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________________ आस्रव २८३ आहार आस्रव निर्देश १. अगृहीत पुद्गलोंका आस्रव कम होता है और गृहीत का अधिक ध४/१,५,४/३३१/४ जे णोकम्मपज्जएण परिणमिय अकम्मभाव ग तूण तेण अकम्मभावेण जे थावकालमच्छिया ते बहुवारमागच्छति, अविण चउबिहपाओग्गादो। जे पुण अप्पिदपोग्गलपरियट्टम्भतरे ण गहिदा ते चिरेण आगच्छति, अकम्मभावं ग तूण तत्थ चिरकालव ठाणेण विण ठ्ठच उविहपाओग्गत्तादो। - जो पुद्गल नोकर्म पर्याय से परिणमित होकर पुन अर्म भावको प्राप्त हो, उस अर्म भावसे अल्पकाल तक रहते है, वे पुद्गल तो बहुत बार आते है, क्योंकि उनकी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव रूप चार प्रकारकी योग्यता नष्ट नही होता है। किन्तु जो पुद्गल विवक्षित पुद्गल परिवर्तनके भीतर नहीं ग्रहण किये गये है, वे चिरकालके बाद आते है। क्योकि, अकर्म भावको प्राप्त होकर उस अवस्थामें चिरकाल तक रहनेसे द्रव्य, क्षेत्र, काल व भाव रूप संस्कारका विनाश हो जाता है। २. आस्रवमें तरतमताका कारण त सू 41 तीवमन्दज्ञाताज्ञातभावाधिकरणवीर्य विशेषेभ्यस्तद्विशेष । -- तीवभाव, मन्दभाव, ज्ञातभाव, अज्ञातभाव, अधिकरण और बीय विशेषके भेदसे उसकी अर्थात् आसवकी विशेषता होती है। ३. योगद्वारको आस्रव कहनेका कारण स सि. ६/२/३१६/५ यथा सरस्सलिलाबाहिद्वारं तदास्रवकारणत्वात् आरत्र इत्यारख्यायते तथा योगप्रणालिक्या आत्मन कर्म आस्रवतीति योग आसव इति व्यपदेशमर्हति । जिस प्रकार तालाब में जल लाने का दरवाजा जलके आनेका कारण होनेसे आसव कहलाता है उसी प्रकार आत्मामै बँधने के लिए कर्म योगरूपी नाली के द्वारा आते है इसलिए योग आस्रव सज्ञाको प्राप्त होता है। ४. विनसोपचय ही कर्म रूपसे परिणत होते हैं, फिर भी कर्मों का आना क्यों कहते हो भ.आ /वि.३८/१३४/११ ननु कर्मपुद्गलानां नान्यत' आगमनमस्ति यमाकाशप्रदेशमाश्रित आत्मा तत्रैवावस्थिता' पुद्गला. अनन्तप्रदेशिन, क्मपर्याय भजन्ते। तत् क्मुिच्यते आगच्छतीति। न दोष । आगच्छन्ति ढौकन्ते ज्ञानावरणादिपर्यायामित्येवं ग्रहीतव्यं । -प्रश्नकर्मोका अन्य स्थानसे आगमन नही होता है, जिस आकाश प्रदेशमें आत्मा है उसो आकाश प्रदेशमें अनन्तप्रदेशी पुदगल द्रव्य भी है, और वह कर्म स्वरूप बन जाता है। इसलिए "पुद्गल द्रव्य आत्मामें आते है 'आप ऐसा क्यो कहते हो । उत्तर-यह कोई दोष नही है। यहाँ पुदगल द्रव्य आता है" इसका अभिप्राय "ज्ञानावरणादि पर्याय को प्राप्त होता है" ऐसा समझना। देशान्तरसे आकर प्रदगल कर्माबस्थाको धारण करते हो ऐसा अभिप्राय नहीं है । ५. आस्रवसे निवृत्त होनेका उपाय मु.आ.२४१ मिच्छत्ताविरदीहि य कसायजोगेहिं जं च आसवदि । दसणविरमणणिमह णिरोधेहि तु णासवदि ॥२४१॥ = मिथ्यात्व, अविरति. कषाय और योगोसे जो कर्म आते है वे कर्म सम्यग्दर्शन विरति, क्षमादिभाव और योग निरोधसे नही आने पाते-रुक जाते है। स. सा./मु ७३-७४ अहमिको खलु सुद्धो णिम्मओ णाणदसणसमग्गो। तमि ठिो तच्चित्तो सव्वे एए खयं णेमि ॥७३॥ जीवणिभद्धा एए अधुब अणिच्चा तहा असरणा य। दुक्खा दुखफलात्ति य णादूण णिवत्तए तेहि ॥