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________________ अवधिज्ञान १८८ २. अवधिज्ञान निर्देश समिद्वपावकवत्सम्यग्दर्शनादिगुणविशुद्धपरिणामस निधानाद्यत्परिमाण । उत्पन्नस्ततो बद्ध ते आ असंख्येयलोकेभ्यः। अपरोऽवधिपरिच्छिन्नोपादानसन्तत्यग्निशिखावत्सम्यग्दर्शनादिगुणहानिसंक्लेशपरिणामवृद्वियोगाद्यत्परिमाण उत्पन्नस्ततो हीयते आ अङ्गुलस्यास ख्येयभागात । इतरोऽवधि' सम्यग्दर्शनादिगुणावस्थानाद्यपरिमाण उत्पन्नस्तत्परिमाण एवावतिष्ठते. न हीयते नापि वर्धते लिङ्गवत्त आ भवक्षयादाकेवलंज्ञानोत्पत्तेर्वा । अन्योऽवधि सम्यग्दर्शनादिगणवृद्धिहानियोगाद्यपरिमाण उत्पन्नस्ततो बर्द्धते यादनेन वर्धितव्यं हीयते च यावदनेनहातव्य वायुवेगप्रेरितजलोमिवत। एव षड्विधोऽवधिर्भवति । -१ कोई अवधिज्ञान, जैसे सूर्यका प्रकाश उसके साथ जाता है, वैसे अपने स्वामीका अनुसरण करता है। उसे "अनुगामी" कहते हैं। (विशेष देखी नीचे) २ कोई अवधिज्ञान अनुसरण नहीं करता, किन्तु जैसे विमुख हुए पुरुष के प्रश्नके उत्तर स्वरूप दूसरा पुरुष जो वचन कहता है वह वहीं छूट जाता है, विमुख पुरुष उसे ग्रहण नहीं करता है, वैसे ही यह अवधिज्ञान भी वहीं पर छूट जाता है। (उसे अनुगामी कहते है। विशेष देखो आगे)। ३ कोई अबधि ज्ञान जंगल के निर्मन्थन से उत्पन्न हुई और सूखे पत्तोसे उपचीयमान ईधनके समुदायसे वृद्धिको प्राप्त हुई अग्निके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी विशुद्धिरूप परिणामोके सन्निधान वश जितने परिणाममें उत्पन्न होता है. उससे (आगे) असख्यातलोक जाननेकी योग्यता होने तक बढता जाता है। (वह "वर्द्धमान" है)। ४ कोई अवधिज्ञान परिमित उपादान सततिबाली अग्निशिखाके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोंकी हानिसे हुए सक्लेश परिणामोंके बढनेसे जितने परिमाण में उत्पन्न होता है उससे (लेकर) मात्र अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जाननेकी योग्यता होने तक घटता चला जाता है । (उसे "हीयमान' कहते है)। ५ कोई अवधिज्ञानसम्यग्दर्शनादि गुणोंके समानरूपसे स्थिर रहने के कारण जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है उतना ही बना रहता है। पर्यायके नाश होने तक या केवलज्ञानके उत्पन्न होने तक शरीर में स्थित मस्सा आदि चिन्होंवत न घटता है न बढता है उसे "अवस्थित"कहते है । ६ कोई अवधिज्ञान वायुके बैगसे प्रेरित जलकी तर गोंके समान सम्यग्दर्शनादि गुणोकी कभी वृद्धि और कभी हानि होनेसे जितने परिमाणमें उत्पन्न होता है. उससे बढता है जहाँ तक उसे बढना चाहिये, और घटता है जहाँ तक उसे घटना चाहिये उसे 'अनवस्थित' कहते हैं । इस प्रकार अवधिज्ञान छः प्रकारका है। (रा.वा.१/२२/४/८१/१७ १ (ध १३/५,५.५६/२६३/४ ) (गो. जी./ जी. प्र. ३७३/७४६७) २. अनुगामी अननुगामी की विशेषताएं प.१३/५,५०५६/२६४/४ जमोहिणाणमुप्पण्ण संतं जीवेण सह गच्छादि तमणुगामी णाम तं च तिविह खेताणुगामी भवाणुगामी खेत्तभवाणूगामी चेदि । तत्थ जमोहिणाणं एयम्मि खेत्ते उप्पणं संतं सगपरपयोगेहि सगपरखेत्तेसु हिडतस्स जीवस्स ण विणस्सदि त खेत्ताणुगामी णाम । जमोहिणाणमुप्पण्णं सत तेण जीवेण सह अण्णभवं गच्छदि तं भवाणुगामी णाम। जं भरहेरावद-विदेहादिखेत्ताणि देव-णेरइय-माणुसतिरिक्वभव पि गच्छदि त खेत्तभवाणुगामि त्ति भणिदं होदि । जं तमणणुगामी णाम ओहिणाणं त तिविहं खेत्ताणगुगामी भवाणणुगामी खेत्तभवाणणुगामी चेदि । [जं] खेत्तंतरं ण गच्छदि, भवंतरं चैव गच्छ दि (तं ] खेत्ताणणुगामी त्ति भण्णादि । जं भवंतरं ण गच्छदि खेत्तंतर चेव गच्छदि तं भवाणणुगामी णाम । जं खेत्तंतरभवांतराणि ण गच्छदि एक्कम्हि चेव खेत्ते भवे च पडिबद्धत खेत्तभवाणणुगामी त्ति भण्णदि।