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________________ आहारक २९५ २. आहारक शरीर निर्देश भगवान के अतिरिक्त शेष जीव आहारक होते है । (ध १/१,१४/४/ जाता है,क्योंकि कार्माण काययोगके समय नोकम बर्गणाओं के आहार १५३), (गो जी./मू./६६६) । का अधिकसे अधिक तीन समय तक विरहकाल पाया जाता है। स. सि./२/३०/१८६/११ उपपादक्षेत्रं प्रति ऋजव्या गतौ आहारक । (आहारक मार्गणामें नोकर्माहार ग्रहण किया गया है कवलाहार नहीं। जन यह जोव उपपाद क्षेत्रके प्रति ऋजुगतिमें रहता है तब आहारक दे. आहार १/६) होता है । (क्योकि शरीर छोडने व शरीर ग्रहण के बीच एक समय २ आहारक शरीर निर्देश का भी अन्तर पडने नहीं पाता। ५ अनाहारक जीव निदेश १ आहारक शरीरका लक्षण स. सि २/३६/१६१/७ सूक्ष्मपदार्थ निर्भानार्थम संयमपरिजिहीर्षया बा ष ख. १/१,१/सू १७७/४१० अणाहारा चदुसुट्ठाणेसु बिग्गहगइसमाव प्रमत्तसं यतेनाहियते निर्वत्येते तदित्याहारकम् । = सूक्ष्म पदार्थ का ण्णाण केलीण वा समुग्धाद-गदाणं अजोगिकेवली सिद्धा चेदि । १७७। ज्ञान करनेके लिए या असंयमको दूर व रनेकी इच्छासे प्रमत्त संयत --विग्रहगतिको प्राप्त मिथ्यात्व सासादन और अविरति सम्यग्दृष्टि जिस शरीरकी रचना करता है वह आहारक शरीर है । (रा वा २/ गुणस्थान गत जीव तथा समुद्घातगत सयोगि केवली, इन चार गुणस्थानोमे रहनेवाले जोव और अयोगी केवली तथा सिद्ध अनाहारक ३६/७/१४६/६) रा वा २/४६/३/१५२/२६ न ह्याहारकशरीरेणान्यस्य व्याघातो नाप्यहोते है । (स सि १/८/३३/९), (त सा २/६५) ___ म्येनाहारकस्येत्युभयतो व्याघाताभावादव्याघातीति व्यपदिश्यते। त सू २/३० एक द्वौत्रीन्वाऽनाहारक ।-विग्रहगतिमें एक, दो तथा रा,वा २/४६/८/१५३/१४ दुरधिगमसूक्ष्मपदार्थ निर्णयलक्षण माहारकम् । तीन समयके लिए जीव अनाहारक होता है । -न तो आहारक शरीर क्सिीका व्याघात करता है. न किसीसे पं.स /प्रा.१/१७७ विग्गहगइमावण्णा केवलिदो समुहदो अजोगी य । व्याघातित ही होता है, इसलिए अव्याघाती है । सूक्ष्म पदार्थ के सिद्धाय अणाहारा जीवा ।१७७१ = विग्रहगतिको प्राप्त हुए चारो निर्णय के लिए आहारक शरीर होता है। गतिके जीव, प्रतर और लोक समुद्धातको प्राप्त सयोगि केवली और ध १/१,१,५६/१६४/२६४ आहदि अणेण मुणी सुहुमे अट्ठे सयस्स अयोगि केवली तथा सिद्ध ये सब अनाहारक होते है। (ध. १/१,१,४/ सदेहे । गत्ता केवलि-पास. १६४-छठवे गुणस्थानवर्ती मुनि अपने १६/१५३), (गो जी /मू. ६६६) को सन्देह होने पर जिस शरीरके द्वारा केवली के पास जाकर सक्ष्म रा,वा २/३०/६/१४०/१२ विग्रहगतौ शेषस्याहारस्याभाव । = विग्रहगति पदार्थोंका आहरण करता है, उसे आहारक शरीर कहते है। में नोकर्मसे अतिरिक्त बाकी के कक्लाहार, लेपाहार आदि कोई भी घ १,१,५६/२६२/३ आहरति आत्मासात्करोति सूक्ष्मानानेनेति आहार नहीं होते। आहार' । = जिसके द्वारा आत्मा सूक्ष्म पदार्थोका ग्रहण करता है, गो, जी /मू.६६८ । कम्मइय अणाहारी अजोगिसिद्धेऽविणायवो। उसको आहारक शरीर कहते है। -मिथ्यादृष्टि, सासादन और असंयत व सयोगी इनकै र्मण अवस्था __ष खं. ५४/५,६/सू २३६/३२६ णिवुणाणं वा णिण्णाणं सुहवाणं वा विषै और अयोगी जिन व सिद्व भगवान इन विषै अनाहार है । अहारदव्याण सुहमदरमिदि आहारय ।