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________________ अनेकान्त १०७ अनेकान्त श्लो, बा /२/१.६,५६/४७४ न चैवमेकान्तोपगमे कश्चिद्दोष सुनयापितस्यै कान्तस्य समीचीनतया स्थिश्चात् प्रमाणापितस्यास्तित्वानेकान्तस्य प्रसिद्धे । येनात्मनानेकान्तस्तेनात्मनानेकान्त एवेत्येकान्तानुषड्गोऽपि नानिष्टः। प्रमाणसाधनस्यैवानेकान्तत्वसिद्ध. नयसाधनस्यैकान्तव्यवस्थितेरनेकान्तोऽप्यनेकान्त इति प्रतिज्ञानात । तदुक्तम्- "अनेकान्तोऽप्यनेकान्तः- (देखो ऊपर नं०१)।" इस प्रकार एकान्तको स्वीकार करनेपर भी हमारे यहाँ कोई दोष नहीं है, क्योकि श्रेष्ठ नयसे विवक्षित किये गये एकान्तकी समीचीन रूपसे सिद्धि हो चुकी है और प्रमाणसे विवक्षित किये गये अस्तित्व के अनेकान्तकी प्रसिद्धि हो रही है। जिस विवक्षित प्रमाणस्वरूपसे अनेकान्त है, उस स्वरूपसे अमेकान्त ही है', ऐसा एकान्त होनेका प्रसंग भी अनिष्ट नहीं है, क्योंकि, प्रमाण करके साधे गये विषयको ही अनेकान्तपना सिद्ध है, और नयके द्वारा साधन किये गये विषयको एकान्तपना व्यवस्थित हो रहा है । हम तो सबको अनेकान्त होनेकी प्रतिज्ञा करते है. इसलिए अनेकान्त भी अनेक धर्मवाला होकर अनेकान्त है। श्री १०८ समन्तभद्राचार्यने कहा भी है, कि अनेकान्त भी अनेकान्तस्वरूप है.. इत्यादि (देखो ऊपर नं.१ स्व स्त /१०३) । म च.वृ/१८१ एयंतो एयणयो होइ अणेयंतमस्स सम्मूहो। -एकान्त एक नयरूप होता है और अनेकान्त नयों का समूह होता है। का. अ./मू./२६१ ज बत्थू अणेयत एयंत तं पि होदि सविपेक्ख । सुयणाणेण णएहि य णिरवेक्रख दीसदे णेव ।२६११-जो वस्तु अनेकान्तरूप है वही सापेक्ष दृष्टिसे एकान्तरूप भी है । श्रुतज्ञानको अपेक्षा अनेकान्त रूप है और नयोंकी अपेक्षा एकान्त रूप है ॥२६१॥ ६. अनेकान्तमें सर्व एकान्त रहते है पर एकान्तमें अनेकान्त नहीं रहता न. च. ४/५७में उद्धृत "नित्यैकान्तमतं यस्य तस्यानेकान्तता कथम् । अनेकारतमतं यस्य तस्यैकान्तमतं स्फुटम् । -- जिसका मत नित्य एकान्तस्वरूप है उसके अनेकान्तता कैसे हो सकती है। जिसका मत अनेकान्त स्वरूप है उसके स्पष्ट रूपसे एकान्तता होती है। नच.वृ/१७६ जह सद्धाणमाई सम्मत्तं जह तबाइगुणणिलए । धाओ वा एयरसो तह णयमूलं अणेयतो ॥१७६१-जिस प्रकार तप ध्यान आदि गुणोंमें, श्रद्धान, सम्यक्त्व, ध्येय आदि एक रसरूपसे रहते है, उसी प्रकार नयमूलक अनेकान्त होता है । अर्थात अनेकान्तमें सर्व नय एक रसरूपसे रहते हैं। स्मा.में 1201३३६/११ सर्वनयात्मकरवाटनेकान्तबाढस्य। यथा विशकलिताना मुक्तामणीनामेकसूत्रानुस्यूताना हारव्यपदेश', एव पृथगभिसबन्धिना नयनां स्याद्वादलक्षण कसूत्रप्रीतानां श्रुताख्यप्रमाणव्यपदेश इति ।