७४॥ स सा./आ.७४ यथा यथा विज्ञानस्वभावो भवतीति । तावद्विज्ञानधनस्वभावो भवति यावत्सम्यगात्रवेभ्यो निवर्तते । • इति ज्ञानासब. निवृत्त्यो समकालत्वं । = प्रश्न-आसबोसे किस प्रकार निवृत्ति होती है। उत्तर--ज्ञानी विचारता है कि मैं निश्चयसे पृथक हूँ, शुद्ध हूँ, ममता रहित हूँ. ज्ञान दर्शनसे पूर्ण हू, ऐसे स्वभाव में स्थित उसी चैतन्य अनुभवमे लोन हुआ मै इन काधादि समस्त आसवोको क्षय कर देता हूँ ॥७३॥ ये आस्रव जोव के साथ निबद्ध है, अध व है, और अनित्य है, तथा अशरण है, दुखरूप है, और जिनका फल दुख ही है ऐसा जानकर ज्ञानो पुरुष उनसे निवृत्ति करता है ॥७४॥ जैसा-जैसा आस्रवोसे निवृत्त हाता जाता है, वैसा-बसा विज्ञान धनस्वभाव होता जाता है । उतना विज्ञान घनस्वभाव होता है, जितना आसवोसे सम्यक् निवृत्त हुआ है। इस प्रकार ज्ञान और आस्रवकी निवृत्ति के समकालता है। भाषाकार--प्रश्न--'आत्मा विज्ञानघनस्वभाव होता जाता है' अर्थात क्या ? उत्तर-आत्मा ज्ञानमे स्थिर होता जाता है । ६. आस्रव व बन्धमे अन्तर द्र, स./टी, ३३/१४ आसवे बन्धे च मिथ्यात्वाविरत्यादि कारणानि समानानि को विशेष । इति चेत, नैव, प्रथमक्षणे कर्मस्कन्धानामागमनमास्त्रव , आगमनान्तर द्वितोयक्षणादौ जीवप्रदेशेष्ववस्थान बन्ध इति भेदः । प्रश्न- आस्रव बन्ध होनेके मिथ्यात्व, अविरति आदि कारण समान है इसलिए असव व बन्धमे क्या भेद है। उत्तर--यह शंका ठीक नहीं, क्योकि प्रथम क्षणमे जो कम स्कन्धोका आगमन है, वह तो आस्रव है और कर्मस्कन्धो के आगमनके पीछे द्वितीय क्षणमे जा उन कम स्कन्धाका जीव प्रदेशों में स्थित होना सो बन्ध है। यह भेद आसव और बन्धमे है। ७. आस्रव व बन्ध दोनों युगपत् होते है त. स.८/२ "सकषायवाज्जीव कर्मणो योग्यान्पुद्धगलामादत्ते स बन्ध ।" == कषाय सहित होनेसे जीव कर्मके योग्य जो पुद्गलोको ग्रहण करता है वह आस्रव है। (और भी दे. साम्परायिक आसवका लक्षण)। ८. अन्य सम्बन्धित विषय *आठ कर्मोके आस्रव योग्य परिणाम-दे, वह वह नाम * पुण्यपापका आस्रव तत्त्वमे अन्तर्भाव-दे, तत्व २ * कषाय अवत व क्रियारूप आस्रवोमे अन्तर-दे, क्रिया * व्यवहार व निश्चय धर्ममे आस्रव व सवर सम्बन्धी चर्चा --दै. संवर २ * ज्ञानी-अज्ञानीके आस्रव तत्वके कत्वमे अन्तर --दे, मिथ्याष्टि४ आत्रवानुप्रेक्षा-दे. अनुप्रेक्षा आहवनीय अग्नि-दे, अग्नि आहार-आहार अनेकों प्रकारका होता है। एक तो सर्व जगत प्रसिद्ध मुख द्वारा किया जानेवाला खाने-पौने वा चाटनेकी वस्तुओका है। उसे कवलाहार कहते है । जीवके परिणामो द्वारा प्रतिक्षण कर्म वर्गणाओ का ग्रहण कर्माहार है। वायुमण्डलसे प्रतिक्षण स्वत' प्राप्त वर्गणाओंका ग्रहण नोकर्माहार है। गर्भस्थ बालक द्वारा ग्रहण किया गया माताका रजश भी उसका आहार है। पक्षी अपने अण्डोंको सेते है वह ऊष्माहार है-इत्यादि। साधुजन इन्द्रियोको बशमें रखनेके लिए दिन में एक बार, खडे होकर, यथालब्ध, गृद्धि व रस निरपेक्ष, तथा पुष्टिहीन आहार लेते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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