् वर्खधो बधमागच्छदि त्ति कादूण अणुभागबंधो णत्थि त्ति भण्णदे। व्ययवाले कहे गये हैं। निर्जरित होकर भी बह ईर्यापथकर्म निर्ज- तेण अधो एगसमयहिदिणिवत्तयअणुभागसहियो अस्थि चेवे त्ति रित नहीं है, क्योकि कषायके सद्भावमें जैसी कर्मोंकी निर्जरा होती घेतब्बो। प्रश्न-कार्माण स्कन्धोका कर्मरूपसे परिणमन करनेके है वैसी अन्य अनन्त कर्म स्कन्धोंकी, बन्धके बिना ही निर्जरा होती एक समयमें ही सब जीवोंसे अनन्तगुणा अनुभाग होना चाहिए,क्योंकि है। (और भी-दे. ईर्यापथ ४/२) अन्यथा उनका कर्मरूपसे परिणमन करना नहीं बन सकता । उत्तर६. ईपिथकर्ममे उदय उदीरणाकी अपेक्षा विशेषता यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यहाँ पर जघन्य अनुभाग स्थानके घ. १३४५,४,२४/१२-५४/क्रमश. ७,२,६ उदिण्णमपि तण्ण उदिणं जघन्य स्पर्धकसे अनन्तगुणे हीन अनुभागसे युक्त कर्मस्कन्ध अन्धको दद्धगोहमरासि व्व पत्तणिव्वीयावत्तादो। (५२/७) वेदिद पि असाद प्राप्त होते है। ऐसा समझकर अनुभाग बन्ध नहीं है, ऐसा कहा है। वेदणीय ण वेदिदं, सगसहकारिकारणधादिकम्माभावेण दुक्वजण्ण इसलिये एक समयकी स्थितिका निवर्तक ईगिय कर्मबन्ध अनुभाग सत्तिरोहादो (५३/२)। उदीरिदं पि ण उदीरिद, बधाभावण सहित है ही, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। जम्मतरुप्पायणसत्तीए अभावेण च णिज्जराए फलाभावादो (१४/६)। ११ ईपिथकर्मके साथ गोत्रादिका भी बन्ध नही होता -उदीरणा होकर भी उदीर्ण नहीं है, क्योंकि वे दग्ध गेहके समान ध १३/५४,२४/५२/८ इरियावहकम्मरस लक्षणे भण्णमाणे से सम्माण निर्बज भावको प्राप्त हो गये है ।(१०)। असाता वेदित होकर भी बावारो किमिदि परूविज्जदे । ण, इरियावह कम्मसहचरिदसेसकम्माणं वेदित नहीं है, क्योंकि अपने सहकारी कारण रूप घातिया पि इरियावहत्त सिदीए तक्लक्खणस्स वि इरियावहलक्रवणत्तुवकोका अभाव हो जानेसे उसमें दुखको उत्पन्न करनेकी शक्ति मानने वत्तीदो । प्रश्न--ईयर्यापथ मका लक्षण कहते समय शेष मौके में विरोध आता है । (११) । उदीरित होकर भी वे उदौरित नहीं है (गोत्र आदिके) व्यापारका कथन क्यो किया जा रहा है। उत्तर-- क्योंकि बन्धका अभाव होनेसे और जन्मान्तरको उत्पन्न करनेकी नहीं, क्योंकि ईर्यापथके साथ रहनेवाले शेष कमों में भी ईर्यापथत्व शक्तिका अभाव होनेसे निर्जराका कोई फल नहीं देखा जाता। सिद्ध है। इसलिए उनके लक्षण में भी ईर्यापथका लक्षण घटित हो ७. ईर्यापथकमे सुखकी विशेषता जाता है। ध. १३/५.४,२४,५१/३ देव-माणुससुहेहितो बायरसह पायणत्तादो १२ ईयापथकर्मोमे स्थित जीवोंके देवत्व कसे है इरियावहकम्म सादभहियं । -देव और मनुष्योंके मुख से अधिक ध,१३/५,४,२४/५१/८ जलमज्झणिव दियतत्तलोहूंडओ व्य इरियावहमुखका उत्पादक है, इसलिए ईर्यापथकर्मको अत्यधिक साता रूप कम्मजल समसयजीवपदेसेहि गेण्हमाणो केवली कधं परमप्पएण कहा है। समाणत्त पडिवज्जदि त्तिभणिदे तण्णिण्णयस्थ मिद बुच्चदे-इरियावह ८ ईपिथके रूक्ष परमाणुओंका बन्ध केसे सम्भव है कम्म गहिद पि तण्ण गहिदं । कुदो। सरागकम्मगणस्सेब अणंतघ.