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________________ अपादान कारण १२४ अपूर्वकरणे नस्वभावसमय पूर्वप्रवृत्तविकलज्ञानस्वभावापगमेऽपि सहजज्ञानस्व * इस गुणस्थानमे मृत्युका विधि-निषेध ।-दे. मरण ३। भावेन वत्वालम्बनादपादानत्वमुपाददान । =शुद्धानन्त शक्तिमय ज्ञानरूपसे परिणमित होने के समय पूर्वमे प्रवर्तमान विकल ज्ञानस्वभाव * सभी गुणस्थानोमे आयके अनुसार व्यय होनेका का नाश होने पर भी सहज ज्ञानस्वभावसे स्वय ही ध्र बताका अव नियम। -दे. मार्गणा। लम्बन करनेसे (आत्मा) अपादानताको धारण करता है। १ अपूर्वकरण गुणस्थानका लक्षण अपादान कारण-दे उपादान। पं.सं /प्रा./१/१७-१६ भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा अपादान शक्ति-स. सा/आ/परि शक्ति न ४५ उत्पादव्यया सरिसो। करणे हि एसमय ट्ठिएहि सरिसो विसरिओ वा ॥१७॥ एयम्मि गुण ठाणो विसरिसमट्ठिए हि जीवेहि । पुव्बमपत्ता जम्हा लिङ्गितभावापायनिरपायध वत्वमयी अपादानशक्ति । - उत्पाद व्यय होति अपुवा हु परिणामा ॥१॥ तारिसपरिणामट्टियजीवा हु से आलिगित भावका अपाय (हानि या नाश) होनेसे हानिको प्राप्त जिणे हि गलियतिमिरेहि। मोहस्सऽपुब्बकरणारखवणुवसमणुज्जया न होनेवालो ५ वत्वमयी अपादान शक्ति है। भणिया ॥१६॥ - इस गुणस्थानमें, भिन्न समयवर्ती जीवोमें करण अपान-स.सि. १६/२८८ आत्मना बाह्यो वायुरभ्यन्तरी क्रियमाणो अर्थात परिणामोकी अपेक्षा कभी भी सादृश्य नही पाया जाता। निःश्वासलक्षणोऽपान इत्याख्यायते । आत्मा जिस बाहरी वायुको किन्तु एक समयवर्ती जीरों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनो ही पाये भीतर करता है नि श्वास लक्षण उस वायुको अपान कहते है। जाते है ॥१४॥ इस गुणस्थानमे यत विभिन्न समयस्थित जीवोंके पूर्व(रा.वा./५/१६/३६/४७३) (गो.जो /जी.प्र./०६/१०६२/१२ । में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते है, अत उन्हे अपूर्वकरण कहते है ॥१८॥ अपाप-भावी तेरहवें तीर्थकर/अपर नाम 'निष्पाप', व 'पुण्यमूर्ति' इस प्रकारके अपूर्वकरण परिणामाँमें स्थित जीव मोहकर्म के क्षपण या व 'निष्कषाय विशेष दे तीर्थकर।। उपशमन करनेमें उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनोने कहा है ॥१७-१६॥ (ध.१/१,१,१७/११६-११८/१८३), (गो.जी। अपाय-स.सि.//8/३४७ अभ्युदयनि श्रेयसार्थानां क्रियाणां विनाशक. प्रयोगोऽपाय।-स्वर्ग और मोक्षकी क्रियाओं का विनाश करने मू./५१५२,५४/१४०), (प.स./स. १/३५-३७) ।। घ १/१.१.१६/१८०/१ करणा परिणामाः, न पूर्वा अपूर्वा । नानाजीवावाली प्रवृत्ति अपाय है। पेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणरा.वा/७/६/१/५३७ अभ्युदयनि श्रेयसार्थानां क्रियासाधनानां नाशको. स्थान्तर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमयवतिप्राणिभिरउनथे. अपाय इत्युच्यते। अथवा ऐहलौकिकादिसप्तविध भयमपाय प्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत । अपूर्वाश्च ते इति कथ्यते । - अभ्युदय और नि श्रेयसके साधनों का अनर्थ अपाय करणाश्चापूर्व करणा' । - करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो है। अथवा इहलोकमय परलोकभय आदि सात प्रकारके भय अपाय है। पूर्व अर्थात पहिले नहीं हुए उन्हे अपूर्व कहते है। इसका तात्पर्य यह अपाय विचय-धर्मध्यानका एक भेद व लक्षण । दे. धर्मध्यान/१ । है कि नाना जीवोकी अपेक्षा आदिसे लेकर प्रत्येक समयमें क्रमसे अपार्थक-न्या.