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________________ अपकर्षण ११८ अप्पणी कालम्भतरे सजहस्सानि द्विपादेदि । चियाणि चेन द्विदिबंधोसरणाणि विकारेदि तेहितो ससेजसहस्वगुणे अणुभागकडबा करेदि 'एकभाग कड-उरणकाला एक दिदिति सुताहो। - एक-एक अन्तर्मुहूर्त में एक-एक स्थितिकाण्डकका घात करता हुआ अपने कालके भीतर सख्यात हजार स्थितिकाण्डको का घात करता है । और उसने ही स्थितिबन्धापसरण करता है तथा उनसे संख्यात हजार गुणे अनुभागकाण्डकोका घात करता है, क्योंकि, एक अनुभागकान्डकके उत्कीरणकालसे एक स्थितिकाण्डकका उत्कीरणकाल संख्यात गुणा है (सा./ /७१/११४) घ. १२/४.२.१२,४०/३२३ / ९२ डिग्गन्मसमय जामो कालो ण गदो ताव अणुभागखंडवादाभावादो । घ. १२/४,२,१३,६४/४१३/७ अतोमुहुत्तचरिमसमयस्स क्धसुक्कस्साणुभागसभवो ण, तस्स अणुभागखं डयवादाभावादो । - - प्रतिभग्न होनेके प्रथम समयसे लेकर जब तक अन्तर्मुहूर्तकाल नहीं बीत जाता तब तक अनुभागकाण्डकघात सम्भव नही । • प्रश्नअन्तर्मुहूर्त के अन्तिम समय में उत्कृष्ट अनुभागकी सभावना कैसे है उत्तर- नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकाण्डक घातका अभाव है। घ. १२/४.२,१३,४१/१-२/३६४ ट्ठिदिघादे हमते अणुभागा आऊआण ससि अनुभागे विभावि हुआवजाग हिदिपादो ॥१॥ अशुभ मंदिपादो आउ सम्मा विहु आउववज्जाणमणुभागो ॥२॥ = स्थितिघात होनेपर (ही) सब युके अनुभागका नाश होता है (परन्तु आयुको छोडकर शेष कमका अनुभागके बिना भी स्थितिघात होता है ॥१॥ (इसी प्रकार ) अनुभागका पात होनेपर ही सम आयुओंका स्थितिघात होता है ( परन्तु ) आयुको छोड़कर शेष कर्मोंका स्थितिघात के बिना भी अनुभागपात होता है इस घ. १२/४.२.१६.१६५/४३२/१३ उस्स लभगढी पस्स गुणसेडि जिराभावो व दिदि-अणुभागात पादाभावादपश्रेणीमें आयुकर्मके प्रदेशोंकी गुणश्रेणी निर्जरके अभाव के समान स्थिति और अनुभाग घातका अभाव है इसीलिए यहाँ घाटको प्राप्त हुआ अनुभाग अनन्तगुणा हो जाता है ) । अपकर्षसमा - न्या. सु. /५/१/४/२८८ साध्यदृष्टान्तयोर्धर्म विकल्पादुभयसाध्यत्वाचोरकर्षापकर्ष वयम विकल्प साध्यसमा 11 न्या. मा./५/१/२/२८८ साये धर्माभावे दृष्टान्ताय प्रतोऽपकर्षसम । खल कियायाविरहः काममात्मापि क्रियामान विभुरस्तु विपर्यये वा विशेषो वक्तव्य इति । साध्य में दृष्टान्तसे धर्माभाव के प्रसगको अपकर्षसम कहते है जैसे कि 'लोष्ठ निचय क्रियावाला अविभु देखा गया है अत ( इस दृष्टान्त द्वारा साध्य ) आत्मा भी कियाबाद व अवि होना चाहिए जो ऐसा नहीं है तो विशेषता दिखानी चाहिए । 1 जो मा४/म्या २४४/४००/४ विद्यमानधर्मापनयोऽपकर्ष । श्लो. वा. ४ /न्या ३४१/४७६ तत्रैव क्रियावज्जीवसाधने प्रयुक्ते सति साध्यधर्मिणि धर्मस्याभावं दृष्टान्तात् समासजयत् यों वक्ति सोऽपकर्षसमाजाति वदति । यथा लोष्ठ क्रियाश्रयोऽसर्वगतो दृष्टस्तद्वदात्मा सदाप्यसर्वोऽस्तु विपर्यये वा विशेष इति विद्यमान हो रहे धर्मका पक्ष से अलग कर देना अपकर्ष है कियाबाद जीवके साधनेका प्रयोग प्राप्त होनेपर जो प्रतिवादी साध्यधर्मी में धर्मके अभावको दृष्टान्तसे भले प्रकार प्रसंग कराता हुआ कह रहा हो कि यह अपकर्षसमा जाति है। जैसे कि जो हो रहा अध्यापक देखा गया है. उसीके समान आत्मा भी सर्वदा असर्वगत हो जाओ अपना विपरीत माननेपर कोई