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________________ आगम २२८ १. आगम सामान्य निर्देश हस्तियूथशतमस्ति इति च विसंवादात ॥५१-५४॥ = रागी, द्वेषी और अज्ञानी मनुष्यों के वचनोसे उत्पन्न हुए आगमको आगमाभास कहते है। जैसे कि बाल को दौडो नदीके किनारे बहुत-से लड्डू पडे हुए है । ये वचन है। और जिस प्रकार यह है कि अगुलोके आगेके हिस्सेपर हाथियोके सौ समुदाय है। विवाद होनेके कारण ये सब आगमाभास है। अर्थात लोग इनमें विवाद करते है इसलिए ये आगम झूठे है। ३ नोआगमका लक्षण ध. १/१,१,२/२०/७ आगमादो अण्णो णो-आगमो। आगमसे भिन्न पदार्थको नोआगम कहते है। ४. शब्द या आगम प्रमाणका लक्षण न्या सू /म.१/१/७/१९ आप्तोपदेश शब्द -आप्तके उपदेशको शब्द प्रमाण कहते है। ५. शब्द प्रमाणका श्र तज्ञानमें अन्तर्भाव रा.वा. १/२०/१५/७/१८ शाब्दप्रमाण श्रुतमेव । -- शब्द प्रमाण तो श्रुत है ही। गो.जी/भा ३१३ आगन नाम परोक्ष प्रमाण श्रुतज्ञानका भेद है। ६. आगम अनादि है ज..प. १३/८०-८३ देवासुरिंदमहिय अणंतसुहपिडमोक्खफलपउर' । कम्ममलपडलदलणं पुण्ण पवित्तं सिर्व भद्द १८०॥ पुठनागभेदभिण्णं अणत अत्येहिं सजुदं दिळां । णिच्च कलिकलुसहरणिकाचिदमणुत्तरं विमल ॥८१।। संदेहतिमिरदलण बहुविहगुणजुत्तंसग्गसोवाणं । मोक्ख ग्गदारभूद णिम्मलबुद्धिसंदोह॥८॥सव्वण्हुमुहबिणिग्गयपुब्बावरदोसरहिदपरिसुद्ध। अक्वयमणादिणि हणं सुदणाणपमाण णिहिट -पूर्व व अंग रूप भेदों में विभक्त, यह श्रुतज्ञान-प्रमाण देवेन्द्रों व असुरेन्द्रोंसे पूजित, अनन्त सुखके पिण्ड रूप मोक्ष फलसे संयुक्त, कर्म रूप पटलके मलको नष्ट करनेवाला, पुण्य पवित्र, शिव, भद्र, अनन्त अर्थोंसे संयुक्त, दिव्य नित्य, कलि रूप कलुषको दूर करनेबाला, निकाचित, अनुत्तर, विमल, सन्देहरूप अन्धकारको नष्ट करनेवाला, बहुत प्रकारके गुणोसे युक्त स्वर्गकी सीढी, मोक्षके मुख्य द्वारभूत, निर्मल, एवं उत्तम बुद्धिके समुदाय रूप, सबके मुखसे निकला हुआ, पूर्वापर विरोध रूप दोषसे रहित विशुद्ध अक्षय और अनादि निधन कहा गया है ॥८०-८३॥ ७. आगम गणधरादि गुरु परम्परासे आगत है रा.वा.4/१३/२/५२३/२६ तदुपदिष्टं बुद्धयतिशयद्धियुक्तगणधरावधारितं श्रुतम् ॥२॥ केवलो भगवान के द्वारा कहा गया तथा अतिशय बुद्धि ऋद्धिके धारक गणधर देवो के द्वारा जो धारण किया गया है उसको श्रुत कहते हैं। ८. क्षागमज्ञानके अतिचार भ-आ. वि १६/६२/१५ अक्षरपदादीनां न्यूनताकरणं, अतिवृद्धिकरणं, विपरीत पौर्वापर्यरचनाविपरीतार्थनिरूपणा ग्रन्थार्थयोपरीत्यं अमी ज्ञानातिचारा । अक्षर, शब्द,वाक्य, वरण, इत्यादिकोको कम करना बढाना, पीछेका सन्दर्भ आगे लाना, आगेका पीछे करना, विपरीत अर्थका निरूपण करना, ग्रन्थ व अर्थ में विपरीतता करना ये सब ज्ञानातिचार हैं । (भ आ./वि.४८७/७०७) ९. श्रुतके अतिचार भ आ./बि.