-अनेकान्तवाद सर्वनयात्मक है । जिस प्रकार बिखरे हए मोतियोंको एक सूत्र में पिरो देनेसे मोतियोंका सुन्दर हार बन जाता है उसी प्रकार भिन्न-भिन्न नयों को स्याद्वादरूपी सतमें पिरो देनेसे सम्पूर्ण नय 'श्रुत प्रमाण' कहे जाते है। स्या.म./३०/३३६/२६ न च पाच्य तहि भगवत्समयस्तेषु कथं नोपलभ्यते इति। समुद्रस्य सर्वसरिन्मयत्वेऽपि विभक्तासु तासु अनुपलम्भात् । तथा च वक्तृवचनयोरक्यमध्यवस्य श्रीसिद्धसेनदिवाकरपादा (ई. ५५०) उदधाविव सर्व सिन्धव' समुदीर्णास्त्वयि नाथ दृष्टय'। न च तासु भवान् प्रदृश्यते प्रविभक्तासु सरिरिस्वबोदधि'। -प्रश्न-यदि भगवानका शासन सर्वदर्शन स्वरूप है, तो यह शासन सर्वदर्शनों में, क्यों नहीं पाया जाता। उत्तर-जिस प्रकार समुद्र के अनेक नदी रूप होनेपर भी भिन्न-भिन्न नदियीमें समुद्र नहीं पाया जाता उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनो में जैनदर्शन नहीं पाया जाता। वक्ता और उसके वचनोंसे अभेद मानकर श्री सिद्धसेन दिवाकर (ई. ५५०) ने कहा है, 'हे नाथ' जिस प्रकार नदियाँ समुद्र में जाकर मिलती है वैसे ही सम्पूर्ण दृष्टियोका आपमे समावेश होता है । जिस प्रकार भिन्न-भिन्न नदियोंमें सागर नही रहता उसी प्रकार भिन्न-भिन्न दर्शनोमें आप नहीं रहते। ७. निरपेक्ष नयोका समूह अनेकान्त नहीं है। आप्त मी /१०८ मिथ्यासमूहो मिथ्या चेन्न मिथ्यकान्ततास्ति नः । निरपेक्षा नया मिथ्या सापेक्षा वस्तुतोऽर्थ कृत ॥१०८॥ -- मिथ्या नयोंका समूह भी मिथ्या ही है, परन्तु हमारे यहाँ नयोका समूह मिथ्या मही है, क्योकि, परस्पर निरपेक्ष नय मिथ्या है, परन्तु जो अपेक्षा सहित नय है वे वस्तुस्वरूप है। प सु/६६१-६२ विषयाभासं सामान्य विशेषो द्वय वा स्वतन्त्रम् ॥६१॥ तथा प्रतिभासनात् कार्याकरणाञ्च ॥६२॥ वस्तुके सामान्य व विशेष दोनों अशोंको स्वतन्त्र विषय मानना विषयाभास है ॥६॥ क्योंकि न तो ऐसे पृथक सामान्य या विशेषोकी प्रतीति है और न ही पृथक्पृथक् इन दोनोसे कोई अर्थ क्रिया सम्भव है। न्या दी /3/६८६ ननु प्रतिनियताभिप्रायगोचरतया पृथगात्मना परस्परसाहचर्यानपेक्षाया मिथ्याभूतानामेकत्वाटीनां धर्माणा साहचर्यलक्षणसमुदायोऽपि मिथ्यैवेति चेत्तदनीकुर्महे, परस्परोपकार्योपकारभाव विना स्वतन्त्रतया नै रपेक्ष्यापेक्षायां परस्वभावविमुक्तस्य तन्तु समूहस्य शीतनिवारणाद्यर्थ क्रियावदेव त्याने त्यानामथ क्रियायो सामर्थ्याभावात्कथ चिन्मिथ्यात्वस्यापि स भवात् ।