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________________ अवधिज्ञान १९७ ८. अवधिज्ञानको विषय सीमा गुणा दिखाई देता है।..."जितनी जघन्य अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र है"ऐसा प्रतिपादन करने वाले सूत्र के साथ उक्त कथनका विरोध होता है। अबधिज्ञानी एक आकाशप्रदेशसूचीरूपसे जानता है, यह कहना भो युक्त नहीं है, क्योंकि, ऐसा माननेपर बह जघन्य मतिज्ञानसे भी जघन्य प्राप्त होता है और जघन्य द्रव्यके जाननेका अन्य उपाय भी नहीं रहता। इसलिए जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा अवरुद्ध हुए सब क्षेत्रको उठाकर धनप्रतरके आकाररूपसे स्थापित करनेपर सूक्ष्म निगोद लब्धपर्याप्तक जीवकी जघन्य अवगाहना प्रमाण होता है, ऐसा यहाँ ग्रहण करना चाहिए। प्रश्न-जघन्य अवधिज्ञानसे सम्बन्ध रखनेवाले क्षेत्रका क्या विष्कम्भ है, क्या उत्सेध है, और क्या आयाम है ? उत्तर - इस सम्बन्ध में कोई उपदेश उपलब्ध नहीं होता। किन्तु घनप्रतराकाररूपसे स्थापित अवधिज्ञान सम्बन्धी क्षेत्रका प्रमाण उत्सेध धनांगुलके असंख्यात. भाग है, यह उपदेश अवश्य ही उपलब्ध होता है। ध.६/४,१,२/२२/८ सहमणिगोदजहण्णोगाहणमेत्तमेदं सम्वं हि जहणोहिक्वेत्तमो हिणाणिजीवस्स तेण परिछिज्जमाणदब्बस्स य अंतरमिदि के वि आइरिया भगं ति । णे घडदे, मुहमणिगोद जहणोगाहणादो जहण्णोहिखेतस्स असंखेज्जगुणत्तप्पसं गादो। कधमसंखेज्जगुणतं । जहण्णोहिणाणविसयवित्थारूस्सेहे हि आयामे गुणिज्जमाणे तस्तो असंखेज्जगुणत्तसिद्धीदो। ण चासंखेज्जगुणतं संभवदि, जद्द हि मुहमणिगोदस्स जहणोगाहणा तद्द हि चेव जहण्णे हिखेत्तमिदि भणं तेण गाहामुत्तेण सह विरोहादो। - सूक्ष्म निगाद जोवकी जघन्य अवगाहना मात्र यह सब हो जघन्य अवधिज्ञानका क्षेत्र, अबधिज्ञानी जोध और उसके द्वारा ग्रहण किये जानेवाले द्रव्य का अन्तर है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं। परन्तु यह घटित नहीं होता, क्योंकि, ऐसा स्वीकार करनेसे सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहनासे जघन्य अबधिज्ञानके क्षेत्रके असंख्यातगुणे होनेका प्रसंग आवेगा । प्रश्नअसंख्यातगुणा कैसे होगा ? उत्तर - क्योंकि जघन्य अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्र के विस्तार और उत्सेधसे आयामको गुणा करनेपर उससे असंख्यात गुणत्व सिद्ध होता है। और असंख्यात गुणव सम्भव है नहीं, क्योंकि, जितनी सूक्ष्म निगोदकी अवगाहना है उतना ही जघन्य अवधिका क्षेत्र है।' ऐसा कहनेवाले गाथा सूत्रके साथ विरोध आता है। ध.६/४.१,४/४८/७ परमोहिउहस्सखेत्तं तप्पाओगअसंखेजरूवेहि गुणिदे सम्वोहए उकस्सखेत्तं होदि । सम्बोहिउक्कस्सखेत्तुप्पायण? परमोहिउक्स्स खेतं तिस्से चेव चरिम अणबहिदगुणगारेण आवलियार असंखेज्जदिभागपप्पण्णेण गुणिज्जदि त्ति के नि भणति। तण्णघडदे. परियम्मे वुत्तओहिणि बद्धखेत्ताणुप्पत्तीदो।= परमावधि के उत्कृष्टक्षेत्रको उसके योग्य असंख्यातलोकोंसे गुणित करनेपर सर्वाधिका उत्कृष्ट क्षेत्र होता है। सर्वावधिके उत्कृष्टक्षेत्रको उत्पन्न कराने के लिए परमावधिके उत्कृष्ट क्षेत्रको आवलोके असंख्यातवें भागसे उत्पन्न उसके ही अन्तिम अनवस्थित गुण कारसे गुणा किया जाता है, ऐसा कोई आचार्य कहते हैं, किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि ऐसा माननेपर परिकम में कहे हुए अवधिसे निबद्ध क्षेत्र नहीं बनते। ४. देवोंके ज्ञानको क्षेत्रप्ररूपणा परिमाण-नियामक नहीं स्थान नियामक है गो. जो. जी.प्र. ४३२/८५३/७ इदं क्षेत्रपरिमाणनियामक न किंतु तत्रतनस्थाननियामकं भवति । कुतः । अच्युतान्ताना विहारमार्गेण अन्यत्रगतानां तत्रैव क्षेत्रं तदबध्युत्पत्यम्युगमाव ।