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________________ आयु २५९ ४. आठ अपकर्ष काल निर्देश १६. कषाय व लेश्याको अपेक्षा आय बन्धके २० स्थान गो जो / २६५-६३६ (विशेष देखो जन्म ६/७) शक्ति स्थान ४ । लेश्या स्थान १४ । आयुबन्ध स्थान २० १ | शिला भेद |१, कृष्ण उ अबन्ध समान १/ नरकायु पृथ्वी भेद |१| कुष्ण म. समान | २ कृष्णादि म उ. . कृष्णादि २म. +१ उ. | नरक तिर्यञ्चायु नरक तिर्यञ्च मनुष्यायु ४ | कृष्णादि ३ म सर्व | ०४ roorrm +१ज. ५ कृष्णादि ४ म +१ज कृष्णादिम +१ ज. कृष्णादि १ज + म ३ धूलिरेखा समान 20 mr. , सर्व सर्व ३ मनुष्यदेव व तिर्यञ्चायु मनुष्य देवायु १ देवायु , |५| कृष्ण बिना १ज+४म ४ कृष्ण, नील बिना १ज,+३ म पीतादि १ उ. +२ म | पद्म, शुक्ल १ज +१म. | शुक्ल १ म. शुक्ल १उ बार आयु बन्धके योग्य परिणामोमें-से परिणत होते है। क्योंकि, ऐसा स्वभाव है। उसमें जिन जीवोने तृतीय त्रिभागके प्रथम समयमें परभव सम्बन्धी आयुका बन्ध आरम्भ किया है वे अन्तर्मुहर्त में आयु बन्धको समाप्त कर फिर समस्त आयु स्थितिके नौवे भागके शेष रहनेपर फिरसे भी आयु बन्धके योग्य होते है। तथा समस्त आयु स्थितिका सत्ताईसवाँ भाग शेष रहनेपर पुनरपि बन्धके योग्य होते है । इस प्रकार उत्तरोत्तर जो त्रिभाग शेष रहता जाता है उसका त्रिभाग शेष रहनेपर यहाँ आठवे अपकर्ष के प्राप्त होनेतक आयु बन्ध के योग्य होते है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए। परन्तु विभाग शेष रहने पर आयु नियमसे बँधती है ऐसा एकान्त नहीं है। किन्तु उस समय जीव आयु बन्धके योग्य होते है। यह उक्त क्थनका तात्पर्य है । (गो क /जी प्र ६२६-६४३/८३६) गो,जी /जो प्र ५१८/११३/१७ कर्मभूमितिर्यग्मनुष्याणां भुज्यमानायुर्जघन्यमध्यमोत्कृष्ट विवक्षितमिद ६५६१ । अत्र भागद्वयतिक्रान्ते तृतीयभागस्य २१८७ प्रथमान्तर्मुहू परभवायुबंधयोग्य , तत्र न बद्धं तदा तदक भागतृतीयभागस्य ७२६ प्रथमान्तर्मुहर्त्त । तत्रापि न बद्ध तदा तदेकभागतृतीयभागस्य२४३प्रथमान्तर्मुहूर्त । एवमग्रेऽग्रे नेतव्यमष्टवार यावत् । इत्यष्ट वापृर्षा । स्वभावादेव तद्बन्ध प्रायोग्यपरिणमनं जीवाना कारणान्तरनिरपेक्षमित्यर्थ । -किसी कर्मभूमि या मनुष्य या तिर्यव्चको आयु ६५६१वर्ष है। तहाँ तिस(आयुका दो भाग गए २१८७ वर्ष रहै तहाँ तीसरा भागको लागते ही प्रथम समस्यास्यो लगाइ अन्तर्मुहूर्त पर्यंत काल मात्र प्रथम अपकर्ष है तहाँ परभव सम्बन्धी आयु का बन्ध होइ । बहुरि जो तहाँ न बम्धे तौ तिस तीसरा भागका दोय भाग गये ७२६ वर्ष आयु के अवशेष रहै तहाँ अन्तर्मुहर्त काल पर्यन्त दूसरा अपकर्ष है तहाँ पर भवका आयु बाँधे । बहुरि तहाँ भी न बधै तो तिसका भी दोय भाग गये २४३ वर्ष आयुके अवशेष रहै अन्तर्मुहूर्त काल मात्र तीसरा अपकर्ष विर्षे परभवका आयु बाँधै । बहुरि तहाँ भी न बधै तो जिसका भी दोय भाग गये ८१ वर्ष रहै अन्तर्महूर्त पर्यन्त चौथा अपकर्ष