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________________ अस्तित्व नय २ अस्तेय निर्देश हरता है, न दूसरोको देता है, सो स्थूलचोरीसे विरक्त होना अर्थात अचौर्याणवत है। (वसु श्रा. २११) (गुणभद्र श्रा. १३५) स सि ७/२०/१५८/ अन्यपीडाकर पार्थिवभयादिवसादवश्य परित्यक्तमपि यददत्त तत प्रतिनिवृत्तादर श्रावक इति तृतीयमणुक्तम् । श्रावक राजाके भय आदिके कारण दूसरेको पीडाकारी जानकर बिना दी हुई वस्तुको लेना यद्यपि छोड देता है तो भी बिना दी हुई वस्तुके लेनेसे उसकी प्रीति घट जाती है इसलिए उसके तीसरा अचौर्याणवत होता है । (रा. वा ७/२०/३/५४७/१०) का. अ ३३५-३३६ जो बहुमुल्ल बत्थु अपयमुल्ले ण णेब गिण्हेदि । बीसरिय पिण गिण्हदि लाहे थोवे वि तुसेदि ॥३३५॥ जो परदव्वं ण हरदि मायालोहेण कोहमाणेण । दिढचित्तो सुद्धमई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ --जो बहुमूल्य वस्तुको अल्पमूल्यमें नहीं लेता, दूसरेकी भूली हुई वस्तुको भी नहीं उठाता, थोडे लाभसे ही सन्तुष्ट रहता है ॥३३॥ तथा कपट लोभ माया व क्रोधसे पराये द्रव्यका हरण नही करता वह शुद्धमति दृढनिश्चयी श्रावक अचौर्याणुवती ह्यवान्तरसत्ता। प्रतिनियत वस्तु (द्रव्य) मे व्यापनेवाली या प्रतिनियत एक रूप (गुण) में व्यापनेवालो या प्रतिनियत एक पर्यायमे व्यापनेवाली अवान्तर सत्ता है। प्रसा/ता वृ १६/१२६/१७ मुक्तात्मद्रव्यस्य स्वकीयगुण पर्यायोत्पादव्ययधौव्य सहस्वरूपास्तित्वाभिधानमवान्तरास्तित्वभिन्न व्यवस्थापित । -सुक्तात्मद्रव्यके स्वकीय गुणपर्यायोका उत्पादव्ययधौव्यताके जो स्वरूपास्तित्वका अभिधान या निर्देश है वही अभिन्न रूपमे अवान्तर सत्ता स्थापित की गयी है। पंध.१/२६६ अपि चावान्तरसत्ता सदनद्रव्यं सद्गुणश्च पर्याय । सच्चोत्पादध्वसौ सदिति धौव्यं किले ति विस्तार ॥२६६॥ -- तथा सत् द्रव्य है, सत् गुण है और सत पर्याय है। तथा सत ही उत्पाद व्यय है, सत ही धोव्य है, इस प्रकारके विस्तारका नाम ही निश्चयसे अवान्तर सत्ता है। ४ सादृश्य अस्तित्व या महासत्ता प्रसामु १७ इदं तु सादृश्यास्तित्वाभिधानमस्तै ति कथयति-(उत्थानिका) । इह विविहलक्खणाण लक्खण मगं सदिति सब्बगय । उवदिसदा खलु धम्म जिणवरवसहेण पण्णत्त । -यह सादृश्यास्तित्वका कथन है -- धर्मका बास्तवमें उपदेश करते हुए जिनवरवृषभने इस विश्व मे विविध लक्षणवाले (भिन्न-भिन्न स्वरूपास्तित्ववाले) सर्व द्रव्यो का 'सत्' ऐसा सर्वगत एक लक्षण कहा है। प्र. सा/त प्र/६७ स्वरूपास्तित्वेन लक्ष्यमाणानामपि सर्व द्रव्याणामस्तमितचे चित्र्यप्रपञ्च प्रवृत्त्य वृत प्रतिव्यमासूत्रित सीमान भन्दत्स दिति सर्वगत सामान्यलक्षणभूत सादृश्यास्तित्वमेक वस्त्रवबोधव्यम् । (यद्यपि सर्व द्रव्य) स्वरूपास्तित्वसे लक्षित होते है, फिर भी सर्बद्रव्योका विचित्रताके विस्तारको अस्त करता हुआ, सर्व द्रव्यो में प्रवृत्त होकर रहनेवाला, और प्रत्येक द्रव्यको बन्धी हुई सीमाकी अवगणना करता हुआ 'सत्' ऐसा जो सपंगत सामान्य लक्षण भूा सादृश्य अस्तित्व है वह वास्तवमे एक ही जानना चाहिए। d का /त प्र./८ सर्व पदार्थसार्थव्यापिनी सादृश्यास्तित्व सुचिका महा सत्ता प्रौक्तेव । - सर्व पदार्थ समूहमें व्याप्त होनेवाली सादृश्य अस्तित्वको सूचित करनेवाली महासत्ता ही जा चुकी है। नि सा/ता वृ/३४ समस्तवस्तुविस्तारव्यापिनी महासत्ता, समस्तव्यापकरूपव्यापिनी महासत्ता, अनन्तपर्यायव्यव्यापिनी महासत्ता। - समस्तवस्तु विस्तारमें व्यापनेवाली, अर्थात् छहो द्रव्यो व उनके समस्त भेद प्रभेदोमे व्यापनेवाली तथा समस्त व्यापक रूपों (गुणो) में व्यापनेवाली तथा अनन्त पर्यायोमे व्यापनेवाली महासत्ता है। (प्र सा/ता वृ. १७/१३०/१४) अस्तित्व नय-दे नय 1/५ । अस्ति नास्ति भग-दे सप्तभगो/४ । अस्ति नास्ति प्रवाद-दे श्रुतज्ञान III अस्तेय-१. भेद व लक्षण १. अस्तेय का लक्षण त सू ७/१२/३५२/१२ अदतादानं स्तेयम् ॥