२६६। क्ष. सा /मू ६१९/७३० णवरि समुग्घादगदे पदर तह लोगपूरणे पदरे। ध, १४/५,६२४०/३२७/४ णिउणा, अण्हा, मउआ...णिहां धवला मुबंधा ण त्थि तिसमये णियमा णोकम्माहारयं तत्थ ।६१६। = इतना विशेष सुट्छ सुंदरा त्ति• अप्पडिहया सुहुमा णाम । आहारदवाण मज्झे जो केवली समुद्घातको प्राप्त केवली विषै दो तो प्रतर समुद्घातके णिउणदर णिण्णदरंखधं आहारसरीरणिप्पायणटूठ आहारदि गेहदि समय (आरोहण व अबरोहण) और एक लोकपूर्ण का समय इन तीन त्ति आहारय ।-निपुण,स्निग्ध और सूक्ष्म आहारक द्रव्यो में सूक्ष्मतर समयनिवि नोकर्मका आहार नियमसे नहीं होता। है, इसलिए आहारक है ।२३६। निपुण अर्थात् अण्हा और मृदु, स्निग्ध ६ आहारक मार्गणामें नोकर्माहारका ग्रहण है कवलाहार अर्थात धवल, सुगन्ध, सुष्ठ और सुन्दर...अप्रतिहतका नाम सूक्ष्म है। आहार द्रव्योमें-से आहारक शरीरको उत्पन्न करनेके लिए निपुणतर का नहीं और स्निग्धतर स्कन्दको आहरण करता है अर्थात ग्रहण करता है, ध १/१.१,१७६/४०६/१० अत्र कवललेपोष्ममन' कर्माहारान परित्यज्य इसलिए आहारक कहलाता है। नोकर्माहारो ग्राह्य , अन्यथाहारकालविरहाभ्यां सह विरोधात । - गो जी./मू. २३७ उत्तमअगम्हि हवे धादुविहीण सुहं असंहणणं । मुहयहाँपर आहार शब्दसे कवलाहार,लेपाहार, उष्माहार, मानसिकाहार, सठाणं धवल थपमाणं पसत्थुदय ।२३७५ सो आहारक कहिारको छोड़कर नोक्र्माहारका ही ग्रहण करना चाहिए। शरीर कैसा हो रसादिक सप्तधातु करि रहित हो है। महुरि अन्यथा हार काल ओर विरहके साथ विरोध आता है। शुभ नामकर्मके उदय ते प्रशस्त अवयवका धारी प्रशस्त ७ पर्याप्त मनुष्य भी अनाहारक कैसे हो सकते हैं हो है, बहुरि संहनन करि रहित हो है बहुरि शुभ जो समध १/१.१/५०३/१ अजोगिभगवंतस्स सरीर-णिमित्तमागच्छमाणपरमाणू चतुरस्त्र संस्थान वा अंगोपांगका आकार ताका धारक हो है । णामभाव पैक्खिऊण पज्जत्ताण मणाहरितं लब्भदि। -प्रश्न-मनुष्यों बहरि चन्द्र पणि समान श्वेत वर्ण, हस्त प्रमाण हो है प्रशस्त आहामे पर्याप्त अवस्थामें भी अनाहारक होने का कारण क्या है 1 उत्तर रक शरीर बन्धननादिक पुण्यरूप प्रकृति तिनिका उदय जाका ऐसा मनुष्यो में पर्याप्त अवस्थामें अनाहारक होनेका कारण यह है कि हो है। ऐसा आहारक शरीर उत्तमाग जो है मुनिका मस्तक तहाँ अयोगिकेवली भगवान्के शरीरके निमित्तभूत आनेवाले परमाणुओंक उत्पन्न हो है। अभाव देख कर पर्याप्तक मनुष्यको भी अनाहारकपना बन जाता है। २ आहारक शरीरका वर्ण धवल ही होता है कार्माण काययोगीको अनाहारक कैसे कहते हो ध. ४/१,३,२/२८/६ त च हत्थुस्सेधं ह सधवल सव्यंगसुन्दरं । एक हाथ ध, २/१,११६६६/५ कम्ममग्गहणमस्थित्तं पडुच्च आहारित्त किण्ण उच्चदि ऊँचा, हसके समान धवल वर्ण वाला तथा सर्वांग सुन्दर होता है। त्ति भणिदे ण उच्चदि,आहारस्स तिण्णि-समय-विरहकालोबलधादो। (गो जी/मू २३७) - प्रश्न -कार्माण काययोगको अवस्थामें भी कर्म वर्गणाओके ग्रहणका ३ मस्तकसे उत्पन्न होता है अस्तित्व पाया जाता है । इस अपेक्षासे कार्माण योगी जीवोको ध.४/१,३,२/२८/७ उत्तमगसंभव । - उत्तमांग अर्थात् मस्तकसे उत्पन्न आहारक क्यो नहीं कहा जाता । उत्तर-उन्हे आहार क नही कहा होने वाला है । (गो जी मू. २३७) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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