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________________ २३९ आगमन टीका), (न्यायकि सापटी, १/१/१२), (प्रमाणमीमांसा २५) ( कल्पभाष्य गा २८५) आवश्यकनिक ८८० अन्य महत्व द्वात्रिंशदोषरहित में च । लक्षणयुक्त सूत्र अष्टेन च गुणेन उपमेयं । अप परिमाण हो, महत्वपूर्ण हो, बतोस दोषो से रहित हो, आठ गुणो से युक्त हो, वह सूत्र है (अनुयोगद्वारा सू १२७) (सहभाग. २०० २८२), (व्यवहारभाष्य १६० ) ४. वृत्तिसूत्रका लक्षण = कपा २/२/१२/१४/६ सुत्तस्सेव विवरणाए सखित्त सहरयणाए सगहिसुतसे सत्याए वित्तिमुत्तववएसादो। जो सूत्रका ही व्याख्यान करता है, किन्तु जिसकी शब्द रचना संक्षि है, और जिसमें सूत्रके समस्त अर्थको संगृहीत कर लिया गया है, उसे वृत्ति सूत्र कहते हैं । ५. जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हों वह सूत्र नहीं असूत्र है .पा १/९.१५/१९३३/१६/दिग अवरा असुत्त गाहा । जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित हो वह सूत्र गाथा है, और जिससे विपरीत अर्थ अर्थात जिसके द्वारा अनेक अर्थ सूचित न हो वह सूत्र गाथा है । ६ सूत्र वही है जो गणधरादिके द्वारा कथित हो भा.३४ सुतं गणधरनधि सहेन पययुद्धकहिय च सुदा कहिये अभिनदसविधि च ॥ गणधर रक्षित आागमको सूत्र कहते है। प्रत्येक बुद्ध ऋषि के द्वारा कहे गये आगमको भी सूत्र कहते हैं, श्रुतकेबली और अभिन्नदशपूर्व धारक आचार्योंके रचे हुए बागम ग्रन्थको भी सूत्र कहते है ( . २७७), (४. १३/५०० १२०/३४/२८९), (क.पा. १/६०/१५३) ७. सूत्र तो जिनदेव कथित हो है परन्तु गणधर कथित भी सूत्र के समान है क पा. १/१९.१५/३१२०/१९५४ ९द सर्व्वं पि सुत्तलक्खण जिणवयगकमलविपदा चैव संभव गर तत्थ महापरिमाणसुवल भादो णः सच (त) सारिरिस प्रश्न - यह सम्पूर्ण सूत्र लक्षण तो जिनदेव के मुख कमलसे निकले हुए 'अर्थ पदोंमें सम्भव है, गणधर के मुखकमलसे निकली ग्रन्थ रचनामैं नहीं, क्योंकि उनमें महापरिमाण पाया जाता है ' उत्तर-नहीं, क्योंकि गणधर के वचन भी सूत्रके समान होते है । इसलिए उनकी रचनानें भी सुपर के प्रति कोई विरोध नहीं है। ८. प्रत्येक बुद्ध कथितमें भी कथंचित् सूत्रत्व पाया जाता है क.पा १/१५/३११६/१५३/६ दाओ गाहाओ सुतं गणहर पत्तेय- बुद्धकेवल अभिदस पुगी गुणहर भडारस्स अभावाद न दिस पनवर उताणेहि सुतेण सरिसत्तमनस्थिति गुणहराहरियगाहाणं मित्तल भादो । प्रश्न- यह ( कषाय पाहुडकी १८०) गाथाएँ सूत्र नहीं हो सकती, क्योंकि इनके कर्ता) गुणधर भट्टारक न गर हैं, न प्रत्येक बुद्ध हैं, न श्रुतकेवली है, और न अभिन्नदश पूर्वी ही है। उत्तर-नहीं, खोकि निर्दोषत्व अल्पाक्षरत्य और सहेतुकत्व रूप प्रमाणों के द्वारा गुणधर भट्टारकी गाथाओं की सूत्र संज्ञाके साथ समानता