SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 198
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अवग्रह Sनेकान्ताच्च । ततो गृहीतवस्त्वं शं प्रति अविशदावग्रहस्य प्रामाण्यमभ्युपगम्य्य व्यवहार योग्यात महारायोग्योऽपि सदावग्रहाऽस्ति कथ तस्य प्रामाण्यम् । न किचिन्मया दृष्टमिति व्यवहारस्य तत्राप्युपलम्भात्। वास्तवव्यवहारायोग्यत्व प्रति पुनरप्रमाणम्। प्रश्न - ( अनिर्णय स्वरूप होनेके कारण ) अवग्रह प्रमाण नही हो सकता, क्योकि ऐसा होनेपर उसका सशय, विपर्यय व अनध्यवसाय में अन्तर्भाव होगा उत्तर नहीं, क्योंकि, अवग्रह दो प्रकारका है -- विशदावग्रह और अविशदावग्रह। उनमें विशदावग्रह निर्णयरूप होता है और भाषा, आयु व रूपादि विशेषोको ग्रहण न करके व्यवहार के कारण पुरुषमात्र के सस्यादि विशेषको करनेवाला अविशदावग्रह होता है। प्रश्न- अविशदावग्रह अप्रमाण है, क्योंकि वह अनध्यवसाय रूप है। उत्तर--१ ऐसा नही है क्योंकि वह कुछ विशेष के अध्यवसाय से सहित है ।--२ उक्त ज्ञान विपर्यक स्वरूप होनेसे भी अप्रमाण नही कहा जा सकता, क्योंकि उसमें विपरीतता नहीं पायी जाती । यदि कहा जाय कि वह चूँकि विपर्यय ज्ञानका उत्पादक है, अत: अप्रमाण है, सो यह भी ठीक नहीं है, क्योकि, उससे विपर्ययज्ञानके उत्पन्न होनेका कोई नियम नहीं है।-३. संशयका हेतु होने से भी वह अप्रमाण नही है, क्योंकि, कारणानुसार कार्य के होनेका नियम नही पाया जाता. तथा अप्रमाणभूत संशय से प्रमाणभूत निर्णय प्रत्ययकी उत्पत्ति होनेसे उक्त हेतु व्यभिचारी भी है । - ४. संशयरूप होनेसे भी वह अप्रमाण नही है - ( दे अवग्रह २ / १ ) - इस कारण ग्रहण किये गये वस्त्वशके प्रति अविशदावग्रहको प्रमाण स्वीकार करना चाहिए, क्योंकि वह व्यवहार के योग्य है। प्रश्न- व्यवहारके अयोग्य भी तो अविशदावग्रह है, उसके प्रमाणता कैसे सम्भव है ? उत्तर- नहीं, क्योकि, 'मैंने कुछ देखा है' इस प्रकारका व्यवहार वहाँ भी पाया जाता है। किन्तु वस्तुत' व्यवहारकी अयोग्यताके प्रति वह अप्रमाण है । ३. अर्थावग्रह व व्यंजनावग्रहमें अन्तर स. सि. १/१८/११७ ननु अवग्रहग्रहण मुभयत्र तुत्य तत्र कि कृतोऽय विशेष । अर्थावग्रहपावविशेष १८३ कथम् । अभिनवशरावार्द्रीकरणवत् । यथा जलकण द्वित्रासिक्त सरावोsभिनवो नाभवति स एव पुन पुन सिच्यमान शन स्तिम्यति एवं श्रोत्रादित्रिन्द्रियेषु शब्दादिपरिणता पुद्गला द्वित्रादिसमयेषु गृह्यमाणा न व्यक्तोभवन्ति, पुनः पुनरवग्रहे सति व्यक्तीभवन्ति । अतो व्यक्तग्रहणात्प्राग्व्यञ्जनावग्रह व्यक्तग्रहणमर्थावग्रह । ततोऽव्यक्तावग्रह्णादीह्रादयो