- ऐसा इहाँ क्षेत्रका परिमाण कीया है, सो स्थानका नियमरूप जानना । क्षेत्रका परिमाण लीये नियमरूप न जानना । जाते अच्युत स्वग पर्यन्तके वासी विहारकरि अन्य क्षेत्रको जाँइ अर तहाँ अवधि होइ तो पूर्वोक्त स्थानक पर्यन्त हो होइ । ऐसा नाहीं जो प्रथम स्वर्गवाला पहिले मारक जाइ और तहाँ सेती डेढ राजू नीचें और जाने । सौधर्मतिकके प्रथम नरक पर्यन्त अवधिक्षेत्र है सो तहाँ भी तिष्ठता तहाँ पर्यन्त क्षेत्रको ही जानै वैसे सर्वत्र जानना। ५. कालकी अपेक्षा अवधि त्रिकालग्राही ध.६/१,६-१,१४/२७/३ ओहिणाणम्मि पक्कक्रनेण वट्टमाणासेसपज्जायविसिट्ठवत्युपरिच्छित्तीए उपलं भा. तीदाणाद-असं खेज्जपज्जायविसिट्ठवत्यु दंसणादो च । = अवधिज्ञानमें प्रत्यक्षरूपसे वर्तमान समस्त पर्यायविशिष्ट वस्तुका ज्ञान पाया जाता है, तथा भूत और भावी असंख्यातपर्याय-विशिष्ट वस्तु का ज्ञान देखा जाता है। (ध. १/४.१,४४/१२७/८), (ध. १३/५.५,५६/३०५/३; ३०८/8; ३१०/११) (ध. १५/८/२) ६. भावको अपेक्षा पुदगल व संयोगी जीवको पर्यायों को जानता है स सि. १/१०/१३४/१० रूपिष्वपि भवन सर्व पर्यायेषु, स्वयोग्ये ज्वे वेत्यबधारणार्थमसर्व पर्यायेष्वित्यभिसम्बन्ध्यते । = रूपी पदार्थों में होता हुआ भी उनकी सब पर्यायों में नहीं होता किन्तु स्वयोग्य सीमित पर्यायों में ही होता है इस प्रकारका निश्चय करनेके लिए 'असर्व. पर्यायेषु' पदका सम्बन्ध होता है। रा, वा. १/२७/४/८/१६ 'असर्व पर्यायेषु' इत्येताहणमनुवर्तते ।...ततो रूपिषु पुदगलेषु प्रागुक्तद्रव्यादिपरमाणुषु, जीवपर्यायेषु औदायिकोपशमिकक्षायोपशमिकेयूत्पद्यतेऽवधिज्ञानम् रूपिद्रव्यसम्बन्धात न क्षायिक पारिणामिकेषु नापि धर्मास्तिकायादिषु तत्सम्मन्धाभावात । -- इस सूत्र में असर्व पर्याय की अनुवृत्ति कर लेनी चाहिए । अर्थात पहले कहे गये रूपी द्रव्योंकी कुछ पर्यायोंको (देखो आगे विषय प्ररूपक चार्ट) और जीवके औदयिक, औपशामक और क्षायोपशमिक भावों को अवधिज्ञान विषय करता है, क्योंकि इनमें रूपी कर्मका सन्बन्ध है । उसका सम्बन्ध न होनेके कारण वह क्षायिक व पारिणामिक भाव तथा धर्म अधर्म आदि अरूपी द्रव्यों (व उनकी पर्यायों) को नहीं जानता। घ.६/१.१.२/२७/५ जमपणो जाणिदद व्वं तस्स अणं ते वट्टमाणपज्जाएम तत्य आबलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपरजाया जहण्णोहिणणेण विसईकया जहण्णभावो । के वि आइरिया जहण्ण दस्बम्सुवरिट्टिदरूत्ररस-गंध-फासादिसम्बपज्जाए जाणदि त्ति भणति तृण्ण घडदे. तेसिमाण तयादो।"तीदाणागयपज्जायाण किण्ण भावववएसो। ण तेसि कालत्तब्भुबगमादो। एवं जहाभाव परूवणा कदा। अपना जो जाना हुआ द्रव्य है उसकी अनन्त वर्तमान पर्यायों में-से जघन्य अवधिज्ञानके द्वारा विषयी कृत आवलीके असंख्यात भागमात्र पर्याय जघन्य भाव है। कितने ही आचार्य जघन्य द्रव्य के ऊपर स्थित रूप रस, गन्ध एवं स्पर्श आदि रूप सब पर्यायों को उक्त अवधिज्ञान जानता है, ऐसा कहते हैं। किन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, वे अनन्त हैं। और उत्कृष्ट भो अवधिज्ञान अनन्त संख्याके जानने में समर्थ नहीं है। प्रश्न-अतीत व अनागत पर्यायौं की 'भाव' संज्ञा क्यों नहीं है ! उत्तर-नहीं है, क्योंकि, उन्हें काल स्वीकार किया गया है । इस प्रकार जघन्य भावकी प्ररूपणा की गयी। घ. १४८/३ भावदो असंखेज्जलोगमे त्तदव्व पज्जाए तीदाणागदवट्टमाणकालविसए जाणदि। तेण ओहिणाणं सव्वदब्वपज्जय बिसयं ण होदि । भाव की अपेक्षा बह अतीत. अनागत एवं वर्तमान कालको विषय करनेवाली असंख्यात लोक मात्र द्रव्यपर्यायौंको जानता है। इसलिए अवधिज्ञान द्रव्यों की समस्त पर्यायोको विषय करनेवाला नहीं है। ७.अवधिज्ञानके विषयभूत क्षेत्रादिकोंमें वृद्धि-हानिकाक्रम प.व. १३/५.५.५६/गाथा सूत्र ८/३०६ कालो चण्ण बुड्ढी । कालो भजिदवो खेसवुड ढीए। वुड्ढीए दब-पज्जए भजिदम्बो खेसकाला। (म.म./पु.१/गा. सू.७/२२) जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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