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________________ अपकर्षण 1 आवलीका त्रिभागसे एक समय अधिक ही है अति स्थापना पूर्व एक समय अधिक है क्योंकि द्वितीयावलीका प्रथम समय जिसके व्यको पहिले अपकर्षणकर दिया गया है, न खाड़ी होकर अतिस्थापना के समय में सम्मिलित हो गया है ।) ऐसे क्रमतें द्वितीयावली के तृतीयादिनिषेकनिका अपकर्षण होते निशेष तो पूर्णे प्रमाण ही और अतिस्थापना एक एक समय अधिक क्रमतें जानना । (इसी प्रकार बढ़ते-बढते ) अतिस्थापना आवली मात्र ( अर्थात १६ निषेक प्रमाण) हा है, सो उत्कृष्ट अतिस्थापना है यहाँ से आगे ऊपर निषे निका द्रव्य (अर्थात् द्वितीय स्थितिके नं ७ आदि निषेक) अपकर्षण किये सर्वत्र अतिस्थापना तो आवली मात्र ही जानना अर निक्षेप एक-एक समय क्रमतें बंधता जाये। 1 (मं. ३०) द्वितीय स्थिति इसे द्रव्यको क्रम पूर्वक निक्षेप में डालते जाइये। क्रम पूर्वक एक एक समय मिलते रहने पर यहां आकर १६ निषेक या आवली प्रमाण । उत्कृष्ट अति10 स्थापना हो जघन्य निक्षेप के ६ निषेक आबाधा 0000000000000 (नं.४) अन्तिम निषेक (आवली) Jain Education International उत्कृष्ट निक्षेप कुल स्थिति - (आबाधा + अति स्थापना + अन्तिम निषेक) आबाधा (आयसी) xxxxx 00 00 तहाँ स्थितिका अन्त निषेकका द्रव्यको अपकर्षण करि नीचले निषेकनि निरतेतिस अन् निषेकके नीचे आयती मात्र निषेक तौ अतिस्थापना रूप है, और समय अधिक दाय आवली करि हीन उत्कृष्ट स्थिति मात्र निक्षेप हैं । सो यह उत्कृष्ट निक्षेप जानना । (कुल स्थितिमेंसे एक आवली तो आबाधा काल और एक आवली अतिस्थापना काल तथा एक समय अन्तिम निषेकका कम करनेपर यह उत्कृष्ट निक्षेप प्राप्त होता है। दे, यन्त्र नं ४) । २. अपकर्षण योग्य स्थान व प्रकृतियाँ गो.४४४४८/५१२-१८ चरिमोन्ति । खोण मुहुमंताणं खयदेमं सावलीयसमयोनि ॥ ४४५ ॥ उवसंतोत्ति सुराऊ मिच्छत्तिय खवगसोलस ण च । खयमेमोनि य खबगे अकसायादिवसा ॥ ४४६ ॥ मिच्छत सनसाण उनसममेदमि सहमति दीप्ति हवे ||४४७॥ पढमकसायाणं च विसजोजक वोत्ति अग्रददेमात्ति । रितिरिवाजानमुदीरणसतोट्या सिद्धा ॥४४८४ योगि सत्त्वरूप वही पिच्यासी प्रकृति ( पाँच शरीर, पाँच बन्धन, ५ ५ पच संघात, छ संस्थान, तीन अगोपाग, छ सहनन, पाँच वर्ण, ६ ५ ६ ३ ५ दो गध, पाँच रस, आठ स्पर्श, स्थिर अस्थिर, शुभ-अशुभ, सुस्वर २ ५ ८ २ २ २ दुस्वर, देवगति व आनुपूर्वी, प्रशस्त व अप्रशस्त विहायोगति दुर्भग, २ २ १ निर्माण, अयश कीर्ति, अनादेय अपने अरु उपा १ १ १ १ १ परघात, उच्छ्वास, अनुदयरूप अन्यतम वेदनीय, नोच गोत्र- ये १ १ १ १ १ प्रकृतिको योगके द्वि चरम समय सतहोत है बहुरि जिनका उदय अयोगि विषै पाइये ऐसे उदयरूप अन्यतम १ २ पण सामान्य निर्देश वेदनीय, मनुष्यगति, पंचेन्द्रिय, सुभग, शंस, बादर, पर्याप्त आय १ १ १ १ १ १ १ यश कीर्ति, तीर्थंकरख, मनुष्यायु म आनुपूर्वी, उच्च गत्रि इन १ १ १९४ १ २ तेरह प्रकृतियोंकी