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________________ ३. सारणीमें दिया गया अन्तरकाल निकालना अंतर वेदकसम्यक्रवको ही प्राप्त करता है, क्योंकि उपशमसम्यग्दर्शनका अन्तरकाल जो पक्यका असंख्यातवाँ भाग है, वह यहाँ नहीं पाया जाता। गो.जी./जी.प्र.७०४/११४१/१५ ते [प्रशमोपशमसम्यग्दृष्टयः) अप्रमत्तसंयतं विना त्रय एव तत्सम्यक्त्वकालान्तर्मुहूर्त जघन्येन एकसमये उत्कृष्टेन च षडावलिमात्रेऽवशिष्टे अनन्तानुबन्ध्यभ्यतमोदये सासादना भवन्ति । अथवा ते चत्वारोऽपि यदि भव्यतागुणविशेषेण सम्यक्त्वविराधका न स्युः तदा तत्काले संपूर्ण जाते सम्यक् कृत्युदये वेदकसम्यग्दृष्टयो वा मिश्रप्रकृत्युदये सम्यगमिध्यादृष्टयो वा मिथ्यात्वोदये मिथ्यादृष्टयो भवन्ति । अप्रमत्त संयतके बिना वे तीनों (४.५. ६ठे गुणस्थानवर्ती उपशम सम्यग्दृष्टि जव) उस सम्यक्त्वके अन्तमहत कालमें जघन्य एक समय उत्कृष्ट छह आवलिमात्र शेष रह जाने पर अनन्तानुबन्धीकी कोई एक प्रकृतिके उदयमें सासादन गुणस्थानको प्राप्त हो जाते हैं अथवा वे (४-७ तक) चारों हो यदि भन्यता गुण विशेषके द्वारा सम्यक्त्वकी विराधना न करें तो उतना काल पूर्ण हो जानेपर या तो सम्यकप्रकृतिके उदयसे वेदक सम्यगदृष्टि हो जाते हैं, या मिश्र प्रकृतिके उदयसे सम्यग मिथ्यावृष्टि हो जाते हैं, या मिथ्याबके उदयसे मिथ्यादृष्टि हो जाते हैं नोट :-- यद्यपि द्वितीयोपशम सम्यक्त्वका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहुर्त है, क्योकि उपशम श्रेणीपर चढ़कर उतरनेके अन्तर्भूहूर्त पश्चात् पुनः द्वितीयोपशम उत्पन्न करके श्रेणीपर आरूढ़ होना सम्भव है परन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व तो मिथ्याष्टिको ही प्राप्त होता है, और वह भी उस समय जन कि उसको सम्यक्त्व व सम्यग्मिध्याप्रकृतिकी स्थिति सागरोपमपृथक्त्वसे कम हो जाये । अतः इसका जघन्य अन्तरे पत्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जानना।] ३. सारणीमें दिया गया अन्तरकाल निकालना १. गुणस्थान परिवतन-द्वारा अन्तर निकालना ध.५४९.६.३/५/५ एक्को मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छत्त-सम्मत्त-संजमासंजम संजमेसु महुसो परियट्टिदो, परिणामपच्चण्णसम्मत्तं गदो, सब्बलहमंतोमुहुतं त सम्मत्तण अच्छिय मिच्छत्तं गदो, लद्धमतोमुहुत्तं सवजहण्ण मिच्छतंतर । एक मिथ्यादृष्टि जीव, सम्यग्मिथ्यात्व, अविरतसम्यक्त्व, संयमासंयम और संयममें बहुत बार परिवर्तित होता हुआ परिणामों के निमित्तसे सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ, और वहाँपर सर्व लघु अन्तर्मुहुर्त काल तक सम्यक्त्वके साथ रहकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे सर्व जघन्य अन्तर्मुहुर्त प्रमाण मिथ्यात्व गुणस्थानका अन्तर प्राप्त हो गया। घ.४१.६.4/8/२ नाना जीवको अपेक्षा भी उपरोक्तवव ही कथन है। अन्तर केवल इतना है कि यहाँ एक जीवकी बजाय युगपत सात, आठ या अधिक जीवोंका ग्रहण करना चाहिए। २ गति परिर्तन-द्वारा अन्तर निकालना ध./१,६४५/४०/३ एको मणुसो णेइरयो देवो वा एगसमयावसेसाए सासणद्वाएपचिदियतिरिक्खेसु उबवण्णो।तथ पंचाणउदिपुवकोडिअभहिय तिषिण पलिदोयमाणि गमिय अवसाणे ( उषसमसम्मतं घेत्तूण) एगसमयावसेसे आउए आसाणं गदो कालं करिय देवो जादो। एवं दुसमऊणसगहिदी सासणुकस्संतर होदि । कोई एक मनुष्य, नारको अथवा देव सासादन गुणस्थानके काल में एक समय अवशेष रह जानेपर पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न हुआ। उनमें पंचानवेपूर्व कोटिकालसे अधिक तीन पल्योपम बिताकर अन्तमें (उपशम सम्यक्त्व ग्रहण करके) आयुके एक समय अवशेष रह जानेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ और मरण करके देव उत्पन्न हुआ। इस प्रकार दो समय कम अपनी स्थिति सासादन गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ३. निरन्तरकाल निकालना घ.