-प्रश्न-एक-एक अभिप्रायके विषयरूपसे भिन्न-भिन्न सिद्ध होनेवाले और परस्परमें साहचर्यकी अपेक्षा न रखनेपर मिथ्याभूत हुए एकत्व अनेकत्व आदि धर्मोका साहचर्य रूप समूह भी जो कि अनेकान्त माना जाता है, मिथ्या ही है । तात्पर्य यह कि परस्पर निरपेक्ष एकत्वादि एकान्त जब मिथ्या है तो उनका समुहरूप अनेकान्त भी मिथ्या ही कहलायेगा उत्तरवह हमे दृष्ट है । जिस प्रकार परस्परके उपकार्य-उपकारक भाव के बिना स्वतन्त्र होनेसे एक दूसरे की अपेक्षान करनेपर वस्त्ररूपअवस्थासे रहित तन्तुओका समूह शीत निवारण आदि कार्य नही कर सकता है, उसी प्रकार एक दूसरे की अपेक्षा न करनेपर एकत्वादिक धर्म भी यथार्थ ज्ञान कराने आदि अर्थ क्रियामें समर्थ नहीं है। इसलिए उन परस्पर निरपेक्ष धर्मो में क्थचित मिथ्यापन भी सम्भव है। ८. अनेकान्त व एकान्तका समन्वय रा,वा /१/६,७/३५/२६ यद्यनेकान्तोऽनेकान्त एव स्यान्नै कान्तो भवेत, एकान्ताभावात् तत्समूहात्मकस्य तस्याप्यभाव स्यावाशाखाद्यभावे वृक्षादाभाववत् । यदि चैकान्त एक स्यात, तदविनाभाविशेषनिराकरणादात्मलोपे सर्वलाप स्यात् । एवम् उत्तरे च भड़ा योजयितव्या । -यदि अनेकान्तको अनेकान्त ही माना जाये और एकान्तका सर्वथा लोप किया जाये तो सम्यगेकान्तके अभावमें, शाखादिके अभावमें वृक्षक अभावकी तरह तत्समुदायरूप अनेकान्तका भी अभाव हो जायेगा। यदि एकान्त ही माना जाये तो अविनाभावी इतर धोका लोप होनेपर प्रकृत शेषका भी लोप होनेसे सर्व लोपका प्रसंग प्राप्त होता है। इसी प्रकार (अस्ति नास्ति भंगवत ) अनेकान्त व एकान्तमें शेष भंग भी लागू कर लेने चाहिए । (स भ.त /७५/४) । ९. सर्व एकान्तवादियोके मत किसी न किसी नयमें गभित है स्या. मं /२८/३१६/७ एत एव च परामर्शा अभिप्रेतधविधारणात्मकतया शेषधर्मतिरस्कारेण प्रवर्तमाना दुर्न यस ज्ञामश्नुवते। तबलप्रभावितसत्ताका हि खत्वेते परप्रवादा । तथाहि-गमनयदर्शनानुसारिणी नैयायिक-वैशेषिको । संग्रहाभिप्रायप्रवृत्ता सर्वेऽज्यद्वैतवादा सारख्यदर्शन च। व्यवहारनयानुपातिप्रायश्चार्वाकदर्शनम् । जुसूत्राकृतप्रवृत्तबुद्धयस्तथागताः।शब्दादिनयावलम्बिनो वैयाकरणादयः। जिस समय ये नय अन्य धर्मों का निषेध करके केवल अपने एक अभीष्ट धर्मका ही प्रतिपादन करते है, उस समय दुर्नय कहे जाते हैं। एकान्तवादी लोग वस्तुके एक धर्मको सत्य मानकर अन्य धोका निषेध करते है, इसलिए वे लोग दुर्न यवादी कहे जाते है। वह ऐसे किन्याय-वैशेषिक लोग नैगमनयका अनुसरण करते है, वेदान्ती अथवा जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.016008
Book TitleJainendra Siddhanta kosha Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJinendra Varni
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2003
Total Pages506
LanguagePrakrit, Sanskrit, Hindi
ClassificationDictionary & Dictionary
File Size18 MB
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