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________________ आहारक ३ आहारक समुद्घातका स्वामित्व , रा. सू २/४१ शुभ विशुनपापाति चाहारक प्रमत्तसंयतस्यैव आहारक शरीर शुभ, विशुद्ध व्यापात रहित है और वह प्रमसंयत के ही होता है । ससि ८/२/२०६/२ आहारककाययोगाहारका काययोगय प्रम सयते सभवात् । प्रमत्तसंयत गुणस्थानमे आहारक ऋद्विधारी मुनिके आहारक काय योग और आहारक मिश्र योग भी सम्भव है। रा. वा २/४६/७/१५३/८ प्रमत्तसंयतस्यैवशहरके नान्यस्य । प्रमत्तसंपतके ही आहारक शरीर होता है। ४१.१.२/२८/५ आहारसमुग्धादाम सिहीण महारियो होवि ४/१.३१/१८/२ इससे तिष्णा भवति तक्कारणसजमादिगुणाणमभावादो । ४/१.३.२/१२३/७ मरि पदे जाहार स्थि ४/१.२.८२/१३५/६ वरिपरिहारविद्धो सदस्य उससम्मम जाहार गरि १, जिनको वृद्धि प्राप्त हुई है ऐसे महर्षियोके होता है । २ मिथ्यादृष्टि जीव राशिके (आहारक समुद्घात) सम्भव नहीं, क्योंकि इसके कारणभूत गुणोका मिध्यादृष्टि और असत सयतासंयतों के अभाव है । ३ (प्रमत्त सयतमें भी ) परिहार विशुद्धि संयतके आहारक व तैजस समुद्धात नहीं होता । ४ प्रमत्तसयत के उपशम सम्यक्त्वके साथ आहारक समुद्घात नही होता है । (ध / ४१.४.१३५/२८६/१९ ४ इष्टस्थान पर्यन्त संख्यात योजन लम्बे सूच्यगुल योजत चौड़े ऊंचे क्षेत्र प्रमाण विस्तार है ५४६४६१ आहारक समुद्रात भिये एक जीवके शरीर ते बाह्य निकसे प्रदेश तै सख्यात याजन प्रमाणलम्बा अर सूच्यंगुल का संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौडा ऊँचा क्षेत्रको रोकें । याका घनरूप क्षेत्रफल सख्यात घनागुल प्रमाण भया। इसकरि आहारक समुद्घात वाले जीवनिका सख्यात प्रमाण है ताकौ गुण जा प्रमाण होइ तितना आहारक समुद्घातविषै क्षेत्र जानना । ल शरीर तै निकसि आहारक शरीर जहाँ जा वहाँ पर्यन्त लम्बी आत्मा प्रदेशनिको श्रेणी मुच्य गुलका संख्यातवाँ भाग प्रमाण चौडी अर ऊँची आकाश विषे है ५ समुद्घात गत आत्म प्रदेशोंका पुनः औदारिक शरीर में संघटन कैसे हो ध, १/१.१५६/२१२/८ न च गलितायुषस्तमिन् शरीरे पुनरुत्पत्तिर्विरोधात् । ततो न तस्यौदारिकशरीरेण पुन संघटनमिति । १/१.१.२६/२६२/३ योनियोग मर मेकदेशेन बागलादप्युपस इतजीवावयवाना मरणानुकम्पा जीवितानसेन व्यभिचाराच न पुनरस्यार्थ सर्वाय पूर्वशरीरपरित्याग समस्ति येनास्य मरणं जायेत । = प्रश्न - जिसको आयु नष्ट हो गयी है ऐसे जावको पुन उस शरीर में उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि, ऐसा मानने में विरोध आता है । अत जीवका औदारिक शरीरके साथ पुन संघटन नहीं बन सकता अर्थात् एक बार जीव प्रदेशोका आहारक शरीर के साथ सम्बन्ध हो जानेपर पुन उन प्रदेशोका पूर्व औदारिक शरीर के साथ सम्बन्ध नहीं हो सकता 1 उत्तर - ऐसा नहीं है, तो भी जीव और शरीरका सम्पूर्ण रूपसे वियोग ही मरण हो सकता है। उनका एकदेश रूपसे वियोग मरण नहीं हो सकता, क्योंकि जिनके कण्ठ पर्यन्त जीव प्रदेश संकुचित हो गये हैं, ऐसे जीवोंका मरण भी नहीं पाया जाता है। यदि एकदेश वियोगको भी मरण माना जावे, तो जीवित शरीरसे छिन्न होकर जिसका हाथ अलग हो गया है उनके साथ व्यभिचार आयेगा । इसी प्रकार Jain Education International ४. आहारक व मिश्रकाय योग निर्देश आहारक शरीरको धारण करना इसका अर्थ सम्पूर्ण रूपसे पूर्व (छौदारिक) शरीरका त्याग करना नहीं है, जिससे कि आहारक शरीरके धारण करने वालेका मरण माना जावे । ४ आहारक व मिश्र काययोग निर्देश २९७ १ आहारक व आहारक मिश्र काययोगका लक्षण // प्रा१/६७-६८ आहरइ अणेण मुणि सुहुमे अट्ठे सस्स सदेहे । गत्ता केवलिपास तम्हा आहारकाय जागो सो । अंतोमुहूत्तमज्म त्रियाणामस्संच अपरियुण्णा ति। जो तेण रूपआगो आहारयमिस्सकायजोगा सा || स्वयं सूक्ष्म अर्थ में सन्देह उत्पन्न होनेपर मुनि जिसके द्वारा केवली भगवान् के पास जाकर अपने सन्देह को दूर करता है, उसे आहारक काय कहते है। उसके द्वारा उत्पन्न होने वाले योगको आहारक काययोग कहते है | ७| आहारक शरीरकी उत्पत्ति प्रारम्भ हानेके प्रथम समयसे लगाकर शरीर पर्याप्त पूर्ण होने तक अन्तर्मुहूर्त के मध्यवर्ती अपरिपूर्ण शरीरको आहारक मिश्र काय कहते है। उसके द्वारा जो योग उत्पन्न होता है वह आहारक मिश्र काययोग कहलाता है। (गो. जी / मू. २३६) घ. १/११/१६४-१६४ / २६४ तम्हा आहारका जोगा । १६४ । आहारयमुत्तरथ वियाणमिस्स च अपरिपुण्ण ति । जो तेण संपयागो आहारयमिस्सका जोगा । १६५ । आहरक शरीरके द्वारा होने वाले यागको आहारक काययाग कहते है । १६४ । आहारक्का अर्थ कह आये है । वह आहारक शरीर जब तक पूर्ण नहीं होता तब तक उसका आहारक मिश्र कहते है। ओर उसके द्वारा जो सप्रयोग होता है उसे आहारक मिश्र काययाग कहते है । ९६५ । (गा. जी. / म. २४० ) । ध १ / १,१.५६ / २६३/६ आहारकार्मणस्कन्धत समुत्पन्नवीर्येण योग. आहारमिकामयाग आहारक और कामगिकी वर्गा - से उत्पन्न हुए वीर्यके द्वारा जो योग होता है वह आहारक मिश्र काययोग है । २. आहारक काययोगका स्वामित्व १/१,१.५१/५२.६३/२६७,३०६ आहारकायजागो आहार मिस्सकायजागा सजदाणमिड्ढि पत्ताण ५६| आहारकायजोगा आहारमिस्स कायजोगी एक्कम्हि चेव पमत्तसजद ट्ठाणे | ६३। आहारक काययोग और आहारक मिश्रकाममोद्धि प्राप्त छठे गुणस्थानवर्ती यतो हाता है५१ आहारक काययोग और आहारकमिश्र काययोग एक प्रमत्त गुणस्थानमें ही होते है । ६३० (सिसि. ८/२/२०६/२) • ३. आहारक योगका स्त्री व नपुंसक वेदके साथ विशेष तथा तत्सम्बन्धी शंका समाधान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोवा = " - २/९.१५२३/१ मसिमी मण्णमा आहारआहार भिस्सकाय जोगारथ । कि कारणं । जेसि भाबो इस्थिवेदो दब्ब पुण पुरिसवेदा, ते जीवा सजम पडिवज्जति । दठिवस्थिवेदा सजम ण पडिवेदापि सेजदान णाहार रिद्धीसमुपजद दव्व-भावहि पुरिसवेदाणमेव समुप्पज्जदि गिरिथवेदेपि पि आहारगरि मनुष्दनी सियो के आलाप कहने पर आहारक मिश्रकाययोग नही होता । प्रश्नमनुष्य-स्त्रियोंके बाहारक काययोग और आहारक मिश्रकाययोग नहीं होनेका कारण क्या है ? उत्तर - यद्यपि जिनके भावकी अपेक्षा स्त्रीवेद और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुषवेद होता है वे (भाष स्त्री) जीव भी संयमको प्राप्त होते है। किन्तु द्रव्यकी अपेक्षा स्त्री वेदवाले जीव संयम को प्राप्त नहीं होते हैं, क्योंकि, ये समेत अर्थात् वस्त्र सहित होते हैं। फिर भी भावकी अपेक्षा स्त्री वेदी और द्रव्यकी अपेक्षा पुरुष वेदी संयमधारी जीवोके आहारक वृद्धि नहीं होती। किन्तु द्रव्य For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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