४१,६,२/४/८ णत्थि अंतर मिच्छत्तपज्जयपरिणदजीवाणं तिस वि कालेसु बोच्छेदो विरहो अभावो पस्थिति उत्तं होदि । - अन्तर नहीं है। अर्थात् मिथ्यात्व पर्यायसे परिणत जीवोंका तीनों ही कालों में व्युच्छेद, विरह या अभाव नहीं होता है। (अन्य विक्षिप्त स्थानों के सम्बन्धमें भी निरन्तरका अर्थ माना जीवापेक्षया ऐसा ही जानना।) घ.४१,६,१८/२१/७ रगजीवं पड्डच्च णस्थि अंतरं, णिरंतर ॥१८॥ कुदो। खबगाणं पदणाभावा ।-एक जीवकी अपेक्षा उक्त चारों क्षपकोंका और अयोगिकेवलीका अन्तर नहीं होता है, निरन्तर है ॥१८॥ क्योंकि, क्षपक श्रेणोवाले जीवों के पतनका अभाव है। ध.१/१,६,२०/२२/१ सजोगिणमजोगिभावेण परिणदाणं पुणो सजोगिभावेण परिणमणाभावा ।-अयोगि केवली रूपसे परिणत हुए सयोगि केवलियोंका पुनः सयोगिकेवली रूपसे परिणमन नहीं होता है । [अर्थात उनका अपने स्थानसे पतन नहीं होता है। इसी प्रकार एक जीवकी अपेक्षा सर्वत्र ही निरन्तर काल निकालनेमें पतनाभाव कारण जानना। ४.२४६६ सागर अन्तर निकालनाएक जीवापेक्षयाध./१,६,४/६/६ उकसेण वे छावहिसागरोवमाणि देसूणाणि ॥४॥ एदस्स णिदरिसणं-एको तिरिक्खो मणुस्सो वा तयकाविट्ठकप्पबासियदेवेमु चोहससागरोवमाउट्टिदिएम उप्पण्णो। एक्कं सागरोधर्म गमिय विदियसागरोवमादिसमएसम्मत्तंपडिवण्णो। तेरससागरोवमाणि तस्थ अच्छिय सम्मत्तेण सह चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजम संजमासंजमं वा अणुपालिय मणुसाउएणूणव वीससागरोवमाउढिदिएम आरणच्चुददेवेसु उबवण्णो । तत्तो चुदो मणुसो जादो। तत्थ संजममणुपालिय उवरिमगेबज्जे देवेसु मणुसाउएणूणएछत्तीससागरोवमादिएसु उबवण्णो। अंतोमुहुत्तू णछावट्ठिसागरोवमचरिमसमए परिणामपच्चएण सम्मामिच्छत्तं गदो। तत्थ अंतोमुत्तमच्छिय पुणो सम्म पडिवज्जिय विस्समिय चुदो मणुसो जादो । तत्थ संजमं संजमासजम वा अणुपालिय मणुस्साउएणूणवीससागरोवमाउटिदिएसुवज्जिय पूणो जहाकमेण मणुसाउवेणूणवावीस-चउवीससागरोवमट्टिदिएम देवेमुवज्जिय अंतोमुहुत्तूणवेछाव हिसागरोवमचरिमसमये मिच्छत्तं गदो। लद्धमंतर अंतोमुहुर्ण वेछापट् टिसागरोचमाणि । एसो उत्पत्तिकमो अउप्पण्णउपायण?' उत्तो। परमस्थदो पूण जेण केण वि पयारेण छावट्ठी पूरेदव्या। = मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम दो छयासठ सागरोपम काल है।४। कोई एक तियंच अथवा मनुष्य चौदह सागरोपम आयु स्थिति वाले लान्तब कापिष्ट देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँ एक सागरोपम काल मिताकर दूसरे सागरोपमके आदि समयमें सम्यक्त्व को प्राप्त हुआ। तेरह सागरोपम काल वहाँ रहकर सम्यक्त्वके साथ ही च्युत हुआ और मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयमको अथवा संयमासंयमको अनुपालन कर इस मनुष्य भवसम्बन्धी आयुसे कम बाईस सागरोपम आयुको स्थिति वाले आरणाच्युत कल्पके देवों में उत्पस हुआ। वहाँसे च्युत होकर पुनः मनुष्य हुआ। इस मनुष्य भवमै संयमको अनुपालन कर उपरिम प्रैवेयकमें मनुष्य आयुसे कम इकतीस सागरोपम आयुको स्थितिवाले अहमिन्द्र देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहाँपर अन्तर्मुहूर्त कम छयासठ सागरोपम काल के घरम समयमें परिणामोंके निमित्तसे सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। उस सम्यग्मिथ्यात्वमें अन्तमुहूर्त काल रहकर पुन: सम्यक्त्व को प्राप्त होकर, विश्राम ले, च्युत हो, मनुष्य हो गया। उस मनुष्य भवमें संयमको अथवा संयमासंयमको परिपालन कर, इस मनुष्य भव जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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