१५॥ स सि ७/१५३५३/६ यत्र सक्लेशपरिणामेन प्रवृत्तिस्तत्र स्तेयं भवति वाह्यावस्तुनो ग्रहणे चाग्रहणे च । बिना दो हुई वस्तुका लेना स्तेय है ॥१५॥ इस कथन का यह अभिप्राय है कि वाह्य वस्तु ली जाय या न ली जाय किन्तु जहाँ सक्लेशरूप परिणाम के साथ प्रवृत्ति होती है, वहाँ स्तेय है। २. अस्तेय अणुव्रत का लक्षण र. क. श्रा ५७ निहितं वा पतित वा सुविस्मृत वा परस्वमविसृष्ट। न हरति यन्न च दत्ते तदकृशचौर्यादुपारमण । जो रखे हुए तथा गिरे हुए अथवा भूले हुए अथवा धरोहर रखे हुए परद्रव्यको नही सा ध४/४६ चौरव्यपदेशक रस्थूलस्तेयव्रतो मृतस्वधनात् । परमुदकादेश्चारिखनभोग्यान्न हरेद्दददाति न परस्थ ॥४६॥ - 'चोरी' ऐसे नामको करनेवाली स्थूल चोरीका है वत जिसके ऐसा पुरुष या श्रावक मृत्युको प्राप्त हो चुके पुत्रादिक्से रहित अपने कुटुम्बी भाई बगैरहके धनसे तथा सम्पूर्ण लोगों के द्वारा भोगने योग्य जल, घास आदि पदार्थोसे भिन्न अर्थात् इनके अतिरिक्त दूसरेके धनको न तो स्वय ग्रहण करे और न दूसरेके लिए देवे। ३. अस्तेय महावत का लक्षण नि सा /म ५८ गामे वा णयरे वा रणे वा पेच्छिऊण परमत्थ। जो मु चदि गहण भाव तिदियबद होदि तस्सेव ॥५८ग्राममें, नगरमें या वनमें परायी वस्तुको देखकर जो उसे ग्रहण करनेके भावको छोडता है उसको तीसरा (अचौर्य) महावत है। भू आ ७,२६१ गामादिसु पडिदाई अप्पप्पहूदि परेण संगहिदं । णादाणं परदव्व अदत्तपरिवज्जण त तु॥७॥ गामे णगरे रणे थूल सचित्त बहसपडिनरव । तिविहेण वज्जिदव्य अदिपणगहणं च तण्णिचं ॥२६॥ = ग्राम आदिकमें पड़ा हुआ, भूला हुआ, रखा हुआ इत्यादि रूपसे अल्प भी स्थूल सूक्ष्म वस्तुका दूसरेकर इकट्ठा किया हुआ ऐसे परद्रव्यको ग्रहण नहीं करना वह अदत्तत्याग अर्थात अचौर्य महावत है ॥७॥ ग्राम नगर वन आदिमें स्थूल अथवा मूक्ष्म, सचित्त अथवा अचित्त, बहुत अथवा थोडा, भी स्वर्णादि, धन धान्य, द्विपद चतुष्पद आदि परिग्रह बिना दिया मिल जाये तो उसे मन वचन कायसे सदा त्याग करना चाहिए । वह अचौर्य व्रत है ॥२६॥ २. अस्तेय निर्देश १. अस्तेय अणुव्रतके पॉच अतिचार त सू ७/२७ स्तेनप्रयोगतदाहृतादानविरुद्धराज्यातिक्रमहीनाधिक्मानोन्मानप्रतिरूपकव्यवहारा ॥२७॥ -१.चोरी करनेके उपाय बतलाना, २. चोरी का माल लेना, ३ राज्य नियमोके विरुद्ध ब्लैक मार्केट करना या टैक्स चुङ्गी बचाना, ४ मापने व तोलनेके गज बाट कमती बढ़नी रखना, ५ अधिक मूल्यकी वस्तुमे कम मूल्यकी वस्तु मिलाना--ये पाँच अस्तेयके अतिचार है। र क श्रा१८) (अन्य भी श्रावकाचार) साध ४/५० में उद्धृत = यशस्तिल कचम्पू-मानवन्न्यनताधिक्ये स्तेन कर्म ततो ग्रह । विग्रहे सग्रहोऽर्थ स्यास्तेनस्यैते निवर्तका। जो वस्तु तोलने या मापने योग्य है, उसे देते समय कम तौलकर, लेते समय अधिक तौलवर या अधिक मापकर लेना, चोरी कराना, पोरी के माल लेना, और युद्ध के समय पदार्थोंका संग्रह करना--ये पाँच अचौर्याणुवतके अतिचार है। जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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