न भवन्ति । प्रश्न- जब कि अवग्रहका ग्रहण दोनो जगह समान है तब फिर इनमें अन्तर किनिमित्तक है । उत्तर- इनमे व्यक्त व अव्यक्त ग्रहणकी अपेक्षा अन्तर है। प्रश्न-कैमे 'उत्तर- जैसे माटोका नया सकोरा जलके दो तीन कणो से सौंचने पर गीला नहीं होता और पुन -पुन सीचनेपर वह धरे-धीरे गीला हो जाता है। इसी प्रकार श्रोत्रादि इन्द्रियो के द्वारा ग्रहण किये गये शब्दादिरूप पुद्गल स्कन्ध दो तीन समय में व्यक्त नही होते है, किन्तु पुन पुन ग्रहण होनेपर वे व्यक्त हो जाते है । इससे सिद्ध हुआ कि व्यक्त ग्रहणसे पहिले-पहिले ब्यजनावग्रह होता है और व्यक्त ग्रहण का नाम (या व्यक ग्रहण हो जाने पर ) अर्थावग्रह है । अव्यक्त अवग्रहसे ईहा आदि नही होते है । (गो.जी./जो प्र / २०७/६६०/१०) ध. ६ / २.१.४५ / १४५ / ३ तत्र विशदो निर्णयरूप, अनियमेनेहावायधारणाप्रत्ययोत्पत्ति निबन्धन ...तत्रअविशदावग्रहो नाम अगृहीतभाषायोरूपादिविशेष गृहीत व्यवहार निबन्धन पुरुषमासादिविशेष अनियमेने हाथ पत्तिहेतुविशद ग्रह निर्णय रूप होता हुआ अनियमसे इहा, अवाय और धारणा ज्ञानकी उत्पत्तिका कारण है ।... उनमें भाषा, आयु व रूपादि विशेषोको ग्रहण न करके व्यवहारके कारणभूत पुरुषमात्रके सत्त्वादि विशेषको ग्रहण करनेवाला तथा अनियमसे जो ईहा आदिको उत्पत्ति में कारण है वह अविशदावग्रह है । Jain Education International २. अवग्रह निर्देश जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only ६/४.१.४७/१६/८ प्रमाणमवग्रह ग्रह न स्पष्टास्पष्टग्रहगे अर्थ पव्शनावग्राही तयोर्मनसोरपि सत्त्वतस्तत्र व्यञ्जनावग्रहस्य सत्त्वप्रसगात् । न शनैर्ग्रहणं व्यञ्जनावग्रह चक्षुर्मनसोरपि तदस्तिरतस्तयीयस्य " नच हम सिद्धमप्रभङ्गाभावे अष्टचत्वारिंसुर्मतिज्ञानभेदस्यास स्वप्रसङ्गात्। प्रात पदार्थ के ग्रहणको अग्रह और प्राप्त पदार्थ के ग्रहणको व्यजनावग्रह कहते है । स्पष्ट ग्रहणको अर्थावग्रह और अस्पष्टग्रहणको व्यंजनावग्रह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि, स्पष्टग्रहण और अस्पष्टग्रहण तो चक्षु और मनके भी रहता है, अतः ऐसा माननेपर उन दोनोके भी व्यजनावग्रहके अस्तित्वका प्रसंग आवेगा । (परन्तु इसका सूत्र द्वारा निषेध किया गया है ) यदि कहो कि धीरे-धीरे जो ग्रहण होता है वह व्यजनावग्रह है, सो भी ठीक नहीं है, क्योकि इस प्रकार के ग्रहणका अस्तित्व चक्षु और मनके भी है, अत उनके भी व्यंजनावग्रहके रहनेका प्रसग आवेगा । और उन दोनो में शनैर्ग्रहण असिद्ध नहीं है, क्योकि, ऐसा माननेसे अक्षिप्र भंगका अभाव होनेपर चक्षुनिमित्तक अडतानिस मतिज्ञानवे भेदों के अभावका प्रसंग आयेगा। (१३/५२.