विशेषताको करनेवाला कारण बतलाना चाहिए, जिससे कि ढलेका एक धर्म (त्रियावान्पना ) Jain Education International अपराजित दे उपकार | तो आत्मामें मिलता रहे और दूसरा धर्म ( असर्वगतपना ) आत्मामें न ठहर सके । अपकारअपकृष्ट सा / भाषा /५८८/००६ गुणश्रेणी आधिके अधि जो सर्व स्थितिको आकर्षण करि महिने सो अपकृष्टि (अपकृष्ट) द्रव्य कहिए है। अपक्षय-रावा. / ४/४२/४/२५० / १६ क्रमेण पूर्व भावैकदेशनिवृत्तिरपक्षय क्रमपूर्वक पूर्वभावकी एकदेश निवृत्ति होना अपक्षय है । अपदर्शनी पस्थ कूट व उसका स्वामी देव देतो अपदेशसा / 1 /१५ अपदिश्यतेऽर्थो येन सत्यपदेश शब्द द्रव्यमिति। जिसके द्वारा अर्थ निर्देशित किये जाये सो अपदेश है। वह शब्द अर्थात् द्रव्यश्रुत है। अपध्यान कथा //७८ मधमन्चच्छोदा पागा परकलत्रादे | आध्यानमध्यानं शासति जिनशासने विशद ॥७८॥ जिनशासनमे चतुर पुरुष, रागसे अथवा द्वेषसे अन्यकी स्त्री आदि के नाश होने, कैद होने, कट जाने आदिके चिन्तन करनेको आध्यान या अपध्याननामा अनर्थदण्ड कहते है । 1 स.सि / ७ / २१ / ३६० परेषा जयपराजयवधबन्धनाङ्गच्छेद परस्वहरणादि कथ स्यादिति मनसा चिन्तनमपध्यानम् = दूसरोका जय पराजय, मारना, बाँधना, अगोका छेदना, और धनका अपहरण आदि कैसे किया जाये इस प्रकार मनसे विचार करना अपध्यान है। ( रा वा / ७ / २१/२९/५/४६/७) चा सा./१६/५) (पु. सि.उ. / १४१) चा.सा / १७१/३ उभयमप्येतदपध्यानम् । ये दोनो आर्त व रौद्रध्यान अपध्यान है । (साध /५/६) - - का अ./मू ३४४ परदोसाण वि गहणं परलच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थी अबलोओ परकल हालोयण पढम ॥ ३४४॥ परके दोषोका ग्रहण करना, परकी लक्ष्मीको चाहना, परायी स्त्रीको ताक्ना तथा परायी कलहको देखना प्रथम (अवध्यान) अनर्थदण्ड है । 60 द्र. स / टी / २२/६६/१ स्वय विषयानुभवरहितोऽप्ययं जीव परकीय विषयानुभव दृष्ट श्रुत च मनसि स्मृत्वा यद्विषयाभिलाष करोति तदपध्यान भण्यते । = स्वय विषयो के अनुभव से रहित भी यह जीव अन्य के देखे हुए तथा सुने हुए विषय के अनुभवको मनमें स्मरण करके विषयोको इच्छा करता है, उसको अपध्यान कहते है ( प्र सा / ता वृ / १५८ / २१६) | अपर विदेह १. सुमेरु पर्वत के पश्चिम स्थित गम्यमानी आदि १६ क्षेत्र अपर या पश्चिम विदेह कहलाते हैं - दे लोक /५ । २. नोल पवतस्थ एक कूट व उसके रक्षक देवका नाम भी अपरविदेह है - दे. लोक /५ । अपरव्यवहार — आगमकी ७ नयोमें व्यवहारनयका एक भेददे, नय V/४ | अपरसंग्रह — आगमकी नयोमे संग्रहनयका एक भेद नय 111/8 अपराजित -१ एक यक्ष-दे, यक्ष, २ एक ग्रह- दे. ग्रह; ३. पा तीत देवोका एक भेददे स्वर्ग / २/१ ४. अपराजित स्वर्ग दे स्वर्ग/५/४, ५ जम्मूदीपकी वेदिकाका उत्तर द्वार०. शर - ६. अपर विदेहस्थ व प्रवान क्षेत्रकी मुख्य नगरी-दे लोक / ५ / २: ७ रुचकर पर्वतका छूट दे लोक/५/१२ विजयार्धकी दक्षिण श्रेणीका एक मग दे विद्याधर विजयार्धको उत्तर श्रेणीका एक ६. नगर के विद्याधर १० म.पू./५२/रलो. ७) घातकी खण्डमें मुसीमा देशका राजा था (२-३) प्रवज्या ग्रहणकर तीर्थंकर प्रकृतिका बन्ध किया और ऊर्ध्व वैयकमें अहमिन्द्र हो गये (१२-१४) यह पद्मप्रभ - जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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