है। · आगमन जीवोंके आगमन निर्गमन सम्बन्धी धोरा दे, जन्म ६ आगम नयदे, नय 1 | १ | Jain Education International आगम पद्धति ि आगम वाषिताि आगमाभास दे आगम 1/2 1 आगाल स. सा / मी. प्र. ८८ / १२३/६ द्वितीय स्थितिद्रव्यस्यवशात्प्रथम स्थितावागमनमागाल । द्वितीय स्थितिके निषेकनिकौ अपकर्षण करि प्रथम स्थितिके निषेकनि विषै प्राप्त करना ताका नाम आगाल है । २. प्रत्यागालका लक्षण .सा./१२/१ प्रथमस्य तिव्यस्योत्कर्षमशाह द्वितीयस्थिती गमनं प्रयागास इत्युच्यते प्रथम स्थिति निषेकनिके द्रव्य की उत्कर्षण करि द्वितीय स्थितिके निषैकनि विषै प्राप्त करना ताका नाम प्रत्यागाल है । आचाम्ल वर्द्धन जैन सन्देश १३,१५५ में श्री रत्नचन्द मुख्तयार । नोट - अन्तरकरण हो जानेके पश्चात् पुरातन मिथ्यात्व कर्म तो प्रथम व द्वितीय स्थिति में विभाजित हो जाता है. परन्तु नया बन्धा कर्म द्वितीय स्थिति में पड़ता है । उसमें से कुछ द्रव्य अपकर्षण द्वारा प्रथम स्थितिके निषेकको प्राप्त होता है उसको आगाल कहते है । फिर इस प्रथम स्थितिको प्राप्त हुए द्रव्यों में से कुछ द्रव्य उत्कर्षण द्वारा पुनः द्वितीय स्थितिके निषेकों को प्राप्त होता है उसको प्रत्यागाल कहते हैं । आग्नेय- "पूर्व दक्षिणवाली विदिशा । आग्नेयीधारणा अग्नि आज्ञा स.म २९/२३/० आ सामस्त्येनानन्तधर्मविशिष्टता हाय बुद्धयन्ते जीवाजीवादय पदार्थाः यया सा आज्ञा आगम शासनम् । समस्त अनन्त धर्मोसे विशिष्ट जीव अजीवादिक पदार्थ जिसके द्वारा जाने जाते है वह आप्तकी आज्ञा आगम या जिनशासन कहलाती है। १ आज्ञापिनी भाषा - दे. भाषा । आज्ञाविचयधर्मध्यानधर्मान । आज्ञाव्यापादिकी क्रिया - दे. क्रिया ३/२। आज्ञासम्यक्दर्शन- सम्यदर्शन/ दे. | आचरित एक दोष वसति आचाम्ल आ / २६१/४०३ मदसमदुबालासेहिं भरोहि अदिविकट्ठेहिं । मिदलहूगं आहारं करेदि आयंबिलं बहुसो ॥२५९॥ दो दिनका उपवास, तीन दिनका उपवास, चार दिनका उपवास, पाँच दिनका उपवास, ऐसे उत्कृष्ट उपवास होनेके अनन्तर मित और हलका ऐसा (आचाम्ल) काँजी भोजन ही क्षपक बहुश करता है। वसु श्रा, २५ की टिप्पणीमें अभिधान राजेन्द्रकोश "आयबिलं - अम्लं चतुर्थी रसः स एव प्रायेण यने यत्र भोजने ओदन-मापप्रभूति तदाचाम्ल आलिमपि तवि मिमि मदहि तिनि ज ॥१०२॥ सिंसंठि मिरीमेही सोवश्चल च विउलवणे हिगुसुगंधिसु पाए पकप्पए साइयं वत्थु ॥१०३॥ - - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only . साध / टी, ५/३५ काँजी सहित केवल भातके आहारको आचाम्लाहार कहते है। * आचान्साहारकी महत्ता दे, सीखना ४/१२ । आचाम्ल वर्द्धन दे. सौवीर भुक्ति व्रत । www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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