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________________ आयु परधनहरणमिति परिणाम परदारादिनमस्माभि कृत तपतीपाशोभनं । यथास्महाराणां परे मंहगे दुखमात्मसाक्षिक तथा मिति परिणामः । यथा गङ्गादिमहानदीनां अनवरत प्रवेशेऽपि न तृप्ति सागरस्येव द्रविणेनापि जीवस्य संतोषो नास्तीति परिणाम' । वनाविपरिणामाना दुर्लभता अनुभवसिद्धेव हम तीन, मध्यम-इन (तीव्र, व मन्द) परिणामोंमें जो मध्यम दिसादि परिणाम है वे मनुष्यपनाके उत्पादक हैं। (तहाँ उनका विस्तार निम्न प्रकार जानना ) १. चारों कायोंकी अपेक्षाका खिंची हुई रेखाके समान क्रोध परिणाम, लकडी के समान मान परिणाम, गोमूत्राकारके समान माया परिणाम, और कीचडके रंगके समान लोभ परिणाम ऐसे परिणामों मनुष्यपनाकी प्रति होती है। - २. हिंसा को अपेक्षा जो बात करनेपर हा मैने कार्य इट किया है, मरण हमको अप्रिय हैं सम्पूर्ण प्राणियों को भी उसी प्रकार वह अप्रिय है, जगत् में अहिंसा ही श्रेष्ठ व कल्याणकारिणी है। परन्तु हम हिंसादिकों का त्याग करनेमें असमर्थ हैं। ऐसे परिणाम... ३ असत्यकी अपेक्षा- झूठे पर दोषों को कहना, दूसरों के सद्गुण देखकर मन में द्वेष करना, असत्य भाषण करना यह दुर्जनोंका आचार है। साधुओके अयोग्य ऐसे नियम और खोटे काम हम हमेशा प्रवृत्त हैं, इसलिए हममें सज्जनपना कैसा रहेगा । ऐसा पश्चात्ताप करना रूप परिणाम । " ४. चोरीकी अपेक्षा दूसरोंका धन हरण करना यह शखप्रहारसे अधिक दुखदायक है का विनाश होने से सर्व कुटुम्बका ही बिनाश होता है, इसलिए मैंने दूसरोंका धन हरण किया है सो अयोग्य कार्य हमसे हुआ है. ऐमे परिणाम । ह्मचर्य की अपेक्षा हमारी खीका किसी ने हरण करनेपर जैसा हमको अतिशय कष्ट दिया है जैसा उनको भी होता है यह अनुभवसे प्रसिद्ध है। ऐसे परिणाम होना । - ६. परिग्रहकी अपेक्षा - गंगादि नदियाँ हमेशा अपना अनन्त जल लेकर समुद्र में प्रवेश करती है तथापि समुद्र की तृप्ति होती ही नहीं । यह मनुष्य प्राणी भी धन मिलनेसे तृप्त नहीं होता है। इस तरहके परिणाम दुर्लभ है। ऐसे परिणामोसे मनुष्यष्नाकी प्राप्ति होती है। गो. क / मू८०६ / ६८३ डोए तणुकसाओ दाणरदी सीलसजम विहीणो । मज्झिमगुणेहि जुत्तोमणुवाउं बधदे जोवो ॥८०६ ॥ जो जीव विचार मिना प्रकृति स्वभाव ही करि मंद कपायी होइ, दशनविषे प्रीतिसंयुक्त होइ, शील संयम कर रहित होड, न उत्कृष्ट गुण न दोष ऐसे मध्यम गुणनिकर संयुक्त होइ सो जीव मनुष्यायु कौं बाँधे है । ८. शलाकापुरुषों की आयुके बन्धयोग्य परिणाम ति. प. ४/५०४ -५०६ एदे चउदस मणुओ पदिसुदिपहृदि हु णाहिरायंता । पुण्यमम्मि विदेहे राजकुमारामहाकुले जादा ३०४ कुखा दाणादीसुं संजमतवणाणवंत पत्ताणं णियजोग्गअणुडाणा मद्दव अज्जवगुणेहि संजुत्ता ॥४०५॥ मिच्छत्त भावणाए भोगाउं बधिऊण ते सव्वे । पच्छा खाम्गेहति विवरणमूलम् ॥५०॥ प्रतिभूतिको आदि लेकर नाभिराय पर्यन्तमें चौदह मनु पूर्वभवमें विदेह क्षेत्रके भीतर महाकुलमें राजकुमार थे ॥ ५०४ ॥ वे सब संयम तप और ज्ञानसे युक्त पत्रोंके लिए दानादिकके देनेमें कुशल अपने योग्य अनुष्ठान से संयुक्त और मान आर्जव गुणोंसे सहित होते हुए पूर्व मिध्या भावना भोगभूमिको आयुको बाँधकर पश्चात् जिनेन्द्र भगवा चरणोंके समीप क्षायिक सम्यक्त्वको ग्रहण करते है ॥२०५ - २०६॥ ९. सुभोग भूमि मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम ति. १.४/३६५-६७१ भोगमहीए सव्वे जायंते मिच्छभावसंजुत्ता | मंदसायामाया पेसुग्मादपरिणा ॥३६॥ मसाहारा मधुमोम परिषता सच्चा मदरहिश नारियपरदारपरिहीणा ३६६ | गुणधरगुणे रत्ता जिणपूळं जे कुणं ति परवसतो। उववासतणुस Jain Education International २५६ ३. आयुकर्मके वघयोग्य परिणाम 1 शहिपणा ॥ २७ आहारदाणगिरदा दी वरमलजोगते विमत्ततरसंजमेसु य विमुक्त भन्ती ॥१६८॥ पूर्व मद्धवराज पंच्छा तित्यमरपाल पदयसम्म काय के भोगभूमी ॥३६॥ एवं मिध्याद्विनिग्गधा दीन दरगाह । दादू पुग्णामही के जाति ॥२७०॥ आहाराभवदागं विविहोसहपत्यादिदा सेसेोदादू भोगभूमि जायते॥१०१॥भोग भूमिमें वे सग जीव उत्पन्न होते है जो मियाभावसे युक्त होते हुए भी, मन्दकषायी हैं, पैशुन्य एवं असूयादि द्रव्योंसे रहित हैं, मांसाहार त्यागी है, मधु मद्य और उदुम्बर फलों के भी स्यागी हैं, सत्यवादी है, अभिमानसे रहित हैं, वेश्या और परलोके त्यागी है, गुणियों में अनुरक्त है, पराधीन होकर जिनपूजा करते हैं, उपनास से शरीरको कृश करनेवाले है, आर्जव आदिसे सम्पन्न है, तथा उत्तम एवं विविध प्रकारके योगों से युक्त, अत्यन्त निर्मल सम्यक्त्वके धारक और परिग्रहसे रहित ऐसे यतियोको भक्तिसे आहार देनेमें तत्पर है ॥२६५१६८ जिन्होंने पूर्व भनमें मनुष्यायुको बाँध लिया है, पा तीर्थकरके पाद में क्षायिक सम्यदर्शन प्राप्त किया है. ऐसे कितने ही समष्टि पुरुष भी भोगभूमिमें उत्पन्न होते हैं |२| इस प्रकार कितने ही मिध्यादृष्टि मनुष्य निग्रन्थ यतियोको दानादि देकर पुण्यका उदय आनेपर भोगभूमिमें उत्पन्न होते है ॥ ३७० ॥ शेष कितने ही मनुष्य आहार दान, अभयदान, विविध प्रकारको औषध तथा ज्ञानके उपकरण पुस्तकादिके दानको देकर भोगभूमिमें उत्पन्न होते है। " 1 १०. कुभोग भूमिज मनुष्यायुके बन्धयोग्य परिणाम ति./४/२५००-२५१९ मिम्मि रताण मंदसाया पित्रा कुडिला धम्मफलं तामिच्छा देवेस भतिष | २५०० दण सखिलदजियअसणादिकसु किलिट्ठा। पंचग्गितवं विसमं कार्य किलेस चकुता २०१॥ सम्मत्तरयणहीना कुमासा जलदउपत अण्णा अण्णा निमज्जता ॥२५०२० दिमागव्विदा साहूकुति किचि अपना सम्मतवदार्थ जे निग्धा दुसषा देखि ॥२५०३॥ जे मायाचाररदा स जमत जोगवजिदा पावा | इड्ढिरससादगारवगरुषा जे मोहमायणा ॥२५०४ समुहमादिचार के माहोपति गुरुजणसमये सहा वंदना गुरुसहिदा कुति ॥२०५॥ जे पति एकाकिनो दुराचारा जे फोन म सबैसित २५०६ ॥ आहारसम्म सत्ता लोहसाए जणिदमोहा जे परिपन कृति पोर १२५०० जे कुम्म ति पति अरहंताणं साहेब साहूणजे बाल विहोना पापमि २०ति प्यहुदि जिग लिंग धारिणो हिठ्ठा । कृष्णाविवाहपदि संदरूपेण जे पकुति ॥२५०१ भुति विहिणा मोणेण घोर पावसंलग्गा । अण अण्णदरुदयादो सम्भतं जे विणासति ॥ २५१०॥ ते कालवस पत्ता फलेण पावाण विसमपाकाण । उपति कुरूमा कुमासा जल हिदिने | २१११॥ मियाथमें रत, मन्द कषायी, प्रिय बोलनेवाले, कुटिल, धर्म फलको खोजनेवाले, मिथ्यादेवो की भक्ति में तत्पर, शुद्ध ओदन, सलिलोदन व कांजी खाने के कष्टसे संक्लेशको प्राप्त विषम पचाग्रि तप, व कामक्लेशको करनेवाले, और सम्यक्त्वरूपी रत्न से रहित अधन्य जीव अज्ञानरूपी जल में डूबते हुए समुद्रकेोपमें कुमानुष उत्पन्न होते है । २३००-२५०२ ॥ इसके अतिरिक्त जो लोग तीव्र अभिमानसे गर्वित होकर सम्यक्त्व व तपसे युफ साधुओका किंचित् भी अपमान करते है, जो दिगम्बर साधुओ की निन्दा करते है, जो पापी संयम उप व प्रतिमायोगसे रहित होकर मायाचारमें रत रहते है, जो ऋद्धि रस और सात इन तीन गारवों से महान् होते हुए मोहको प्राप्त है जो स्थूल व सूक्ष्म दोषोंकी गुरुजनों के समीप आलोचना नहीं करते है, जो गुरुके साथ स्वध्याय व वन्दना कर्मको नहीं करते हैं, जो दुराचारी मुनि को छोडकर एकाकी रहते है, जो क्रोध से सबसे कलह करते है, जो आहार संज्ञामें आसक्त जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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