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________________ अहेतुमत २१८ आकार अहेतुमत्-पा./पं जयचन्द/६ जो सर्व की आज्ञा ही करि केवल प्रमाणता मानिए सो अहेतुमत है। अहंतु समास्या सू./मूब भा.५०१/१८ त्रै काल्यासिद्ध हतोरहेतुसम ॥१८॥ हेतु साधन तत्साध्यात् पश्चात्सह वा भवेत् । यदि पूर्व साधनमस्ति असति साध्ये कस्य साधनम् । अथ पश्चाव, असति साधने कस्येद साध्यम् । अब युगपत्साध्यसाधने। द्वयोविद्यमानयोः कि कस्य साधनं किं कस्य साध्यमिति हेतुरहेतुना न विशिष्यते। अहेतुना साधात प्रत्यवस्थानमहेतुसम' - तीनो कालमें वृत्तिताके असिद्ध हो जानेसे अहेतुसमा जाति होती है। अर्थात साध्यस्वरूप अर्थ के साधन करने में हेतुका तीनो कालो में वर्तना नहीं बननेसे प्रत्यवस्थान देनेपर अहेतुसमा जाति होती है। जैसे-हेतु क्या साध्य से पूर्वकालमें वर्तता है, अथवा क्या साध्यसे पश्चात उत्तरकालमें वर्तता है अथवा क्या दोनो साथ-साथ वर्तते है। प्रथम पक्षके अनुसार साधनपना नहीं बनता क्योकि साध्य अर्थ के बिना यह किसका साधन करेगा। द्वितीय पक्षमे साध्यपना नहीं बनता, क्यो कि साधन अभावमें वह किसका साध्य कहलायेगा। तृतीय पक्षमे किसी एक विवक्षितमें ही साधन या साध्यपना युक्त नही होता, क्योंकि, ऐसी अवस्थामे किसको किमका साधन कहे और किसको किसका साध्य । ___ (श्लो.वा ४/न्या ३६५/५१४/१६) अहोरात्रि-काल प्रमाणका एक भेद । -दे. गणित I/१/४ । [ आ ] आकस्मिक भय-दे, भय । आकांक्षा-१ इच्छाके अर्थ में आकाक्षा-दे, अभिलाषा, २. साकक्ष व निराकाक्ष अनशन-दे अनशन, ३ नि काक्षित अंग-दे निकांक्षित। आकार-इस शब्दका स धारण अर्थ यद्यपि वस्तुओका सस्थान होता है, परन्तु यहाँ ज्ञान प्रकरण में इसका अर्थ चेतन प्रकाशमे प्रतिभासित होनेवाले पदार्थो की विशेष आकृतिमें लिया गया है और अध्यात्म प्रकरणमे देशकालावच्छिन्न सभी पदार्थ साकार कहे जाते है। १. भेद व लक्षण १. आकारका लक्षण--(ज्ञानज्ञेय विकल्प व भेद) रा वा १/१२/१/५३/६ आक रो विकल्प । = आकार' अर्थात् विकल्प (ज्ञानमें भेद रूप प्रतिभास)। क.पा १/१,१५/६३०१, ३३१/१ पमाणदो पुधभूदं कम्ममायारो। -प्रमाणसे पृथग्भूत कर्मको आकार कहते है। अर्थात प्रमाणमे (या ज्ञानमे) अपने से भिन्न बहिभूत जो विषय प्रतिभासमान होता है उसे आकार कहते है। क पा १/१,१५/६३०७/३३८/३ आयारो कम्मकारयं सयलत्थसत्थादो पुध काऊण बुद्धिगायरमुवणीयं । सकल पदार्थोके समुदायसे अलग होकर बुद्धि के विषय भावको प्राप्त हुआ कर्मकारण आकार कहलाता है। (ध. १३/५,५,१६/२०७/७) म प्र. २४/१०२ भेदग्रहणमाकार प्रतिवमव्यवस्थाः ॥१०२॥ = घट पट आदिकी व्यवस्था लिये हुए किसी वस्तुके भेद ग्रहण करनेको आकार कहते है। द्र सं/टी, ४३/१८६/६ आकारं विकल्पं, केन रूपेण । शुक्लोऽय, कृष्णोऽय, दीर्घोऽयं, ह्रस्वोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि । विकल्प को आकार कहते है। वह भी क्सि रूपसे १ 'यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छाया है, यह घट है, यह पट है' इत्यादि । --दे आकार २/१,२,३ (ज्ञेयरूपेण ग्राह्य)। २. उपयोगके साकार अनाकार दो भेद त.सू २/४ स द्विविधोऽष्ट चतुर्भेद ॥६॥ = वह उपयोक क्रमसे दो प्रकार, आठ प्रकार व चार प्रकार है। स सि. २/१/१६३/७ स उपयोगो द्विविध -ज्ञानोपयोगो दर्शनोपयोगश्चेति । ज्ञानोपयोगोऽष्टभेद दर्शनोपयोगश्चतुर्भेद । -वह उपयोग दो प्रकारका है-ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग। ज्ञानोपयोग आठ प्रकारका है और दर्शनोपयोग चार प्रकारका है । (नि सा /मू. १०), (प.का /मू ४०), (न.च वृ.११६), (त सा. २/४६), (द्र संमू.४)। पं में प्रा १/१७८ । उबओगो सो दुविहो सागारो चेव अणागारो। - उपयोग दो प्रकारका है - साकार और अनाकार । (स सि २/8/१६३/१०), (रावा . २/४/१/१२३/३०), (ध २/१,१/४२०/१), (ध १३/५, ५.१६/२०७/४), (गो.जी /मू. ६७२), (व सं/सं १/३३२) । ३. साकारोपयोगका लक्षण पं.सं./प्रा १/१७६ मइसुइजी हिमणेहि य ज सय विसय बिसेसविण्णाण । अतोमुत्तकालो उवओगो सो हु सागारो ॥१७६॥ - मति, श्रुत, अवधि और मन पर्ययज्ञानके द्वारा जो अपने अपने विषयका विशेष विज्ञान होता है, उसे साकार उपयोग कहते है। यह अन्तर्मुहूर्त काल तक होता है ॥१७॥ क पा १/१,१५/३३०७/३३८/४ तेण आयारेण सह बट्टम ण सायार1 उस आकारके साथ जो पाया जाता है वह साकार उपयोग कहलाता है। (घ. १२/५.५,१६/२०७/७) आंत-दे अंतडी। आंतराच्या .वि./ १/१३/२०१/२६ अन्तश्चेतसि भवा आन्तरा'। -अन्तर गमें होवे सो आन्तरा है। आंदोलन करण-दे अश्त्र कर्णकरण । आंध्र-१ मध्य आर्यखण्डका एक देश ।-दे मनुष्य ४, २ (म पु./प्र. ५०/प पन्नालाल)-गोदावरी व कृष्णा नदीके बीचका क्षेत्र। इसकी राजधानी अन्ध नगर (वेगो) थी। इसका अधिकांश भाग भाग्यपुर (हैदराबाद) में अन्तर्भूत है। इसीको त्रैलिग (तेल गा) देश भी कहते है। ३ (ध १/५ ३२/H.L.Jain) सितारा जिलेका वह भाग भी आन्ध देशमें ही था जिसमें आज वेण्या नदी बहती है, तथा जिसमें महिमानगढ नामका ग्राम है। आंध्र वंश-(ध.१/प्र.३२/HL.Jain) इस वशका राज्यकाल ई. पू २३२-२२५ (वी नि २६४-३०१) अनुमान किया जाता है। आवली-व्रत विधान सग्रह । पृ. २६ रसोके बिना नीरस केवल एक अन्न जल के साथ लेना आवली' आहार है। आंसिक-भरत क्षेत्रके दक्षिण आर्यखण्डका एक देश।--दे मनुष्य ४। आ-स.सि.१६/२७२/२) 'आइ' अयमभिविध्यर्थ ।-'ड' यह अभिविधि अर्थ में आया है। (अर्थात् 'आ' पद तक' अर्थ में सीमाका प्रयोजक है।) आकपित-आलोचनाका एक दोष। -दे. आलोचना २। आकर-म पु भाषाकार १६/१७६ जहॉपर सोने चाँदी आदिकी खान हुआ करती है उस स्थानको 'आकर' कहते है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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