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________________ अन्यत्वानुप्रेक्षा १९२ अपकर्षण स.सा./आ./३५५/क २१३ वस्तु चैकमिह नान्यवस्तुन', येन तेन खलु वस्तु वस्तु तत् । निश्चयोऽयमपरोऽपरस्य का, किं करोति हि बहिलुठन्नपि ॥२१३॥ इस लोकमें एक वस्तु अन्य वस्तुकी नहीं है, इसलिए वास्तवमें वस्तु वस्तु हो है । ऐसा होनेसे कोई अन्य वस्तु अन्य वस्तु के बाहर लोटती हुई भी उसका क्या कर सकती है। प्रसा/तप्र./१०६ अतद्भावो ह्यन्यत्वस्य लक्षण तत्तु सत्ताद्रव्ययो विद्यत एच गुणगुणिनोस्तद्भावस्याभावात् शुक्लोत्तरीयवदेव । अतद्भाव अन्यत्वका लक्षण है, वह तो सत्ता और द्रव्य के है ही, क्योंकि गुण और गुणीके तद्भावका अभाव होता है-शुक्ल व वस्त्रकी भाँति । * दो पदार्थोके मध्य अन्यत्वका विशेष रूप-दे. कारक, कारण । अन्यत्वानुप्रेक्षा-दे अनुप्रेक्षा। अन्यथानुपपत्ति-दे. हेतु । अन्यथायुक्ति खण्डन-(ज.प्र /प्र १०५) Reductio-ad-abour dum. अन्यदृष्टिप्रशंसा–स सि /9/२२/३६४ प्रशसासस्तवयो को विशेष । मनसा मिथ्यादृष्टेनिचारित्रगुणोद्भावनं प्रशसा, भूताभूतगुणोद्भावबच्चन सस्तव इत्ययमनयोर्भेद । प्रश्न - प्रशसा और सस्तव में क्या अन्तर है। उत्तर-मिथ्यादृष्टिके ज्ञान और चारित्र गुणोंको मनसे उद्भावन करना प्रशंसा है, और मिथ्यादृष्टिमें जो गुण है या जो गुण नहीं है इन दोनोंका सद्भाव बतलाते हुए कथन करना संस्तव है, इस प्रकार इन दोनों में अन्तर है ।(रा वा /७/२३,१/५५२) (चा सा /७/२)। अन्ययोगव्यवच्छेद १. अन्ययोगव्यवच्छेदात्मक एवकार-दे एव । २. अन्ययोगव्यवच्छेद नामका ग्रन्थ-श्वेताम्बराचार्य श्री हेमचन्द्र सूरि (ई १०८८-११७३) द्वारा रचा गया एक न्यायविषयक ग्रन्थ है। इसपर श्री मल्लिषेण सूरि (ई १२६२) ने स्याद्वादमंजरी नामकी टीका लिखी है । अन्योन्यगुणकारशलाका-'ज प्र/प्र.१०५) Mutual mult iple log. अन्योन्याभाव-रे अभाव । अन्योन्याम्यस्तराशि-गो क / /६३७/११३७ इट्टसलायपमाणे दुगसंबग्गे कदेदु इट्टस्स। पयडिस्स य अण्णोण्णाभत्थपमाण हवे णियमा। -अपनी-अपनी इष्ट शलाका जो नाना गुणहानि शलाका तीहिं प्रमाण दोयके अक माडि परस्पर गुणे अपनी इष्ट प्रकृतिका अन्योन्याभ्यस्त राशिका प्रमाण हो है । (गो क /भाषा/६२२/१.०६/३) (मो.जी /भाषा/१६/१५६/६/) (विशेष दे गणित/II/६/२)। २. प्रत्येक कर्मकी अन्योन्याभ्यस्त राशि- दे गणित II/६/४। अन्योन्याश्रय हेत्वाभास-श्लो.बा /४/न्या. ४५६/५५५/६/भाषाकार "परस्परमें धारावाही रूपसे एक-दूसरेकी अपेक्षा लागू रहना अन्योन्याश्रय है" (जिसे खटकेके तालेको चाबी तो आलमारीमें रह गयी और माहरसे ताला बन्द हो गया। तब चाबी निकले तो ताला खुले और ताला खुले तो चाबी निकले, ऐसी परस्परकी अपेक्षा लागू होती है)। अन्वय-रा.वा./५/२,४३६/२१ स्वजात्यपरित्यागेनावस्थितिरन्वयः । -अपनी जातिको न छोडते हुए उसी रूपसे "अवस्थित रहना है। उत्तर-अनुगताकार (यह वही है ऐसी) बुद्धि और अनुगताकार शब्द प्रयोगके द्वारा अनुमान किये जानेवाले तथा नित्य रिथत स्वात्मभूत अस्तित्वादि गुण अन्वय कहलाते है। स सा./ता.