अयोगिके अन्त समय होती है। ४ २ • सर्व मिलि ८५ भई । ) तिनिकै ( ८५ प्रकृतिनि के ) सयोगिका अन्त समय पर्यन्त अपकर्षण जानना । महुरि क्षीणकषाय विषय सत्त्व से व्युच्छित्ति भई सोलह और सूक्ष्म साम्परायविषै सत्त्वतै व्युच्छित्ति भया सूक्ष्म लोभ इन तेरह प्रकृतिनिके देश पर्यन्त अपकर्षणकरण जानना । ( पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण, पाँच अन्तराय, निद्रा५ ५ प्रचला ये सोलह तथा सूक्ष्म लोभ । सर्व मिलि ७ भई । ) तहाँ क्षयदेश कहा सो कहिये है - जे प्रकृति अन्य प्रकृतिरूप उदय देय विनसे है. ऐसा परमुखोदयी है. निकेत फालि क्षयदेश बहुरि अपने हो रूप फस देह विमसे है ऐसी स्वमुखोदय प्रकृति, तिनक एक एक समय अधिक आवली प्रमाण क्षयदेश है. ताते तिनि सतरह प्रकृतिनिकै एक समय आवली काल पर्यंत अपकर्षण पाइये ॥ ४४ ॥ उपशान्तकषाय पर्यन्त देवायुके अपकर्षणकरण है। महुरि मिध्यात्व सम्यग्मिध्यास्थ सम्यवाद प्रकृति सीम और 'विश्व दिग्वखा' इत्यादि सूत्रोक्त अनिवृतिकरण विधेय भ सोलह प्रकृति ( नरक गति व आनुपूर्वी, तियंचगति व आनुपूर्वी, २ २ वित्र स्त्यानगृद्धत्रिक उद्योत आप एकेन्द्रिय स धारण ३ ३ १ १ १ १ सूक्ष्म, स्थावर, इन सोलह प्रकृतिनिकी अनिवृत्तिकरण के पहिले भाग १ १ ) सबसे है इनके देश पर्यन्त उपकरण है - अन्तकाण्डकका अन्तका फालि पर्यन्त है ऐसा जानना । बहुरि आउने आदि देकर रवि क्षय भई ऐसी मोस प्रकृति ( अप्रत्याख्यान कषाय, प्रत्याख्यान कषाय, नपुंसक वेद, स्त्री वेद १ १ ४ ४ छह नोकषाय, पुरुषवेद, संज्वलन क्रोध मान व माया । सर्व मिलि १ ६ ३ २० भई तिमि अपने अपने देश पर्यन्त अपकर्षणकरण है। जिस स्थानक भय भया साक्ष्य देश कहिये ॥४४६ ॥ उष्टाम श्रेणी विषै मिथ्यात्व मिश्र, सम्यक्त्व प्रकृति ये तीन अरनरक 'इकादिक सालह (अभिवृत्ति युकि १६ ) इनक उपशान्तम्पाय पर्यन्त अवर्षण है । बहुरि अष्ट वषायादिक अनिवृत्तिकरण प्राप्त पूर्वोक्त २०) तिनके अपनेअपने उपशमनेके टिकाने पर्यन्त अपकर्षणकरण है ॥४४७॥ अनन्तानुबन्धी चतुष्कक देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्तनि विषै यथा सम्भव जहाँ विसयाजना हाई तहा पर्यन्त अपकर्षणकरण है ॥ ४४८ ॥ ३. अपकृष्ट द्रव्यमे भी पुनः परिवर्तन होना सम्भव है च ६ / ११-८, १६/२२ / ३४७ ओकडुदि जे असेसे काले ते च होति भजि. दव्वा ! बड्डीए अत्रठ्ठाणे हाणीए सकमे उदए ॥२२॥ - जिन कम शोंक अपकर्षण करता है वे अनन्तर काल में स्थित्यादिकी वृद्धि, अवस्थान, हानि, सक्रमण, और उनसे भी है. अर्थात अपकर्षण किये जाने के अनन्तर समय में ही उनमें वृद्धि आदिक उक्त क्रियाओंका होना सम्भव है ॥२२॥ ४ उदयावलिसे बाहर स्थित निषेकोंका हो अपकर्षण होता है भीतरवालोंका नहीं कपर पूर्ण सूत्र / ४२३-४२४/२३१ ओकादो की दियं ग्राम कि जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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