२४/२२० / १) ४. अर्थावग्रह व व्यंजनावरका स्वामित्व तसू १/११ न चक्षुरनि॥१६॥ ससि. १/११/१९८षा अनिन्द्रियेण च व्यब्जनाहो न भवति । -चक्षु और मनमे व्यंजनावग्रह नहीं होता ॥ 1 घ १/१,१.१५/३५५ / ९ चक्षुर्मनसोरथविग्रह एव, सयो प्राप्तार्थग्रहणानुपलम्भात् । शेषाणामिन्द्रियाणां द्वावप्यग्रहो भवत । चक्षु और मनसे अर्थावग्रह हो होता है क्योकि इन दोनो मे प्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है। शेष चारों ही इन्द्रियोके अर्थावग्रह और पजगाम ग्रह ये दोनों भी पाये जारी है (सु.१/१७-१६) (प. १ / ४,१.४५/१६०/२) (४.१३/५.५.२१/२२५) (ज. १. १३/६८-६६) ५. अप्राप्यकारी ३ इन्द्रियोंमें अवग्रह सिद्धि घ. १/१.१.१९६/०६६/९ तत्र च मोरवय एव प्रार्थग्रहण लम्भात् । शेषाणामिन्द्रियाणा द्वावप्यवग्रहो भवत' । शेषेन्द्रियेष्वप्रार्थनोपलभ्यत इति पेन एकेन्द्रियेषु योग्यदेशस्थितनिधिषु निधिस्थितप्रदेश एवं प्रारोहयुक्त्यग्यथानुपपत्तिद्रियाणाप्राप्तार्थग्रहणं नोपलभ्यत इति... यद्य पलभ्यस्त्रिका लगोचरम शेषं पर्यच्छेत्स्यनुपलभ्धस्याभावोऽभविष्यत् । न कात्स्नार्थस्थानियम वा मम मतस्तदग्रहादिनिदानमिन्द्रियाणामध्यकारित्वमिति । कि यदि परनिन्द्रियाभ्यामनिःसुतामुक्तावपादितयोरपि प्राप्यकारिसङ्गादिति चेन योग्यदेशावस्थितेरेव प्राप्तेरभिधानात् । रूपस्याचक्षुषाभिमुखतया न तत्परिदिना चक्षुषा प्राप्यकारित्वमनिग्रहादिसिद्ध ेच और मनसे अधविग्रह ही होता है, क्योंकि, इन दोनोंमें अर्थका ग्रहण नही पाया जाता है। शेष चारी ही इन्द्रियो के अर्थावग्रह और व्यजनावग्रह ये दोनो भी पाये जाते है। प्रश्न- शेष इन्द्रियो में अप्राप्त अर्थका ग्रहण नहीं पाया जाता है इसलिए उनसे अविग्रह नहीं होना चाहिए ? उत्तर- नहीं, क्योकि, एकेन्द्रियो में उनका योग्य देशस्थित निधिले प्रदेशो में हो अकुशला अन्यथा बन नही सकता है। प्रश्न- स्पर्शन इन्द्रिय के अप्राप्त अर्थका ग्रहण करना बन जाता है तो बन जाओ। फिर भी शेष इन्द्रियो के अप्राप्त अर्थ का ग्रहण करना नहीं पाया जाता है। उत्तर- नहीं क्योंकि, यदि हमारा ज्ञान त्रिकाल गोचर समस्त पदार्थोंको जाननेवाला होता तो अनुपलब्धका अभाव सिद्ध हो जाता। दूसरे पदार्थ के पूरी तरह से अपनेको और अनेको हम अप्राप्त नहीं कहते है, जिससे उनके अवग्रहादिका कारण इन्द्रियोंका हवा होये । प्रश्न- तो फिर अप्राप्यकारीपनेसे क्या प्रयोजन है और यदि पूरी तरहसे अस्तित्व और अनुक्रमको अप्राप्त नहीं रहते हो तो शाह www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy