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________________ इंद्रिय इण्या भ्रमरादोना स्पर्शनरसनधाणानि चक्षुरधिकानि, मनुष्यादीनां तान्येव इंद्रिय प्रमाण-दे, प्रमाण । श्रोताधिकानीति । सूत्र में आये हुए 'एक' शब्द का अर्थ प्रथम है । इंद्रोपपाद-गर्भान्वयादि क्रियाओमें-से एक--दे संस्कार २। प्रश्न -बह कौन है। उत्तर-स्पर्शन। प्रश्न-वह कितने जोवोके होती है। उत्तर-पृथिवीकायिक जीवोसे लेकर वनस्पतिकायिक बादाल-१८४४६७,४४०७३७०६५५१६१६ ॥ तकके जीवोके जानना चाहिए ।२२। कृमि आदि जीवोके स्पर्शन और तो-भरतक्षेत्र आर्य खण्डकी एक नदी -दे मनुष्य ४। रसना ये दो इन्द्रियाँ होती है। पिपीलिका आदि जीवोके स्पर्शन, रसना, घाण ये तीन इन्द्रियाँ होती है । भ्रमर आदि जोबोके स्पर्शन, __ इक्षुरस-दे रस। रसना, प्राण और चभु ये चार इन्द्रियाँ होती है। मनुष्यादिके श्रोत्र इक्षुवर-मध्यलोकका सप्तम द्वीप व सागर -दे लोक ॥१॥ इन्द्रियके मिला देनेपर पाँच इन्द्रियाँ होती है। (रावा. २/२२/४/ इक्ष्वाकुवंश-दे. इतिहास १०/२ । १३५); (ध. १/१,१,३३/२३७ २४१,२४३,२४५,२४७) ४. एकेन्द्रिय आदिकोंमें गुणस्थानोंका स्वामित्व इच्छा -दे. अभिलाषा। प.वं. १/११/सू. ३६-३७/२६१ एइदिया बोइदिया तीइन्दिया चउरि- इच्छाकारदिया असण्णि पचिदिया एक्कम्मि चेव मिच्छाइटिट्ठाणे ।३६। पचि- मू आ. १२६,१३१ इठे इच्छाकारो तहेव अबराधे । - ॥१२६॥ संजमणादिया असणिपंचिदिय पहूडि जाव अयोमिकेवलि ति।३७) - णुवकरणे अण्णुवकरणे च जायणे अण्णे। जोगग्गहणादिमु अ इच्छाएकेन्द्रिय द्वोन्द्रिय, श्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय और असंज्ञी पचेन्द्रिय कारो दु कादयो ।१३१॥ - सम्यग्दर्शनादि शुद्ध परिणाम व ब्रतादिक जीव मिथ्यादृष्टि नामक गुणस्थानमें ही होते है।३६ अस शो-चे शुभपरिणामोमें हर्ष होना अपनी इच्छासे प्रवर्तना वह इच्छाकार है। न्द्रिय मिथ्यादृष्टि गुणस्थानसे लेकर अयोगकेवली गुणस्थान तक ॥१२६॥ सयमके पीछी आदि उपकरणोमैं तथा श्रवज्ञानके पुस्त५चेन्द्रिय जीव होते है ।३७१ (रा वा ६/७/११/६०५/२४), (ति.प / कादि उपकरणो में और अन्य भी तप आदिके कमण्डलु आहारादि २६६); गो जी /मूव जी.प्र ६७८/११२१); गो क /जी.प्र. ३०६/४३८/८ उपकरणो में, औषधिमें, उष्णकालादिमें, आतापनादि योगों में इच्छापृथ्व्यप्रत्येकवनस्पतिषु सासादनस्योत्पत्ते । - पृथ्वी, अप, और कार करना अर्थात् मनको प्रवर्ताना ॥१३१॥ प्रत्येक वनस्पतिकायिको में सासादन गुणस्थानवी जीव मरकर उत्पन्न सुपा/मू १४-१५ इच्छायार महत्थं सुत्ताठओ जो ह छ डए कम्मं । ठाणे हो जाता है। अन्य एके न्द्रियोमें नही। विशेष दे जन्म ४/सासादन द्वियसम्मत्तं परलोयसुहकरो होइ.१४॥ अह पुण अप्पा णिच्छदि सम्बन्धी दृष्टिभेद। धम्माइ करेदि निरवसेसाई। तह विण पाव दि सिद्धि संसारत्थो ५ जीव अनिन्द्रिय कैसे हो सकता है पुणो भणिदो ॥१५॥ = जो पुरुष जिन सूत्र विर्षे तिष्ठता संता इच्छाष ख ७/२.१/सू १६-१७/६८ अणिदिओ णाम कध भवदि।१६। खड्याए कार शब्दका महान् अर्थ ताहि जान है, बहुरि स्थान जो श्रावकके लडीए ।