१३/३,४,२४/५०/६ जइ एवं तो इरियावहकम्मम्मि ण क्खधो, हुक्खेग ससारफलणिवत्तणसत्तिविरहादो। =प्रश्न-जलके बीच पडे हुए गुणाण परोप्परबंधाभावादो। ण, तत्थ दुरहियाण बधुवल भादो। तप्तलोह पिण्डके समान ईर्यापथर्मरूपी जल को अपने सर्व प्रदेशों से - प्रश्न-यहाँपर रूक्षगुण यदि इस प्रकार है तो (ईर्यापथ कर्म ग्रहण करते हुए 'केवली जिन' परमात्माके समान कैसे हो सकते है । बन्धके नियममें कथित रूपसे) ईर्यापथ कर्मका स्कन्ध नहीं बन उत्तर-ऐसा पूछनेपर उसका निर्णय करने के लिए यह कहा गया है सकता. क्योकि एक मात्र रूक्ष गुणवालोंका परस्पर बन्ध नहीं हो कि ईर्यापथकर्म गृहीत होकर भी गृहीत नहीं है, क्योकि सरागीके सकत, । उत्तर-नहीं, क्योकि वहाँ भो द्विअधिक गुणवालोंका बन्ध द्वारा ग्रहण किये कर्मके समान पुनर्जन्म रूप संसार फलको उत्पन्न पाया जाता है। करनेवाली शक्तिसे रहित है। ९ ईर्यापथकर्ममे स्थितिका अभाव कैसे कहते हो * ईपिथकर्मविषयक सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, ध. १३/५,४,२४/४८/१३ कम्मभावेण एगसमयव ट्ठिदस्स कधमवट्ठाणाभावो अन्तर, भाव, अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँभण्णदे । ण, उप्पण विदियादिसमयाणवठ्ठाणवबएमुषलं भादो। ण, उप्पत्तिसमओ अवठ्ठाण होदि, उप्पत्तीए अभावप्प -दे. वह वह नाम । सगादो । ण च अणुप्पण्णस्स अवठ्ठाणमस्थि, अण्णस्थ तहाणुव ईर्यापथ क्रिया-दे. क्रिया ३/२।। लंभादो। ण च उप्पत्तिअवठाणाणमेयत्त, पुवुत्तरकालभावियाण- ईपिथ शुद्धि-दे. समिति १। मेपत्तविरोहादो। -प्रश्न-जबकि ईर्यापथ कर्म कर्मरूपसे एक समय द्ध पाठवविधि-दे, कृतिकर्म है। तक अवस्थित रहता है तब उसके अवस्थानका अभाव क्यो बताया। उत्तर-नहीं क्योंकि उत्पन्न होनेके पश्चात् द्वितीयादि समयोंकी ईयसिमिति-दे. समिति १। अवस्थान सज्ञा पायी जाती है। उत्पत्तिके समयको ही अवस्थान ईशान-१. कल्पवासी स्वर्गोंका दूसरा कल्प-दे स्वर्ग ५/२, २ पननहीं कहा जा सकता, क्योकि ऐसा माननेसे उत्पत्तिके अभावका त्तर कोणवाली विदिशा। प्रसंग प्राप्त होता है। यदि कहा जाये कि अनुत्पन्न वस्तुका अवस्थान ईशित्व ऋद्धि-दे, ऋद्धि ३ । बन जायेगा, सो भी बात नहीं है। क्योंकि अन्यत्र ऐसा देखा नहीं जाता। यदि उत्पत्ति और अवस्थानको एक कहा जाये सो भी बात ईश्वर-दे. परमात्मा ३ नहीं क्योंकि ये दोनों पूर्वोत्तर कालभावी है, इसलिए इन्हे एक ईश्वर अनीश्वर नय-दै. नय ।। मानने में विरोध आता है। यही कारण है कि यहाँ ईर्यापथ कर्मके ईश्वरवाद-दे. परमात्मा ३। अवस्थानका अभाव है। ईश्वरसेन-नाट सघकी गुर्वावली के अनुसार आप नन्दिषेणप्रथमके १० ईपिथकर्ममे अनुभागका अभाव कसे है शिष्य तथा नन्दिषेण द्वि. के गुरु थे।-दे. इतिहास ७/८ । ध, १३/५,४,२४/४६/६ण कसायाभावेण अणुभागबधाभावादो। कम्मइयअवधाण कम्मभावेण परिणमणकालेसबजीवेहि अणतगुणेण अणुभागेण इषत्प्राग्भार-दे. मोक्ष १। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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