१६/६२/१५ द्रव्यक्षेत्रकालभावशुद्धिमन्तरेण श्रुतस्य पठनं श्रुतातिचार'। द्रव्यशुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, कालशुद्धि, भाव शुद्धिके बिना शाखका पढना यह श्रुतातिचार है। १०. द्रव्यश्रुतके अपुनरुक्त अक्षर दे. अक्षर-३३ व्यञ्जन, २७ स्वर और चार अयोगवाह, इस प्रकार सब अक्षर ६४ होते हैं। उन अक्षरोके संयोगोकी गणना २६४१८४४६७४४०७३७०६५५१६१६ होती है। ध. १३/१,५/१४/१८-२०/२६६/४ सोलससदचीत्तीसं कोडी तेसीद चेव लक्रवाई। सत्तसहस्सट्ठसदा अट्ठासीदा य पदवण्णा ॥१८॥ एद पि संजोगक्रवरसंवाए अव द्विदं, बुत्तपमाणादो अक्खरेहि वढि-हाणीणभावादो । बारससदकोडीओ तेसीदि वति तह य लक्रवाई। अट्ठावण्णसहस्सं पंचव पदाणि सुदणाणे ॥२०॥ एत्तियाणि पदाणि घेत्तूण सगल सुदणाणं होदि। एदेसु पदेसु संजोगक्रवराणि चेव सरिसाणि ण संजोगक्खरावयवक्रखराणि; तरथ संखाणियमाभावादो। - १६३४८३०७८५८ इतने मध्यम पदके वर्ण होते है ॥१८) • यह भी संयोगी अक्षरोकी अपेक्षा (उपरोक्तवत) अव स्थित है। क्योकि उसमें उक्त प्रमाण से अक्षरों की अपेक्षा वृद्धि और हानि नहीं होती । श्रुतज्ञानके एक सौ बारह करोड तिरासी -लाख अट्ठावन हजार और पाँच (११२८३५८००५) ही (कुल मध्यम) पद होते हैं ॥१॥ इतने पदोंका आश्रय कर सकल श्रुतज्ञान होता है, इन पदोंमें संयोगी अक्षर ही समान है, संयोगो अक्षरों के अवयव अक्षर नहीं. क्योकि, उनकी संख्याका कोई नियम नहीं है। (स.सि १/२०/४१०-४१५, १/२०/ ४२४ की टिप्पणी जगरूप सहाय कृत) (ह.पु. १०/१४३) (क पा १/७ ७०/८६-६६)। क.पा. ११-१/$७२/१२/२ मज्झिमपद • एदेणपुव्वं गाणं पदसंखा परूविज्जदे। -मध्यम पदके द्वारा पूर्व और अगो पदों की संख्याका प्ररूपण किया जाता है। ध १/. नाम पद अक्षर प्रमाण प्रमाण.लानेका उपाय कुल अक्षर ६४ उपरोक्तवत अपुनरुक्त १८४४६७४४०७३- एक द्वि आदि सयोगी भंगो सयोगी अक्षर | ७०६५५१६१६ ६४४६ .. का जोडा इत्यादि अंगश्रुतके सर्व । ११२८३५८००५ | अपुनरुक्त अक्षर + मध्यम पद पदोमें अक्षर मध्यम पदोमें 1१६३४८३०७८८८ नियत(इनसे पूर्व और अगोके अक्षर विभागका निरूपण होता है) १६६ / शष अक्षर 1 ८०१०८१७५ । शेष अक्षर+३२ १४ प्रकीर्णको के प्रमाण या खण्ड पदमें (गो.जी /जी प्र. ३३६/७३३/१) (ध. १३/५,५,४५/२४७-२६६) ११ श्रुतका बहुत कम भाग लिखने में आया है ध ३/१,२,१०२/३६३/३ अत्थदो पुणो तेसिं विसेसो गणहरेहि विण बारिज्जदे। - अर्थ की अपेक्षा जो उन दोनोंकी त्रय कायिक लब्ध्यपर्याप्तक जीव तथा पंचेन्द्रिय लब्ध्यपर्याप्तक जीवोकी सख्या प्ररूपणा में विशेष है, उनका गणधर भी निवारण नहीं कर सकते हैं। गो जी/मू ३३४/७३१ पण्णव णिज्जाभावा अणन्तभागो दू अणभिलप्पाणं । पण्णवणिज्जाणं पुण अणं तभागो सुदणि बद्धो ॥३३४॥ = अनभिलप्यानां कहिए वचनगोचर नाही, केवलज्ञानके गोचर जे भाव कहिए जीवादिक पदार्थ तिनके अनन्तवे भागमात्र जीवादिक अर्थ ते प्रज्ञापनीया कहिये तीर्थकरकी सातिशय दिव्य ध्वनिकरि कहने में आवै ऐसे है। बहुरि तीर्थङ्करकी दिव्य ध्वनि करि पदार्थ कहनेमे आवै है तिनके अनन्तवे भाग मात्र द्वादशाग श्रुत विर्षे व्याख्यान कीजिये है। जो श्रतकेवली को भी गोचर नाही ऐसा पदार्थ कहनेकी शक्ति केवल ज्ञान जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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