वृ/२२३ अन्वयव्यतिरेकशब्देन सर्वत्र विधिनिषेधौ ज्ञातव्यौ। __-अन्वय और व्यतिरेक शब्दसे सर्वत्र विधि-निषेध जानना चाहिए। पं.ध./पू /"४३ सत्ता सत्त्वं सद्वा सामान्यं द्रव्यमन्वयो वस्तु । अर्थो विधिर विशेषादेकार्थवाचका अमी शब्दा॥१४॥ सत्ता. सत्त्व, सदा सामान्य, द्रव्य, अन्वय, वस्तु, अर्थ और विधि ये सब शब्द अविशेषरूपसे एकार्थवाचक है। २. अन्वय व्यतिरेकको परस्पर सापेक्षता-दे.'सप्तभगी ४। ३. अन्वय द्रव्याथि नय-दे. नय IV/२। अन्वयी-स.सि.१५/३८/३०६ अन्वयिनो गुणाः। = गुण अन्वयी होते है। (रा वा /४/४२,११/२५२/१४) प्र.सा./त.प्र./८०) (पं ध/पू /१४४)। पं.ध/पू/१३८ तद्वाक्यान्तरमेतद्यथा गुणा' सहभुवोऽपि चान्वयिनः । अर्थाच्चैकार्थत्वादर्थादेकार्थवाचका' सर्वे ॥१३८॥-- गुण, सहभू और अन्वयी तथा अर्थ ये सब शब्द अर्थको दृष्टिसे एकार्थक होनेके कारण एकार्थवाचक है। अन्वर्थ-प.का./ता.व./१/७/६ अन्वर्थनाम कि यादृश नाम तादृ शोऽर्थः यथा तपतीति तपन आदित्य इत्यर्थः । = जैसा नाम हो वैसा ही पदार्थ हो उसे अन्वर्थ नाम कहते है-जैसे जो तपता है सो तपन अर्थात सूर्य है। अप-दे. जल। अपकर्ष-गो जी/जी.प्र./५१८/६१३/१७ भुज्यमानायुरपकृष्यापकृष्य परभवायुबध्यते इत्यपकर्ष ।। -भुज्यमान आयुको घटा-घटाकर आगामी परभवकी आयुको बॉधै सो अपर्ष कहिये (अर्थात् भुज्यमान आयुका २/३ भाग बीत जानेपर आयुबन्धके योग्य प्रथम अवसर आता है। यदि वहाँ न बंधे तो शेष १/३ आयुका पुन २/३ भाग बीत जानेपर दूसरा अवसर आता है। इस प्रकार आयुके अन्तपर्यन्त आठ अवसर आते है। इन्हे आठ अपकर्ष कहते हैं । (विशेष दे, आयु ४) । अपकर्षण-अपकर्षणका अर्थ घटना है। सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्रके कारण स्वत अथवा तपश्चरण आदिके द्वारासाधक पूर्वोपार्जित कर्मोकी स्थिति व अनुभाग बराबर घटाता हुआ अथवा घातता हुआ आगे बढता है। इसीका नाम मोक्षमार्गमें अपकर्षण इष्ट है । ससारी जीवोंके भीप्रतिपल शुभ या अशुभ परिणामोंके कारण पुण्य या पाप प्रकृतियोका अपकर्षण हुआ करता है। वह अपकर्षण दो प्रकारसे होता हैसाधारण व गुणाकार रूपसे। इनमें पहिलेको अपकर्षण व अपसरण तथा दूसरेको काण्डकघात कहते है, क्योंकि इसमें कर्मोंके गढ़ के गढे एक-एक आरमें तोड दिये जाते है। यह काण्डकघात ही मोक्षका साक्षात् कारण है और केवल ऊँचे दर्जे के ध्यानियोको होता है। इसी विषयका परिचय इस अधिकारमें दिया गया है। १ भेद व लक्षण १. अपकर्षण सामान्यका लक्षण । २ अपकर्षणके भेद (अव्याघात व व्याघात)। ३. अव्याघात अपकर्षणका लक्षण । ४ व्याघात अपकर्षणका लक्षण । ५ अतिस्थापना व निक्षेपके लक्षण । * जघन्य उत्कृष्ट निक्षेप व अतिस्थापना । -दे अपकर्षण २/१:४/२। रा.ता./४/४२.११/२५२/१४ के पुनरन्वया । बुद्धयभिधानानुवृत्तिलिङ्गन अनुमीयमानाबिच्छेदा' स्वात्मभूतास्तित्वादय' । प्रश्न-अन्वय क्या जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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