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________________ इतिहास ११. रघुवंश इक्ष्वाकु वशमें उत्पन्न रघु राजासे ही सम्भवत' इस वंशको उत्पत्ति हैदे इक्ष्वाकुव श पसर्ग लोक २२/१६०-१६२ प्र अनरण्य (अपराजितामे) पद्म राम या बल (२४/२२) (५/२४४) 1 अमररक्ष अनन्तरथ (सुमित्रा) लक्ष्मण या हरि (२५/२६) १२ राक्षसवंश प.पु / सर्ग / श्लोक मेववाहन नामक विद्याधरको राक्षसोके इन्द्र भीम सुमीमने भगवान् अजितनाथ के समवशरण में प्रसन्न होकर रक्षार्थ राक्षस द्वीपमें लंकाका राज्य दिया था (५/१५६-१६०) तथा पाताल लका व राक्षसी विद्या भी प्रदान की थी। (५/१६१-१६७) इसी मेघवाहनकी सन्तान परम्परा में एक राक्षस नामा राजा हुआ है, उसके नामपर इस वंशका नाम 'राक्षसवंश' प्रसिद्ध हुआ । ( ५ / ३७८) इसकी वशावली निम्न प्रकार है- पूर्ण (७/८०) मेघवाहन (१/८७) महारक्ष (७ / १८३) छह पुत्रियाँ ११ उदधिरंक्ष __५/३६६-२०३ 1 I 1 आवर्त विघट अम्भोद उत्कट स्फुट १ २ ३ ४ (4/146-202) 1 सन्ध्याकार सुवेल मनोहाद मनोहर १ ३ ४ T छह पुत्रियाँ ११ Jain Education International दशरथ 1 अर्ध स्वर्गोत्कृष्ट १० राक्षस (५/३७८) ५/३७६ 1 केकयी से) भरत (२५/३५) T भानुरक्ष दुग्रे रनडीप १० (सुप्रभासे) शत्रुघ्न (22/14) 1 हंसद्वीप हरि योध ५ ७ I तट तोय ७ ८ काञ्चन समुद्र इस प्रकार मेघवाहनकी सन्तान परम्परा क्रमपूर्वक चलती रही (५/३७७) उसी सन्तान परम्परा में एक मनोवेग राजा हुआ (५/३७८) T आवली ह आदित्यगति 1 बृहतीति श्रम पूर्णाह आदि १०८ पुत्र जिनभास्कर सपरिकीर्ति सुग्रीव, हरिग्रीव, श्रीग्रीव, सुमुख, सुव्यक्त, अमृतवेग, भानुगति, गिति इण्डन्द्रश्य मेव मृगारिमन प वर्मा, भानु, भानुभ, सुरारि, त्रिजट, भीम, मोहन, उद्धारक, रवि, चकार, वज्रमध्य, प्रमोद, सिहविक्रम, चामुण्ड, मारण, भीष्म द्वीपवाह. अरिमर्दन, निर्वाणभक्ति भक्ति अनुत्तर, गतधन अनिल, चण्ड काशोक. मयूरवान, महाबाहु, मनोरम्य, भास्कराभ, गति बृहत्कान्त अरिसन्त्रास, चन्द्रावर्त, महार, मैनान ९. पौराणिक राज्यवंश गृहक्षोभ नक्षत्र आदि करोडों विद्याधर इस वंश में हुए... धनप्रभ, की ७/३८२-३८८) ३३८ भगवान् मुनिसुतके तीर्थ में विद्य त्केश नामक राजा हुआ । (६/२२२-२२२) इसका पुत्र सुकेश हुआ। (२/३४९) इन्द्रजीत (२/५३१)_ 1 माली दशानन (रावण) (कुम्भकर्ण) 1 ८/१५५,१५८ ६/९/ बाली २० / १२ / अंग सुमांसी / रत्नश्रवा (७/१३३) (७/२२२-२२५) | 1 1 भानुकर्ण विभीषण १३ वानरवंश प. पु. सर्ग / लोक नं राक्षसी राजा कीर्तिध्वज राजा श्रीकण्ठको (जब यह पोर विद्याधरसे हार गया ) सुरक्षित रूपसे रहने के लिए वानर द्वीप प्रदान किया था (६/८३ ८४) । वहाँ पर उसने किष्कु पर्वत पर किष्कुपुर नगर की रचना की । वहाँ पर वानर अधिक रहते थे जिनसे राजा श्रीकण्ठको बहुत अधिक प्रेम हो गया था। (६/१०७१२२ ) । तदनन्तर इसी श्रीकण्ठकी पुत्र परम्परामें अमरप्रभ नामक राजा हुआ। उसके विवाह के समय मण्डप में वानरोकी पंक्तियाँ चिह्नित की गयी थीं, तब अमरप्रभने वृद्ध मन्त्रियोंसे यह जाना कि "हमारे पूर्वजोंने वानरोंसे प्रेम किया था तथा इन्हें मंगल रूप मानकर इनका पोषण किया था।" यह जानकर राजाने अपने मुकुटों में वानरोके चिह्न कराये। उसी समय से इस वंशका नाम वानरवंश पड गया। (६/१७५-२९०) (इसको शावली निम्न प्रकार है) प/रसोक विजयार्थ की दक्षिण बेणीका राजा अतीन्द्र (३) था तद नन्तर श्रीकण्ठ (५), वज्रक्ण्ठ (१५२), वज्रप्रभ (१६०), इन्द्रमत (१६१). मेरु (१६१), मन्दर ( १६१), समीरणगति (१६१), रविप्रभ (६१), अमरप्रभ (१६२), कपिकेतु (१८), प्रतिबल (२००), गगनानन्द (२०५). खेचरानन्द (२०५), गिरिनन्दन (२०५ ) इस प्रकार सैक्डो राजा इस वंशमें हुए, उनमें से कितनोंने स्वर्ग व कितनी ने मोक्ष प्राप्त किया । (२०६ ) | जिस समय भगवान् मुनिसुव्रतका तीर्थ चल रहा था ( २२२ ) तब इसीवंशमे एक महोदधि राजा हुआ (२१८) । उसका भी पुत्र प्रतिचन्द्र हुआ (३४६) । प्रतिचन्द्र 1 जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only सुश | मेघवाहन | (३५२) fefening I. (५-२३) सूर्यरज ६/१०/ संग्रीय 1 माल्यवान् | (३५२) अन्धक रूढि 7 (88) ऋक्षरज चन्द्रमखा पुत्री | (६/१३) नल 180/83 अगद 7 (8/8) नील १४. विद्याधर वंश जिस समय भगवान् ऋषभदेव भरतेश्वरको राज्य देकर दीक्षित हुए, उस समय उनके साथ चार हजार भोजवशीय व उग्रवंशीय आदि राजा भी तपमें स्थित हुए थे। पीछे चलकर वे सब भ्रष्ट हो गये । उनमें से नमि और विनम आकर भगवादके चरणों में राज्यकी इच्छा से बैठ गये। उसी समय रक्षामे निपुण धरणेन्द्रने अनेको देवों www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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