-१. जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर जीवके साथ जाता है वह अनुगामी अवधिज्ञान है। वह तीन प्रकारका है -क्षेत्रानुगामी. भवनानुगामी और क्षेत्रभवानुगामी। उनमें से जो अवधिज्ञान एक क्षेत्रमें उत्पन्न होकर म्बत' या परप्रयोगसे जीवके स्वक्षेत्र या परक्षेत्रमें विहार करनेपर विनष्ट नहीं होता है, वह क्षेत्रानुगामो अवधिज्ञान है। जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर उस जीवके साथ अन्य भव में जाता है वह भवानुगामी है । जो भरत ऐरावत और विदेह आदि क्षेत्रोंमें तथा देव नारक मन प्य और तिर्यंच भवमें भी.साथ जाता है वह क्षेत्रभवानुगामी अवधिज्ञान है। २. जो अननुगामी अब धिज्ञान है वह तीन प्रकारको है-क्षेत्राननुगामी, भवाननुगामी और क्षेत्रभवामनुगामी। जो क्षेत्रा. न्तरमे साथ नहीं जाता, भवान्तरमे हो साथ जाता है वह क्षेत्राननुगामी अबधिज्ञान कहलाता है। जो भवान्तर में साथ नहीं जाता, क्षेत्रान्तरमें ही साथ जाता है वह भवाननुगामी अवधिज्ञान है। जो क्षेत्रान्तर और भवान्तर दोनों में साथ नही जाता, किन्तु एक ही क्षेत्र और भवके साथ सम्बन्ध रखता है वह क्षेत्रभवाननुगामी अवधिज्ञाने कहलाता है। (गो. जो./जी. प्र ३७२/७६६/८) ३ प्रतिपाती व अप्रतिपाती के लक्षण ध. १३/५.६.५६/२६५/१ जमोहिणाणमुप्पण्ण संत णिम्मूलदो विणस्सदि तं सप्पडिवादी णाम ।...जमोहिणाण संतं केवलणाणेण समुप्पण्णे चेव विणस्सदि, अण्णहाण विणस्सदि, तमप्पडिवादी णाम ।-जो अवधिज्ञान उत्पन्न होकर निर्मूल विनाशको प्राप्त होता है वह सप्रतिपाती अवधिज्ञान है । जी अवधिज्ञान उत्पन्न होकर केवलज्ञानके उत्पन्न होने पर ही विनष्ट होता है अन्यथा विनष्ट नहीं होता वह अप्रतिपाती अवधिज्ञान है। ४ एकक्षेत्र व अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान के लक्षण ध १३/५.५.५६/२६५/६ जस्स ओहिणाणस्स जीवसरीरस्स एगदेसो करण होदि तमोहिणाणमेगखेत्त णाम । जमोहिणाण पडिणियदखेत्त वज्जिय सरीरसवात्र यवेसु बट्टदि तमणेयक्खेत्त णाम । जिस अवधिज्ञानका करण जीव शरीरका एक देश होता है वह एकक्षेत्र अवधिज्ञान है जो अबधिज्ञान प्रतिनियत क्षेत्रके बिना शरीरके सब अवयवो में रहता है वह अनेकक्षेत्र अवधिज्ञान है। (विणेष दे. अवधिज्ञान ५) अवधिज्ञान निर्देश १. अवधिज्ञानमें अवधि पदका सार्थक्य क. पा. १/१/१२/१७/१ किमट्ट तत्थ ओहिसदो परूविदो। णा, एदम्हादो हेट्ठिमसवणाणाणि सावहियाणि उवरिमाण णिरवािमदि जाणावण? । ण मगपज्जवणाणेण वियहिचारो, तस्य वि अर्वाहणाणादो अप्पविसयतण हेट्टिमत्तम्भुगमादो। पआगरस पुण ठाणविवज्जासो सजमसहगयत्तेण कयविसेस पदुप्पायण फलात्तिण कोच्छि (च्चि)दोसो। प्रश्न - अवधिज्ञान में अवधि शब्दका प्रयोग किसलिए किया गया है । उत्तर-इससे नोचेके सभी ज्ञान सावधि है, और ऊपरका केवलज्ञान निरवधि है। इस बातका ज्ञान करानेके लिए अवधिज्ञानमें 'अवधि' शब्दका प्रयोग किया है। यदि कहा जाय कि इस प्रकारका कथन करनेपर मन पर्यय ज्ञानसे व्यभिचार दोष आता है, सो भी बात नहीं है, क्योकि मन पर्ययज्ञान भी अवधिज्ञानसे अल्पविषयवाला है, इसलिए विषयकी अपेक्षा उसे अवधिज्ञानसे नीचेका स्वीकार किया है। फिर भी सयमके साथ रहनेके कारण मन पर्ययज्ञानमें जो विशेषता आती है उस विशेषताको दिखलानेके लिए मन पर्ययको अवधिज्ञानसे नीचे न रखकर ऊपर रखा है, इसलिए कोई दोष नहीं है । (ध ६/४,१/२/१३/४) २ प्रत्येक समय नया ज्ञान उत्पन्न होता है । घ १३/१,५.५६/२६६/१३ सो कस्स वि ओहणिणास्स अवट्ठाणकालो होदि। कुदो । उप्पण्ण बिदियसमए चेव विणटुस्स ओहिणाणस्सएगसमयकालुवलंभादो । जीवट्ठाणादिसु ओहिणाणस्स जहण्णकालो अतोमुत्तमिदि पढिदो। तेण सह कधमेद सुत्त न विरुज्झदे। ण एस दोसो, ओहिणाणसामथ्ण-विसेसावलबणादा । जीवट्ठाणे जेण सामण्णोहिणाणस्स कालो जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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