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________________ आयु २६१ ६. आयुबन्ध सम्बन्धी नियम २. आय कम के अबक्तपाद का बन्ध करने वाले और असंख्यात के अपकर्षण और पर-प्रकृति सक्रमणके द्वारा बाधा होती है, उस भागहानि पद का बन्ध करनेताले जोब है। विशेधार्थ-- आयु कम- प्रकार आयुकर्मके आबावाकालके पूर्ण होने तक अपकर्षण और पर का अवक्तव्य बन्ध होने के बाद असतर हा बन्ध होता है। आयु- प्रकृति सक्रमणके द्वारा बाधाका अभाव है। अर्थात् आगामी भव कर्म का जब बन्ध प्रारम्भ होता है तब प्रथम समयमे एक मात्र सम्बन्धी आयुक्मंकी निषेक स्थितिमें कोई व्याघात नहीं होता है, अबक्तव्य पद ही होता है और अनन्तर अस्पतरपद होता है। फिर इस बातके प्ररूपणके लिए दूसरो बार 'आबाधा' इस सूत्रका निर्देश भी उस अल्पतर पदमें कौन-सो हानि होती है, यही बतलानेके लिये किया है। यहाँ वह असरण्यात भागहानि हो होतो है यह स्पष्ट निर्देश किया है। ६. चारो आयओंका परस्पर में संक्रमण नहीं होता ५. आयुके उत्कर्षण अपवर्तन सम्बन्धी नियम गो क /मू. ४१०/५७३ बधे । आउचउक्के ण संकमणं ॥४१०॥-बहुरि च्यारि आयु तिनकै परस्पर सक्रमण नाही, देवायु, मनुष्यायु आदि १. बद्धयमान व भुज्यमान दोनों आयुओंका अपवर्तन रूप होइन परिणमै इत्यादि ऐसा जानना। सम्भव है ७. संयमको विराधनासे आयुका अपवर्तन हो जाता है गो.क जो प्र६४३/८३७/१६ आयुर्वन्ध कुर्वता जोवानां परिणामवशेन ध ४/१.५ ६६/३८३/३ एक्को विराहियसंजदो वेमाणियदेवेन आउअं बद्धयमानस्यायुषोऽपवर्तनमपि भवति । तदेवापवर्तनधात इत्युच्यते बधिदूण तमावट्टणाघादेण घादिय भवणवासियदेवेन उबवण्णो । उदीयमानायुरपवर्तनस्यैव कदलीघाताभिधानात् । = बहुरि अायु के -विराधना की है सयमकी जिसने ऐसा कोई सयत मनुष्य वैमानिक बन्धको करते जीव तिनके परिणामनिके वशतें (बद्यमान आयुका) देवो में आयु को बॉध करके अपवर्तनाघातसे घात करके भवनवासी अपवर्तन भी हो है। अपवर्तन नाम घटनेका है। सौ या को अप- देवो में उत्पन्न हुआ। (ध. ४/१,५,६७।३८५/८ विशेषार्थ) वर्तन घात कहिए जाते उदय आया आयु के (अर्थात भुज्यमान आयु- ध. १२/४,२,७,२०/२१/३ उक्किस्साउ बधिय पुणो तं धादियामिच्छत्त के) अपवर्तनका नाम क्दलीघात है। गंतूण अग्गिदेवेमु उप्पण्णदीवायण ।- उत्कृष्ट आयुको भाँध करके २. परन्तु बद्धधमान आयकी उदीरणा नहीं होती मिथ्यात्वको प्राप्त हो, द्विपायन मुनि अग्निकुमार देवोंमें उत्पन्न हुए। गो क./मू. ६१८/११०३ । परभविय आउगस्सय उदोरणा णस्थि णिय- ८ आयुके अनुभाग व स्थितिघात साथ-साथ होते हैं मेण ॥६१८॥ बहुरि परभवका बध्यमान आयु ताकी उदीरणा नियम ध १२/४.२,६३,४१/१-२/३६५ पर उधृत "हिदिघादे हमते करि नाहीं है। अणुभागा आऊआण सव्वेसि। अणुभागेण विणा विह आउवधज्जण ३. उत्कृष्ट आयुके अनुभागका अपवर्तन सम्भव है द्विदिघादो ॥१॥ अणुभागे हमते ठिदिघादो आउआण सम्वेसि । ठिदिधावेण विणा वि हु आउवबज्जाणमणुभागो ॥२॥ स्थितिघात ध. १२/४,२,७,२०/२१/३ उक्क्स्साणुभागे बधे आवट्टणाघादो णथि चि के अनुभागोका नाश होता है । आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका अनुके वि भण ति । तण्ण घडदे, उक्कस्साउअबंधिय पुषो तं घादिय भागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥१॥ अनुभागका घात होनेमिच्छत्त गहूणअग्गिदेवेसु उप्पण्णदीवायणेण वियहिचारादो महाबधे पर सब आयुओका स्थितिघात होता है। स्थिति घातके बिना भी आउ अउक्कस्साणुभागतरस्स उब ढपोग्गलमेत्तकालपरूवणण्णहाणु आयु को छोडकर शेष कर्मोके अनुभागका घात होता है।। बवत्तीदो वा । प्रश्न-(उस्कृष्ट आयुको बाँधकर उसे अपवर्तनधातके ध. १२/४,२,७,२०/२१/८ उक्कस्साणुभागेण सह तेत्तीसाउधिय द्वारा घातकर पश्चात् अधस्तन गुणस्थानोको प्राप्त होनेपर उत्कृष्ट अणुभाग मोतूण दिदीए चेव ओवट्टणाघाद कादूण सोधम्मादिम्स अनुभागका स्वामी क्यो नही होता) उत्तर--(नहीं, क्योकि धातित उप्पण्णाणं उक्कस्सभावसामित्तं किण्ण लब्भदे। ण विणा आउअस्स अनुभागके उत्कृष्ट होनेका विरोध है)। उत्कृष्ट अनुभागको बाँधने पर उक्कस्सहिदिघादाभावादो। प्रश्न-उत्कृष्ट अनुभागके साथ सैंतीस उसका अपवर्तन घात नहीं होता, ऐसा कितने ही आचार्य कहते सागरोपम प्रमाण आयुका बाँधकर अनुभागको छोड केवल स्थितिके है। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योकि ऐसा माननेपर एक तो अपवर्तन पातको करके सौधर्मादि वेवोमें उत्पन्न हुए जीवोंके उत्कृष्ट उत्कृष्ट आयु को बाँधकर पश्चात् उसका घात करके मिथ्यात्वको अनुभागका स्वामित्व क्यो नहीं पाया जाता । उत्तर-नहीं, क्योंकि प्राप्त हा अग्निकुमार देवों में उत्पन्न हुए द्विपायन मुनिके साथ व्यभि (अनुभाग घातके) बिना आयुको उत्कृष्ट स्थितिका घात सम्भव नहीं। चार आता है, दूसरे इसका घात माने बिना महाबन्धमें प्ररूपित उत्कृष्ट अनुभागका उपाध पुद्गल प्रमाण अन्तर भी नहीं बन सकता। ६. आयु बन्ध सम्बन्धी नियम ४. असख्यात वर्षायुष्कों तथा चरम शरीरियोंकी आयु- १ तियंचोंको उत्कृष्ट आयु भोगभूमि, स्वयम्भूरमण का अपवर्तन नहीं होता द्वीप, व कर्मभूमिके प्रथम चार कालोंमें ही सम्भव है त. सू.२/५३ औपपादिकाचरमोत्तमदेहासंख्येयवर्षायुषोऽनपवायुष ति. प.५/२८५-२८६ एवे उक्कस्साऊ पुवावरविदेहजादतिरियाणं । ॥५३॥ - औपपादिक देहवाले देव व नारकी, चरमोत्तम देहवाले कम्मावणिपडिबद्धे बाहिरभागे सयंपहगिरीदो ॥२८४॥ तस्यैव सन्चअर्थात् वर्तमान भवसे मोक्ष जानेवाले भोग भूमियाँ नियंच व मनुष्य काल केई जोवाण भरहे एरवदे । तुरियस्स पठमभागे एदेणं होदि अनपवर्ती आयुवाले होते है। अर्थात् उनको अपमृत्यु नहीं होती। उनकस्सं ॥२८॥ उपर्युक्त उत्कृष्ट आयु पूर्वा पर विदेहोंमें उत्पन्न (स.सि २/५३/२०१/४) (रा.वा. २/५३/१-१०/१५७) (ध.१/४,१,६६/ हुए तिर्यंचोके तथा स्वयंप्रभ पर्वतके बाह्म कर्मभूमि- भागमें उत्पन्न ३०६/६) (त.सा. २/१३५)। हुए तियंचोके ही सर्वकाल पायी जाती है । भरत और ऐरावत क्षेत्र५. भुज्यमान आयु पर्यन्त बद्धयमान आयुमें बाधा के भीतर चतुर्थ कालके प्रथम भागमें भी किन्हीं तिर्यचोंके उक्त असम्भव है उत्कृष्ट आयु पायी जाती है। घ.६/११-६.२४/१६८/५ जधा णाणावरणादिसमयपबद्धाण मंधावलिय २. भोग भूमिजोंमें भी आयु होनाधिक हो सकती है बदिताणं ओकडुण-परपडि-संकमेहि बाधा अस्थि, तधा आउ- ध १४/४,२,६.८1८६/१३ अखेज्जवासाउअस्स वा त्ति उत्ते देवणेहअस्स ओकडण-परपयडिस कमादीहि बाधाभाव परूवणठ्ठ विदिय- याणां गहण, ण समयाहियपुवकोडिप्पहुडिउवरिमाउअतिरिक्खवारमाबाधाणिद्दे सादो। = (जैसे) ज्ञानावरणादि कर्मों के समयप्रबद्धों- मणुस्साणं गहणं । = 'असंख्यातवर्षायुष्क' से देव नारकियोका ग्रहण उप जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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