सू /५/२/१० पोर्वापर्यायोगादप्रतिसंबन्धार्थमपार्थम् । मढते हुए अस ख्यातलोक प्रमाण परिणामवाले इस गुणस्थानके --जहाँ अनेक पद या वाक्योंका पूर्व-पर क्रमसे अन्वय न हो अतएव अन्तर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवोको छोडकर अन्य समयवर्ती एक दूसरेसे मेल न खाता हुआ असम्बन्धार्थत्व जाना जाता है, वह जीवोंके द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात विवक्षित समुदाय अर्थ के अपाय (हानि) से 'अपार्थक' नामक निग्रहस्थान समयवर्ती जोवोके परिणामोसे भिन्न समयवर्ती जीवोंके परिणाम कहलाता है। उदाहरण जैसे दश अनार, छ पूये, कुण्ड, चर्म, अजा, असमान अर्थात् विलक्षण होते है । इस तरह प्रत्येक समयमें होनेवाले कहना आदि । वाक्यका दृष्टान्त जैसे यह कुमारीका गैरुक (मृगचर्म) अपूर्व परिणामोंको अपूर्वकरण कहते हैं। शरया है उसका पिता सोया नहीं है। ऐसा कहना अपार्थक है। अभिधान राजेन्द्रकोश/अपुवकरण "अपूर्वमपूर्वा क्रियां गच्छतीत्यपूर्व(श्लो.मा-४/न्या २०६/२८७ ११) करणम् । तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः अन्यश्च स्थितिबन्ध' इत्येते पश्चाप्यधिकारा योगपद्यन पूर्वमप्रवृत्ता' अपर्वकरण-जीवोंके परिणामों में क्रमपूर्वक विशुद्धिकी वृद्धियोंके प्रवर्तन्ते इत्यपूर्वकरणम् । = अपूर्व-अपूर्व क्रियाको प्राप्त करता होनेसे स्थानोंको गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्गमें १४ गुणस्थानोंका निर्देश अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समयसे ही-स्थितिकाण्डकधात, अनुभागकिया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नामका आठवाँ गुणस्थान है। काण्डकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण और स्थितिबन्धापसरण * इस गुणस्थानके स्वामित्व सम्बन्धी गुणस्थान, जीव ये पाँच अधिकार युगपत् प्रवर्तते है। क्योकि ये इससे पहिले नहीं प्रवर्तते इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते है। समास, मार्गणा स्थानादि २० प्ररूपणाएं। व सं./टी/१३/३४ स एवातीतसंज्वलनकषायमन्दोदये सत्यपूर्व परमा -दे. सद। लादै कमुखानुभूतिलक्षणापूर्ववरणोपशमक्षपकसज्ञोऽध्मगुणस्थानवी * इस गुणस्थानकी सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, भवति-वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषायका स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ मन्द उदय होनेपर अपूर्व, परम आह्वाद सुखके अनुभवरूप अपूर्व करणमें उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है। प्ररूपणाएँ। -दे. वह वह नाम । * अपूर्वकरणके चार आवश्यक, परिणाम तथा अनि* इस गुणस्थानमें कर्म प्रकृतियोंका बन्ध, उदय व बुत्तिकरणके साथ इसका भेद । -ये. करण ५॥ सत्त्व। -. वह वह नाम। * अपूर्वकरण लब्धि । दे करण । * इस गुणस्थानमे कषाय, योग व संज्ञाओंका सद्भाव १. इस गुणस्थानमें क्षायिक व औपशमिक वो ही भाव तथा सत्सम्बन्धी शंकाएँ। -के. वह वह माम। सम्भव हैं * इस गुणस्थानको पुनः पुनः प्राप्तिकी सीमा। ध.१/१.१.१६/१८२/४ पञ्चसु गुणेषु कोऽत्रनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिकः -दे. संयम २। उपशमकस्यौपशमिक ...सम्यक्त्वापेक्ष्या तुक्ष्पकस्य क्षायिको भाव: नैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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