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________________ अवस्थान २०२ अविनेय (या द्रव्य) नित्य है त। मो वे स्वभाव से ही प्रतिसमय परिण मन करते रहते है । वह परिणमन हो उन गुणों (या द्रव्यों) को अवस्था अवस्थान-स्वस्थान स्वस्थान, विहारवत् स्वस्थान उपपाद, आदि जोवोंके विभिन्न अवस्थान ।-दे. क्षेत्र । अवस्थित-स.सि. १/४/१७१४९धर्मादीनि षडपि द्रव्याणि कदाचिदपि षडिति इयत्त्वं नातिवतन्ते । ततोऽवस्थितानीत्युच्यते । धर्माविक छहाँ द्रव्य कभी भी छह, इस संख्याका उल्लंघन नहीं करते, इसलिए वे अवस्थित कहे जाते हैं। अवस्थित अवधिज्ञान-दे. अवधिज्ञान। अवस्थित गुणश्रेणी-दे. संक्रमण/८ । अवस्थित बंध-दे. प्रकृति बंध/१ । अवांतर सत्ता-दे, अस्तित्व । अवाक्-दक्षिण दिशा। अवाय १. अवायका लक्षण ष, ख. १३/५/सू. ३६/२४३ अवायो ववसायो बुद्धी विण्णाणि आउडी पञ्चाउडी ॥३६॥ - अवाय, व्यवसाय, बुद्धि, विज्ञप्ति, आमुण्डा और प्रत्यामुण्डा ये पर्याय नाम हैं। स.सि.१/१४/११/६ विशेषनि नाद्याथात्म्यावगमनमवायः । उपतननिपतनपक्षविक्षेपादिभिर्वलाकैवेयं न पताके ति। -विशेषके निर्णय द्वारा जो यथार्थ ज्ञान होता है उसे अवाय कहते हैं। जैसे उत्पतन, निपतन, पक्ष-विक्षेप आदिके द्वारा 'यह बक पंक्ति ही है, वजा नहीं' ऐसा निश्चय होना अवाय है । (ध. १३/५.५,२३/२१८/६) रा.बा./१/११/३/40/4 भाषादि विशेष निर्ज्ञानात्तस्य याथात्म्येनावगमनमवायः। 'दाक्षिणात्योऽयम्, युवा, गौरः' इति वा -भाषा आदि विशेषों के द्वारा उस ( ईहा द्वारा गृहोत पुरुष) की उस विशेषताका यथार्थ ज्ञान कर लेना अवाय है, जैसे यह दक्षिणी है. युबा है या गौर है इत्यादि । (न्या, दी./२/११/३२/६) ध. १३/५४५,३६/२४३/३ अवेयते निश्चीयते मीमांसितोऽर्थोऽनेनेत्यवायः । -जिसके द्वारा मीमांसित अर्थ 'अवेयते' अर्थात् निश्चित किया जाता है वह अवाय है। ध.4/१६-१.१४/१७/७ ई हितस्पार्थस्य संदेहापोहनमवायः।-ईहा ज्ञानसे जाने गये पदार्थ विषयक सन्देहका दूर हो जाना (या निश्चय हो जाना) अपाय है । (ध. १/१,१,११५/३५४/३) (घ.६/४,१,४/१४४/७) ज, प. १३/५६,६३ ईहिदत्यस्स पुणो थाणु पुरिसो त्ति बहुवियप्पस्स । जो णिच्छियावबोधो सो दु अवाओ बियाणाहि ॥५६॥ जो कम्मकलुसरहिओ सो देवो त्थि एत्थ संदेहो। जस्स दु एवं बुद्धी अबायगाणं हवे तस्स ॥६३॥ यह स्थाणु है या पुरुष, इस प्रकार बहुत विकल्परूप ईहित पदार्थ के विषयमें जो निश्चित ज्ञान होता है उसे अवाय जानना चाहिए ॥५६॥ जो कर्म मलसे रहित होता है वह देव है, इसमें कोई सन्देह नहीं है, इस प्रकार जिसके निश्चयरूप बुद्धि होती है उसके अवायज्ञान होता है ॥६॥ २. इस ज्ञानको अवाय कहें या अपाय रा.