विर्षे परभव का आयु मॉधै ऐसे ही दोय दोय भाग गये २७ वर्ष वा ६ वर्ष रहै वा तीन वर्ष रहै अन्तर्मुहूर्त काल पर्यन्त पाँचाँ , छठा, सातवाँ वा आठवाँ अपकर्ष विषै परभवका आयुको बधनेको योग्य जानना। जैसेंही जोभुज्यमान आयुका प्रमाण होई ताकै त्रिभागत्रिभाग विर्षे आयुके बन्ध योग्य परिणाम अपकर्षनि विर्षे ही होई सो असा कोई स्वभाव सहज ही है अन्य कोई कारण नही। २. भोगभूमिजों तथा देव नारकियोंकी अपेक्षा आठ अपकर्ष ध.६/१.६-६,२६/१७०/१ देव णेरइएसु छम्मासाबसेसे भंजमाणाउए असखेयाद्धापज्जवसाणे सते परभवियमाउअ बंधमाणाणं तदस भवा । • असखेज तिरिक्वमणुसा देव णेरइयाणं व भुजमाणाउए छम्मासादो अहिए सते परभविआउअस्स बंधाभावा । भुज्यमान आयुके (अधिकसे अधिक) छह मास अवशेष रहने पर और (कमसे कम) असंखेयादा कालके अवशेष रहने पर आगामी भव सम्बन्धी आयुको बाँधनेवाले देव और नार कियोके पूर्व कोटिके त्रिभागसे अधिक आबाधा होना असम्भव है। (वहाँ तो अधिकसे अधिक छह मास ही आबाधा होती है) असख्यात वर्ष की आयु वाले भोग-भूमिज तिर्यच व मनुष्योके भी देव और नारकियोके समान भुज्यमान आयके छह माससे अधिक होने पर परभव सम्बन्धी आयु के बन्धका अभाव है। ध.१०/४,२,४,३६/२३४/२ णिरुवकमाउआ पुण छम्मासाबसेसे आउअ. बंधपाओग्गा होति । तस्थ वि एव चैव अगरिसाओ बत्तवाओ। =जो निरुपक्रमायुष्क है वे भुज्यमान आयुमें छह मास शेष रहने पर आयु बन्धके योग्य होते है। यहाँ भी इसी प्रकार आठ अपकर्षको कहना चाहिए। अबन्ध ४ जलरेखा समान ४. आठ अपकर्ष काल निर्देश १. कर्मभूमिजोंकी अपेक्षा ८ अपकर्ष ध १०/४,२,४,३६/२३३/४ जे सोवक्कमाउआते सग-सग भंजमाणाउट्ठिदीए बेतिभागे अदिक्कते परभवियाउअबंधपाओग्गा होति जाब असखेयद्धा त्ति । तत्थ बन्धपाओग्गकालब्भन्तरे आउबन्धपाओग्गपरिणामेहि के वि जीया अट्ठवार के वि सत्तवारं के वि छव्वार के वि पचवार के वि चत्तारिवार, के वि तिण्णिवार के वि दोवार के वि एकवार परिणमंति। कुदो। साभावि यादो। तत्थ तदियत्तिभागपढमसमए जेहि परमवियाउ अबन्धो पारद्धोते अंतोमुहत्तेण बंध समाणिय पुणो सयलाउट्ठिदोए णव मभागे सैसे पुणो वि बन्धपाओग्गा होति । सयलाउठ्ठिदीए सत्तावीसभागावसेसे पुणो वि बन्धपाओग्गा होति । एव सेसतिभाग तिभागावसेसे बन्धपाओग्गा होति त्तिणेदव्वं जा अट्ठमी आगरिसा त्ति । ण च तिभागाव सेसे आउअणियमेण बज्झदि त्ति एयन्तो । किंतु तत्य आउअब वपाओग्गा होति त्ति उत्त होदि । =जो जीव सोपक्रम आयुष्क है वे अपनी-अपनी भुज्यमान आयु स्थितिके दो त्रिभाग बोत जानेपर वहाँसे लेकर असंखेयाद्धा काल तक परभवसम्बन्धी आयुको बाँधनेके योग्य होते है। उनमें आयु बन्धके योग्य कालके भीतर कितने ही जीब आठ बार, कितने ही सात बार; कितने ही छह बार, कितने ही पॉच बारः कितने ही चार बार, कितने हो तीन बार, कितने ही दो बार, कितने ही एक जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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