१७५ प्रश्न-जीव अनिन्द्रिय किस प्रकार होता है । उत्तर- भेद रूप प्रतिमा तिनिमै तिष्ठया सम्यक्त्व सहित वतता आरम्भ क्षायिक लधिसे जीव अनिन्द्रिय होता है। आदि कर्म नि छोडे है सो परलोकवि सुख करनेवाला होय है॥१४॥ घ ७/२,११७/६८/८ इदिएसु विणठेसु णाणस्स विणासो णाणाभावे इच्छाकारका प्रधान अर्थ आत्माका चाहना है अपने स्वरूप विध जीवविणासो, जीवाभावे ण स्वइयालद्धी वि, णेद जुज्जदे। कुदो। रुचि वरना है सो याकू जो नाही इष्ट कर है अन्य धर्मके सर्व आचजीवो णाम णाण सहावो, तदो इन्दियविणासे ण णाणस्स विणासी। रण करे है तौउ सिद्धि कहिये मोक्ष के नहीं पावै है ताकं ससारविषै गाण सहकारिकारणइन्दियाणमभावे कधं णाणस्स अस्थित्तििद चे ही तिष्ठनेवाला कह्या। ण... च छदुमत्थावत्थाए णाणकारणण पडिवणि दियाणि वीणा * श्रावक श्राविका व आर्यिका तीनोंकी विनयके लिए रणे भिण्णज दोए णाणुप्पत्तिम्हि सहकारिकारण होति ति णियमो, 'इच्छाकार' शब्दका प्रयोग किया जाता है। अइप्पसगादो, अण्णहा मोक्रवाभावप्पसगा। प्रश्न-इन्द्रियोके विनष्ट हो जाने पर ज्ञानका भी बिनाश हो जायेगा, और ज्ञानके -दे. विनय ३॥ अभाव में जीव का भी अभाव हो जायेगा। जीवका अभाव हो जाने- इच्छादेवी-रुचक पर्वत निवासिनी दिक्कुमारी देवी। पर क्षायिक लब्धि न हो सकेगी? उत्तर-यह शंका उपयुक्त नहीं है, -दे. लोक । क्योकि जीव ज्ञान स्वभावी है। इसलिए इन्द्रियोका विनाश हो इच्छानिरोध-दे. तप । जानेपर ज्ञानका विनाश नहीं होता। प्रश्न-ज्ञानके सहकारी कारणभूत इन्द्रियोके अभाव मे ज्ञानका अस्तित्व किस प्रकार हो सकता है । इच्छा निषेध-दे राग। उत्तर-छद्मस्थ अवस्थामे कारण रूपसे ग्रहणकी गयी इन्द्रियों क्षीणा इच्छानुलोमा भाषा-दे, भाषा।। वरण जीवों के भिन्न जातीय ज्ञानकी उत्पत्तिमें सहकारी कारण हो इच्छा राशि-गो जो सद्दष्टि 'गणित' सम्बन्धी त्रैराशिक विधिमें ऐसा नियम नही है। क्योकि ऐसा माननेपर अतिप्रसग दोष आ जायेगा, अन्यथा मोक्षके अभावका ही प्रसग आ जायेगा। अपना इच्छित प्रमाण (विशेष -- दे.गणित/४) ५. एकेन्द्रिय व विकलेन्द्रिय निर्देश इच्छा विभाग-वसतिकाका एक दोष- दे वसतिका । इज्या-म पु. ६७/१६३ याज्ञो यज्ञ ऋतु' सपर्येज्याध्वरो मख । मह १. एकेन्द्रिय असंज्ञी होते हैं इत्यपि पर्यायवचनान्यर्चनाविधे ॥१३॥ -याग, यज्ञ, क्रतु, पूजा, पं.का/मू १११ मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया १११॥ - सपर्या, इज्या, अध्वर, मख, और मह ये सब पूजा विधिके पर्यायमन परिणामसे रहित एकेन्द्रिय जीव जानना। वाचक शब्द है ॥१३॥ इंद्रिय जय-दे संयम २। चा, सा ४३/१ तबाह पूजेज्या, सा च नित्यमहश्चतुर्मुखं कल पक्षोऽष्टा सिक ऐन्द्रध्वज इति। -अर्हन्त भगवान की पूजा करना इज्या कहइंद्रिय ज्ञान-दे मतिज्ञान। लाती है उसके नित्यमह, चतुर्मुख कल्पवृक्ष अष्टाह्निक और इन्द्रइंद्रिय पर्याप्ति-दे. पर्याप्ति । ध्वज यह पाँच भेद है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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