बा. १/१५/१३/११/१ आह-किमयम् अपाय उत अवाय इति । उभयथा न दोषः । अन्यतरवचनेऽन्यतरस्यार्थ गृहीतरवाव। यथा 'न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्य पायं त्यागं करोति तदा 'औदीच्यः' इत्यबायोऽधिगमोऽर्थगृहीतः । यदा च 'औदीच्या; इत्यवायं करोति तदा 'न दाक्षिणात्योऽयम्' इत्यपायोऽर्थ गृहीतः -प्रश्न-अवाय नामठीक है या अपाय ! उत्तर-दोनों हो ठोक हैं, क्योंकि एकके वचनमें दूसरे का ग्रहण स्वतः हो जाता है। जैसे अब 'यह दक्षिणी नहीं है ऐसा अपाय त्याग करता है तब 'उत्तरी है। यह अवाय-निश्चय हो ही जाता है। इसी तरह उतरी है' इस प्रकार अवाय या निश्चय होनेपर दक्षिणी नहीं है यह अराय या त्याग हो ही जाता है। ३. अन्य सम्बन्धित विपर। १. अवायज्ञानको 'मति' व्यपदेश कैसे ! -दे. मतिज्ञान ३ २. अब ग्रहसे अवाय पर्यन्त मतिज्ञानको उत्पत्तिका क्रम -दे. मतिज्ञान ३. अवग्रह व अवायमें अन्तर --दे. अवग्रह २ ४. आय व तज्ञान में अन्तर -दे. श्रुतज्ञान । ५. अवायवधारणामें अन्तर -दे. धारणा २ अविकल्प · दे. विकल्प। अविकृतिकरण-आलोचनाका एक दोष-दे. आलोचना २। अविज्ञातार्थ-न्या. म. म.-२/8 परिपत्ततिकादिभ्यां त्रिरभि. हितमप्य विज्ञातम विज्ञातार्थ म ४॥ न्या. सू./भा.५-२६ यदाक्यं परिषदा प्रतिवादिना च त्रिरभिहितमपि न विज्ञायन्ते श्लिष्टशब्दमप्रतीत प्रयोगमतिद्रुतःचरितमित्येवमादिना कारणेन तद विज्ञातमविज्ञाताथमसामर्थ्यसंवरणाय प्रयुक्तमिति निग्रहस्थानमिति।। -जिस अर्थ को वादी ऐसे शब्दोंसे कहे जो प्रसिद्ध न हों, इस कारण से, या अति शीघ उच्चारण के कारण से, या उच्चारित शब्द के बर्थवाचक ह नेग अथवा प्रयोग प्रतीत न हानेसे, तीन बार कहनेपर भी वादोका बाका किसो सभासद्, विद्वान और प्रतिवादी न समझा जाये ती ऐसे कहनेसे वा 'अभिज्ञातार्य नामानिया स्थानमें आकर हार जाता है। (श्लो. बा./न्या ०१/३८४/६) अविचार-दे, विचार । अवितथ-दे. विदथ। अविद्धकर्ण-१. एक प्रसिद्ध नैयायिक-समय ई० ७६२ (सि.वि./ प्र.४/१० महेन्द्रकुमार): २. एक प्रसिद्ध चार्वाक आचार्य-समय ई.श. ८ (स.वि./प्र.७४/पं. महेन्द्रकुमार) अविनाभाव-प.मु. ३/१६ सहकमभावनियमोऽविनाभावः ॥१६॥ = सहभाव नियम तथा क्रमभाव नियमको अधिनाभाव कहते हैं । (न्या. दी. ३/४६/६३/५) पं.ध.५/४६१ अवि नाभावोऽपि यथा येन बिना जायते न तसिदि। -जिसके बिना जिसकी सिद्धि न होय उसको अविनाभावी सम्बन्ध कहते हैं। २. अविनाभावके भेद प.मु. ३/१६ सहकमभावनियमोऽविनाभाव: । - अविनाभाव सम्बन्ध दो प्रकारका है - एक सहभाव, दूसरा क्रमभाव । ३. सहभाव व क्रमभाव : विनानाभावके लक्षण प.मु. ३/१७-१८ सहचारिणोाप्यव्यापकभाव योश्च सहभावः ॥१५॥ पूर्वोत्तरचारिणोः कार्यकारण योश्च क्रमभावः ॥१८॥ =साथ रहनेवाले में तथा व्याप्य और व्यापक पदार्थों में सहभाव नियम नामका अविनाभाव होता है, जैसे द्रव्य व गुणमें ॥१॥ पूर्व चर व उत्तरचरों में तथा कार्यकारणों में क्रमभाती नियम होता है। जैसे-मेघ व बर्षामें । ४. विनाभावका निर्णय तर्क द्वारा होता है प.मु. ३/१६ तत्तिनिर्णयः ॥१६॥ - तर्कसे इसका निर्णय होता है। अविनेय-(स सि, ७/११/३४६/१०) तत्त्वार्थ श्रवण ग्रहणाभ्यामसंपादितगुणा अविनेयाः । -जिनमें जीवादि पदार्थोंको सुनने व ग्रहण करनेका गुण नहीं है वे अविनेय कहलाते हैं । (रा. वा. ७/१९४८ ५३८/२६) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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